Sunday, December 15, 2019

गुइयाँ




जब तुम्हें सोचती हूँ
तब सोचती हूँ आकाश
जो उदास मौसम में
झुक के आ जाता है
कन्धों के एकदम पास


जब तुम्हें सोचती हूँ
तब सोचती हूँ रास्तों को
जो जितने लम्बे होते हैं
उतनी गहन होती है उनकी पुकार
उन रास्तों पर अचानक
तुम थाम लेती हो हाथ
और रास्तों की लम्बाई
खूबसूरत साथ में बदल जाती है

जब तुम्हें सोचती हूँ
तब सोचती हूँ
मीठी सुबहों में महकती मधु मालती को
और जयपुर वाले घर की छत पर
सुबह की चाय के साथ खेलना आई स्पाई

जब तुम्हें सोचती हूँ
तब खुलती है जादू की एक पुड़िया
मासी मासी का मीठा स्वर महकाने लगता है मन
पंछियों का कोई झुण्ड गुजरता है करीब से
तुम दौड़ती भागती, मुस्कुराती आश्वस्त करती हो
कि मैं बेफिक्र हो सकती हूँ क्योंकि तुम हो मेरे पास.

7 comments:

ANHAD NAAD said...

गुईयाँदारी अजर रहे !

yashoda Agrawal said...

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 16 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

Sudha Devrani said...

मधुर भावों से सजी लाजवाब कृति...
वाह!!

RAKESH KUMAR SRIVASTAVA 'RAHI' said...

रिश्तों की अहमियत को समझती रचना, सुंदर प्रस्तुति।

मन की वीणा said...

वात्सल्य से सरोबार यादों से लिपटी सुंदर रचना।

Onkar said...

बहुत सुन्दर

Anonymous said...

कोई इतना प्यार कैसे लुटा सकता है प्यारी गुईयां