Saturday, October 10, 2020

कि तुमसे प्यार है...



1 अक्टूबर दोपहर दो बजे(ऑफिस)

कैसे कहूँ गुलनार से कि शुक्रगुजार हूँ उसकी खुशबू के लिए...पाब्लो नेरुदा
जो कहा नहीं जाता वो कितना ज्यादा कहा जाता है न प्रिय. तुमसे बात करती हूँ तब शायद बोलती या सुनती भर हूँ लेकिन...जब बात खत्म करके फोन रख चुके होते हैं उसके बाद शुरू होता है असल बातचीत का सिलसिला. मेरे जेहन में इस वक्त उन महकते संवादों की खुशबू है. तुमने कहा कि कुछ लिखूं तुम्हारे लिए...वो कुछ क्या हो भला. ऐसा क्या लिख पाऊंगी कभी कि अपना पूरा का पूरा महसूसना पिरो कर शब्दों में भेज सकूँ तुम्हें तोहफे में. आज अभी इस वक्त दफ्तर में लंच ब्रेक में सुनते हुए फायाकुन पढ़ते हुए पाब्लो नेरूदा और देखते हुए खूबसूरत पहाड़ डुबकियाँ लगाते हुए अपने भीतर की नदी में तुम्हारा ख्याल साथ है. यूँ ही अचानक पाब्लो नेरूदा करीब आ बैठे हैं उन्हीं सवालों के साथ जिन सवालों की गठरी लिए हम सब फिर रहे हैं.

यह किताब सवालों की बाबत है. रेयाज उल हक ने बहुत मीठा सा अनुवाद किया है इन सवालों का. हर सवाल कविता सा है. हर कविता किसी सवाल सी. लहरें मुझसे वही सवाल क्यों करती हैं जो मैं उनसे करता हूँ...सोचो न रैना तुम्हारे मुझसे किये जाने वाले सवालों की बाबत भी नहीं है यह बात. तुम्हारा हर सवाल मेरा भी सवाल तो है और उन सवालों के जवाब देने की मेरी असफल कच्ची सी कोशिश मुझे हमेशा शर्मिंदगी से भर देती है. लेकिन एक रौशनी सी उगती है. तुम्हारे सवालों की रौशनी.

बेचैन होना जीने की तलब होना ही तो है. सवालों का होना जो है उसे वैसा का वैसा स्वीकार न करने जैसा ही तो है. कुछ अपने हिसाब से, अपने लिए अपने मन के लम्हों को जी लेने की बेचैनी कमाने में सदियाँ लगाई हैं हमने. कीमत भी चुकाई है. चुका ही रहे हैं. 

जैसे जैसे बढ़ते हैं हम उम्र में नहीं मनुष्य होने की ओर सवाल बढ़ते हैं. सवाल ज्यादा शार्प होते हैं. और इ वक्त के बाद हमें सवालों के जवाब का इंतजार भी नहीं रहता बस हम खुश हो जाते हैं अपने भीतर के सवालों से मिलत जुलती शक्ल वाले सवालों से मिलकर.

तुमने कभी दो सवालों को गले लगकर रोते हुए देखा है? इस वक्त काश तुम मुझे देख पाती. पाब्लो नेरूदा के सवालों की किताब पढ़ती जा रही हूँ और अपने सवालों की खुशबू में डूबती जा रही हूँ. इस वक्त मेरे लैपटॉप पर प्यारा सा गुलाबी फूल रखा मुस्कुरा रहा है. वो तुम्हें याद कर रहा है. ये फूल मुझे घास के भीतर उगी किसी जंगली बेल में लगा मिला. पास में कुछ पीले और बैंगनी फूल भी खिले हुए थे. लोग इन फूलों को देखते तक नहीं लेकिन ह=इन फूलों ने मुझे रोक लिया. देर तक गुलाबी, पीले और बैंगनी फूलों से बात करती रही. बैंगनी जब झरता होगा तो क्या फिर से बैंगनी होकर उगता होगा. या वो गुलाबी हो जाता होगा. ये बेहद मामूली से जंगली फूल जो अक्सर अनजाने पांवों तले कुचल दिए जाते हैं, जो कभी पूजा के लिए तोड़े नहीं जाते, जिन्हें बच्चे तोडकर अपनी स्कूल की मैडम के लिए नहीं ले जाते वो क्या सोचते होंगे गुलाब. मोगरे, रजनीगन्धा के बारे में? मेरे बालों में इस वक़्त फूलों की कोई कतार खिल उठी है. वो कतार तुम्हें याद करती है.

प्यारी रैना, उदास बदरियों से घिरे दिनों में तुम्हारा होना मेरे लिए क्या था यह मैं कभी बता नहीं सकूंगी तुम्हें. बस कि उन अँधेरे दिनों में तुम रौशनी सी थीं. उदास दिनों में बहुत पानी होता है वो हमेशा जीवन को भिगोये रखता है.

2 अक्टूबर रात 9 बजे (घर- मेरा कमरा)


कल अचानक संवाद टूट गया था. कोई काम आ गया था दफ्तर में. आज छुट्टी थी. दिन भर सोने और किताबें पलटने में बीता. जानती हो इन दिनों एक अजीब सी मनस्थिति है. शब्दहीनता की. यह बहुत आकर्षित कर रही है. बाहर का बोलना तो कम हो ही गया था इन दिनों महसूस कर पाती हूँ कि भीतर के संवाद भी घटे हैं. एक आधी पीली और आधी हरी पत्ती को टहनी पर टंगे हुए घंटों देख सकती हूँ. देखती रहती हूँ. चलना बढ़ा है. भीतर की ओर का चलना. आज इस भीतर की ओर चलने में मैं बेहद खूबसूरत, बेहद आकर्षक पीले फूलों से भरे रास्ते से गुजरी. गुजरते हुए मैं फूलों पर पाँव न पड़ जाए की कोशिश में एक नृत्य की सी मुद्रा में आने लगी थी. मुझे बहुत हंसी आई. तभी मैंने महसूस किया कि कुछ पीले फूल मेरे काँधे पर भी आ बैठे हैं, कुछ सर पर. कुछ फूल मुझ पर बरस रहे हैं कुछ फूल मुझसे बरस रहे हैं. रौशनी की कोई लकीर उस रास्ते को देदीप्यमान कर रही थी. सब कुछ इतना सुखद था कि मेरी आँखें छलक उठीं.

जब हम भीतर की यात्रा पर निकलना सीखने लगते हैं बाहर के रास्ते और विशाल और खूबसूरत होने लगते हैं.रास्तों का होना जीवन का होना है. इन रास्तों पर भटकते हुए सही रास्तों तक पहुँचने की कोशिश जीवन यात्रा है. तुमने अपने मन के कुछ सवालों की बाबत पूछा था. मैं क्या बताऊँ, मैं खुद साईं सवालों की तलाश में हूँ. जो मैं करती हूँ वो तुमसे साझा करती हूँ एक दोस्त की तरह, कि मैं अपने सवालों को घुमा घुमा के देखती हूँ हर तरफ से घुमा के. फिर उसे किनारे रख देती हूँ. फिर दुसरे सवाल को उठाती हूँ. फिर उसे भी रख देती हूँ. फिर सवाल खत्म हो जाते हैं और मैं बहुत हल्का महसूस करने लगती हूँ. ऐसा लगता है सवालों को अपने लिए जवाब नहीं वक्त चाहिये. हर सवाल चाहता है उसके साथ थोडा वक़्त बिताओ. वक्त बिताते ही वो शांत हो जाता है. हम अपने सवालों को वक़्त नहीं देते. उनके बारे में बात करते हैं उनसे बात नहीं करते. मैंने इस प्रक्रिया में बहुत सारे दिक् करने वाले सवालों को मुस्कुराते हुए देखा है. बहुत से सवालों को पीले फूलों में बदलते देखा है. सवालों से बात करने से हम समझ पाते हैं कि जिस सवाल को इतना भाव दिए जा रहे थे वो तो बहुत नन्ही सी बात थी ठीक से सवाल बना भी नहीं था वो.

इस बाबत मैं तुम्हें वो किताब जरूर भेजूंगी सवालों की किताब. पाब्लो नेरुदा की कवितायेँ हैं वो. लेकिन तुम उसे कविता की तरह नहीं अपने मन की तरह पढ़ोगी. हर पंक्ति को पढ़ते हुए तुम्हे लगेगा अरे ये तो मेरी ही बात है.

शब्दहीनता का जादू मुझे पुकार रहा है. मेज पर रखे ढेर सारे शब्दों को समेट दिया है. तुम मेरे पास हो...मुस्कुरातो हुई.

3 अक्टूबर रात 9 बजे
अगर शब्दों को खंगालते हुए उँगलियाँ गीली मिट्टी से टकरा जाएँ या जड़ों में उलझ जाए अंगूठी तो समझ लेना चाहिए कि लेखक ने बड़े सुभीते से बोये थे बीज. उदासी के बादलों ने ठीकठाक बारिश की और उम्मीद की धूप ने अच्छे से सहेजा शब्द बीजों को. कि पाठकों के दिल में उतरने की उनके जेहन को उथल पुथल से भर देने में समर्थ होगी यह फसल और कुछ हद तक मिटा पाएगी ज़ेहनी भूख.

बिलकुल ऐसा ही महसूस हो रहा है इन दिनों 'सवालों की किताब' से गुजरते हुए. पन्ना दर पन्ना सवाल खुलते हैं, खुलते ही जाते हैं. पाब्लो नेरुदा को पढना यूँ भला किसी अच्छा न लगता होगा लेकिन उनका यह सवालिया ढब अलग ही ढंग से असर करता है. दिल के, ज़ेहन के तमाम कोनों की तलाशी लेती ये कवितायें हमारे भीतर के जन्मे-अजन्मे तमाम सवालों को सामने लाकर पटक देती हैं...और हम खुद को खाली होता महसूस करते हैं...

किताब गार्गी प्रकाशन से 2018 में आई है और सुंदर अनुवाद किया है रेयाज-उल-हक ने. मैं तुम्हें यह किताब भेजना चाहती हूँ. मैं तुम्हें और भी बहुत सी किताबें भेजना चाहती हूँ. वो चाहने की इच्छा और पहुँच जाने के सुख के बीच कहीं अटकी हुई हैं. निकलेंगी जरूर...तब तक किताब के कुछ अंश देखो तो.

बारिश में भीगती हुई ट्रेन से भी उदास
क्या कुछ है इस दुनिया में?
पत्तियां जब पीला महसूस करती हैं
तब क्यों कर लेती हैं वो खुदकुशी?
जो आंसू अभी बहे न हों
क्या वे एक छोटी सी झील का इंतजार करते हैं?
क्या यह सच है कि मंडराता है रातों में
मेरे मुल्क पर एक काला गिध्ध?
शायद शर्म से मर जाती होंगी
अपनी राह भूल गयी रेलें?
क्या ये सच है कि उदासी गाढ़ी होती है
और नाउम्मीदी पतली?
धरती से क्या सीखते हैं पेड़
कि कर सकें आसमान से बातें?
कौन है सबसे ज्यादा बदनसीब, जो इंतजार करता है
या जिसने नहीं किया कभी किसी का इंतजार?
किन सितारों से बातें करती हैं वो नदिया
जो नहीं पहुँच पातीं समन्दर तक?
(यह तुम्हारे नाम का ख़त ही है जो सार्वजनिक किया. जिसका मकसद सिर्फ इतना था कि इसे पढ़ते हुए जो सुख मुझे महसूस हुआ ई उसे खूब सारे दोस्तों से बाँट सकूँ.)

4 अक्टूबर सुबह 10 बजे 

आज इतवार वाली सुबह है. इतवार वाली रात में और सुबह में एक अलग सा आलस घुला होता है जिसमें राहत की मात्र थोड़ी बढ़ी होती है. सुबह नौ बजे सोकर उठी हूँ. थोड़ा सा योग करने के बाद चाय पीते हुए तुमसे बातें कर रही हूँ. मेरे लगाये तमाम पौधे जब मुस्कुराते हैं तो ऐसा लगता है जी लूं हूँ थोड़ा सा और. सुबह सबसे पीला ये पौधे ही मुझे गुड मॉर्निंग कहते हैं. पता है मेरे मन में इन्हें देखकर वात्सल्य भाव आता है. छोटे से थे जब आये थे अब देखो कैसे हाथ पाँव फैला कर ढेर सारी जगह बटोर रहे हैं. जूही और हरसिंगार में होड़ है जल्दी बढ़ने की. दोनों आपस में उलझते भी रहते हैं. इसकी शाख उसमें उसकी इसमें. मजेदार है यह दृश्य. पीली चोंच वाली चिड़िया जूही के करीब बैठी है मुझे मालूम है हरसिंगार को जलन हो रही होगी. सोच रही हूँ मधुमालती भी ले आऊँ. थोड़ी और शरारतें बढ़ें.

देखो न रैना, जीवन कितना सुंदर है. और हम इसे देख ही नहीं पाते. हमारे प्रश्न जीवन की इस सुन्दरता के सम्मुख कितने बौने हैं. तब नेरुदा की बात कितनी सही लगती है कि पेड़ धरती से कैसे सीखते होंगे आकाश से बातें करना? सवाल कैसे होने चाहिए और हमारे सवाल कैसे हैं...इसके बीच एक अन्तराल है. हमें इस अन्तराल को भरना सीखना होगा. अपने जीवन को अपने जन्म से अलग करके देखना होगा. हमारे जन्म में हमारी कोई भूमिका नहीं, न हमारी शक्ल, रंग या उस जात्ति कुल धर्म आदि में जिसका अभिमान या क्षुद्रता का बोध हमारे जीवन को ढंक लेता है. जबकि जीवन जन्म से एकदम अलग है. हमारा जीवन हमारा है हम उसे वैसा ही जी सकते हैं जैसा हम उसे जीना चाहते हैं लेकिन समाज की संरचना ऐसा कभी नहीं होने देना चाहती. समाज की संरचना चाहती है कि हम दुनियावी निरर्थक सवालों में उलझे रहे हैं. असल में हम सवालों में उलझे ही अहिं दी गयी भूमिकाओं. (दी गयी, हालाँकि हमें यह भ्रम होता है कि यह भूमिकाएं हमने चुनी हैं) को निभाते हुए सुखी रहें. 

रैना मेरे मन में बहुत से सवाल हैं, बहुत से. लेकिन उन सवालों पर फिर कभी बात करूंगी. अभी तो सिर्फ इतना ही कि अपने जन्मदिन को अपने जन्म का दिन बनाओ और केक काटने, गिफ्ट लेने के बाद सोचो कि कैसे इस जन्म को जीवन बनाया जाए. पति, परिवार, नौकरी शाम की चाय, टीवी, पार्टी समारोह, सजना संवरना, खुश होना या खुश दिखना यह भूमिकाएं हैं जीवन नहीं. जीवन कहीं और है, जीवन कुछ और है. मैं कामना करती हूँ कि तुम नए सवालों से भर जाओ. जीवन को ढूंढना शुरू करो. जीवन मिले न मिले लेकिन इस ढूँढने में तुम्हें सुख होगा. थोड़ी बेचैनी भी होगी, लेकिन भूमिकाओं में कैद होने पर जो बेचैनी थी यह उससे अलग होगी.

खुश रहो.

6 अक्टूबर दोपहर 1 बजे ऑफिस में
इस वक़्त मेरी टेबल पर तीन किताबें रखी हैं. पीछे पीले फूल खिले हैं. कचनार के पेड़ अभी पौधे ही हैं. लेकिन मैं उनकी शाखों पर गुलाबी फूलों के गुच्छे अभी से देख पा रही हूँ. कभी कभी लगता है वो फूल मेरे बालों में आकर टंक गये हों. फिर ध्यान आता है कि बालों में मुस्कुरा रहा है एक छोटा सा पीला फूल. 

मुझे फूलों को देखते रहने से सुंदर कुछ नहीं लगता. यहाँ फूलों को विस्तार में समझना. इस विस्तार में दूब घास से लेकर दिन में रात का सा भान देने वाले जंगल भी शामिल हैं. ये सब लिखते हुए ऐसा नहीं कि मैं तुम्हारी उन अनकही समस्याओं के बारे में जानती नहीं, या उन पर बात करना नहीं चाहती. लेकिन हाल ही में मैंने यह जाना है कि बात करने से कुछ नहीं होता. कहना और सुनना बात करना नहीं होता. लिखना और उसे पढना भी बात करना नहीं होता. बात होती है जब हम तमाम आवाजों से पीछा छुडा पाते हैं. आवाजों का अर्थ शब्द नहीं. यह मैं पहले भी कह चुकी हूँ. फिर फिर कहूँगी. शब्दहीनता एक जादू है. मौन में सुख है. समस्या कहाँ है जब तक वो देह तक छूकर गुजर रही है. देह से होकर गुजरती यातनाओं का जिक्र सिहरन से भर देता है. हम आँखें नहीं बंद कर सकते, जातीयता दीमक की तरह लगी है मनुष्यता में. नफरत, हिंसा, क्रूरता और उसमें सुख ढूँढने वालों को कैसे कोई इन्सान कह सकता है. हम इतना तो कर ही सकते हैं कि खुद को उस तूफानी रेले में अंधड़ में फंसने से बचा सकें. अपने बच्चों को एक ऐसा कल दें जिसमें जाति धर्म नहीं प्रेम, संवेदना पहचान बने.

क्या हो अगर कोई जादू हो और हम सब अपने अपने धर्म और जाति भूल जाएँ....सोचो?

अभी यहीं रोकती हूँ. कल इस खत को पोस्ट करूंगी इस उम्मीद में कि यह पहुंचेगा तुम तक समय पर. कबूतर होता तो उसके पाँव में बाँध कर उड़ा देती. उसके पाँव में घुँघरू भी बाँध देती. छम छम करके पहुँचती यह चिठ्ठी तुम तक.
खूब खुश रहा करो....तुम्हारी मुस्कुराहट प्यारी है. तुम भी.

प्यार

10 अक्टूबर दोपहर 12 बजे छुट्टी के दिन घर में 
मेरी प्यारी सी रैना जन्मदिन बहुत बहुत मुबारक हो. तुम्हारी प्यारी सी मुस्कान पूरी दुनिया को रोशन करती रहे. तुम्हारा गिफ्ट भेजा जा चुका है. या पहुँच गया होगा या पहुँचने वाला होगा. तुम्हारे लिए पात्र लिखना मेरे लिए बहुत सुख रहा. जैसे हम दोनों गार्डन में टहलते हुए बात कर रहे हों या साथ में उतरती शाम को देखते हुए चाय पी रहे हों. तुम्हारे लिए कायनात की सारी खुशियों को पैक करके कूरियर करने का मन है. मुझे प्रकृति जिस रूप में है उसी रूप में बहुत पसंद है इसलिए आज के दिन इस धरती पर खिले सारे फूल तुम्हारे...हमेशा महकती रहो, खुशियों से छलकती रहो. मन नर्म है तुम्हारा थोड़ी ज्यादा केयर करना इसका.
बहुत ढेर सारा प्यारा
प्रतिभा 

2 comments:

शिवम कुमार पाण्डेय said...

बहुत सुंदर।

Onkar said...

सुन्दर प्रस्तुति