Tuesday, December 31, 2019

ओ जाते हुए लम्हों तुम्हें सलाम!


बीतते हुए लम्हों को देख रही हूँ. यह समय मेरी जिन्दगी में बहुत मायने रखता है. ठीक एक दशक पहले जिन्दगी की बाज़ी पलटी थी. अच्छे या बुरे का पता नहीं लेकिन तब नयी प्रतिभा ने उगना शुरू किया था. घुटने छिले, खून और पसीने से लथपथ हुए. धूप, सर्दी, बरसात से गुजरते हुए जिन्दगी से बेजारी भी हुई. संघर्षों की आंच में तपना शुरू हुआ.

पलटकर देखती हूँ तो सुकून महसूस होता है. आज अपने भीतर खुद को महसूस कर पाती हूँ. आज मुझमें मैं हूँ. यूँ तलाश भी जारी है और तराश भी लेकिन कुछ है जो बहुत सारा खोकर बहुत थोड़ा सा पा लिया है. यह थोड़ा सा जो है, यही सुख है. लेकिन इस सुख को सिरहाने रखकर सोते समय भी नींद में कोई नीम उदासी रहती है. मुझे यह नीम उदासी प्यारी लगती है. यह मुझे भटकने नहीं देती मुझे सम पर बनाये रखती है.

यह जो बीत रहा है, इसके प्रति अगाध स्नेह है, इसने मुझे गढा है. भौतिक दृष्टि से देखें तो इस एक दशक ने मुझे अपने पाँव पर और मजबूती से खड़ा किया, नयी पहचान दी, नए दोस्त दिए, नया आत्मविश्वास दिया. बीते बरस को देखें तो इसी बरस में अपने खुद के घर में बैठकर अपनी पहली किताब की भूमिका लिखी. यह सब सुख ही तो है लेकिन जाने क्यों जब खुश होने की बारी आती है आँखों में कोई नमी सी आ बैठती है.

जानती हूँ भौतिक सुखों का कोई अर्थ नहीं. जिस बात का अर्थ है वह यही है कि क्या महसूस होना बढ़ा है? क्या मनुष्य होने की ओर कुछ कदम और बढ़ सकी हूँ, क्या अब सामाजिक मुद्ददे पहले से ज्यादा बेचैन करते हैं...जवाब हाँ में आता है और यह सुकून कम नहीं.

सुकून यह है कि दोस्त गुड मॉर्निग का मैसेज नहीं फौरवर्ड करते लेकिन यकीनन उनके होने से सुबहें खूबसूरत हैं. सुकून है कि दोस्त हैं जिनका सच मेरे सच से मिलता है और उन्हें मेरे सुख पर मुझसे ज्यादा हक है. सुकून है कि तमाम नकारात्मक ताकतों के खिलाफ देश लड़ रहा है और उन लड़ने वालों में दोस्त शामिल हैं.

इस बीतते वक़्त की यही सुंदर बात लगती है कि इसने दोस्तियों के चेहरे साफ़ किये हैं, नकाब उतारे हैं. दोस्तियों को और गाढ़ा किया है. हर बीते हुए लम्हे के प्रति आभारी हूँ, आने वाले हर लम्हे के प्रति विनम्र हूँ. फिर भी नए साल को मनाने जैसा नहीं पाती खुद को. अशोक कुमार पाण्डेय की दो लाइने जेहन से उतर ही नहीं रहीं कि
अपना नया साल तो तभी मनेगा
जब जेल के ताले टूटेंगे
और यार हमारे छूटेंगे.

चम्पक के मम्मी पापा उसे जल्द गले लगा लें, दीपक और सदफ समेत वो सब साथी घर लौट आयें जो सच के लिए लड़ रहे हैं. आंदोलनों की आंच तेज़ होती रहे नये बरस के नाज़ुक कंधो पर इन्हीं उम्मीदों को रखते हुए आने वाले हर नए लम्हे का स्वागत, सबको बधाई, शुभकामनाएं!

(इश्क़ शहर, जाते बरस की डायरी)

2 comments:

दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 2.1.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3568 में दिया जाएगा । आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी ।

धन्यवाद

दिलबागसिंह विर्क

कविता रावत said...


बहुत सुन्दर प्रस्तुति
आपको भी नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं