‘क से कविता’ आयोजित करने वाले भी भली—भांति जानते हैं कि वह अचानक नए लोगों को खड़ा कर रही है। दरअसलए उत्तराखंड की जमीन में मौजूद साहित्यानुराग की उर्वर शक्ति ही इसकी बुनियाद बनाती है। लोग हैं इसलिए वे कविता को आमंत्रित करते हैं.
उत्तराखंड के सभी जनपदों में ‘क से कविता’ मंच गठित
- भास्कर उप्रेती
आख़िरकार अल्मोड़ा नगर में 25 मार्च को ‘क से कविता’ की शुरुआत हो गयी. शुरुआत भी एक मुकम्मल शुरुआत. इधर ‘क से कविता’ ने ‘ए’ से शुरू होने वाले अल्मोड़ा में अपना परचम लहराया, उधर महान कविताफरोश सुभाष रावत ने लंबी और गहरी साँस ली। उन्होंने जब गहरी संतोष भरी साँस ली तो हम सब कविता प्रेमियों को भी अपनी खुदी पर नाज हो आया. क्यों न होता ? उत्तराखंड ऐसा प्रदेश बन गया था, जहाँ अब हर जिले में कविताएं हो रही थीं। फ्रीफंड की कविताएं. मार्च के महीने में साहित्य के कई मठों में कवियों पर खूब फंड उड़ेला जाता है। यहाँ जनता अपना प्यार कविताओं पर उंडेल रही थी।
कविता कहने के लिए लोग घरों से निकल पड़ते हैं या कविताओं को होस्ट करने के लिए घरों में बुलाते हैं। कवि समाज के लोग नहीं, यह लोग हैं फकत कविताप्रेमी लोगण् जोअपनी नहीं दूसरों की कविताएं पढ़ते हैं. वे जगह—जगह की कविताएं पढ़ते हैं। लोक की कवितायेँ, जन की कवितायेँ, हिंदी की कवितायेँ, भारतीय भाषाओं की कवितायेँ, विश्व भाषाओं की कविता। नारी कविता, दलित कविता, गोरी कविता, काली कविता।
कोई भी पूछना चाहेगा कविता क्यों? कविता ही क्यों
मगर हमने इस सवाल का उत्तर कभी नहीं तलाशना चाहा कविता को खुद बताने दो।
सुभाष भाई पिछले दो साल से अपने सपने को लेकर हर शनिवार दिल्ली से भागे चले आते हैं। कभी पिथौरागढ़, कभी अगस्त्यमुनि तो कभी उत्तरकाशी। 1994 में उत्तराखंड आन्दोलन के दौरान उनकी थियेटर टीम ने एक नाटक जगह—जगह किया था। उसका नाम था मिशन 2020। नाटक एक प्रदेश के रूप में अवतरित हो रहे उत्तराखंड की खूबियाँ बताता था। उत्तराखंड बना नहीं था, उसे बनना था। लेकिन, उस समय उसके बीज जिस भांति अंकुरित हो रहे थे, उससे शेक्सपियर के जूलियट सीजर नाटक सी डरावनी ध्वनियाँ गूँज रही थीं। आज का उत्तराखंड वही है जो कला दर्पण का नाटक भविष्यवाणी में कह रहा था। मगर, ऐसा ही उत्तराखंड चाहिए था हमें।
हमें तो रामगढ़ की चोटी पर बैठे टैगोर वाला उत्तराखंड चाहिए था। हमें महादेवी का उमागढ़ वाला उत्तराखंड चाहिए था। हमें चंद्रकुंवर बर्त्वाल वाला हिमवंत चाहिए था। हमें लैंसडाउन की उकाव से उमड़ते नागार्जुन के घिरते बादल चाहिए थे। हमें स्वामी मन्मथन और प्रो. डी.डी. पंत के सपनों का विश्वविद्यालय चाहिए था, गिर्दा का ‘धुर जंगल फूल फूलो यस जतन करुलो’ और ‘हाँ न पटरी माथा फोड़े ऐसा हो स्कूल हमारा’ वाला प्रान्त चाहिए था। उसमें गुमानी के ‘काफल’ चाहिए थे, मोहन उप्रेती के हुड़के की थाप होनी थीं। घाटियों और धुरों में पंडित उदयशंकर का आलाप सुनाई पड़ना था। मगर हो न सका।
जो था और है वह है पस्ती थियेटर ठप, जनगीत चुप, लेखक गायब, कवि लापता। पत्रकार पतित, शिक्षक गैर—हाज़िर। दोष किसको ? सरकार का सरकार जिसके बारे में सब कहते हैं उनकी हो नहीं सकती, उनके लिए कुछ कर नहीं सकती।
बातें थीं, चिंताएं थीं। शोक था, विलाप था, मगर पहल नहीं थी। पहल करें भी तो करें कैसे? तानाशाह का भय कंपित करता था। चेतन, अर्द्धचेतन, अवचेतन सब एक नियति के शिकार।
इसी बीच देहरादून में कुछ प्राणियों ने एक यूटोपिया रचा। जैसे शमशेर कहते थे न ‘कविता न सही’ हाथ की छटपटाहट ही सही. बैठे—ठाले इन प्राणियों को सपना आया. ‘प्रतिरोध न सही, कविता ही सही. कविता होने लगी। देहरादून से यह हल्द्वानी पहुँची। फिर उत्तरकाशी, टिहरी, श्रीनगर, पौड़ी, अगस्त्यमुनि, रुद्रपुर, खटीमा, लोहाघाट, रुड़की, पिथौरागढ़, बागेश्वर और अब अल्मोड़ा, अल्मोड़ा ‘अ’ से और ‘ए’ से शुरू होता है, लेकिन अल्मोड़ा को शुरू होने में थोड़ा टैम लग गया।
पाश कहते हैं न, ‘सपनों के लिए लाज़िमी है झेलने वाले दिलों का होना’ कविता के सपने उन्हें कैसे आएंगे जो कभी बेचैन नहीं होते। लेकिन रेत में अपनी मुंडी घुसेड़ देने से तो अच्छा है कविता ही पढ़ लें। अपनी बेचैनी को कोई ठौर तो मिले. दुनिया से रुखसत होते हुए यह तो कहा जा सकेगा कि नहीं बदल सके हम दुनिया यारो, मगर हमने सपनों के बीज तो जगह—जगह फेर दिये. सपने बचे रहेंगे तो बदलने की भी कूबत बनी रहेगी।
खैर थोड़ी सी बात ‘क से कविता’ की अल्मोड़िया चाल की। 25 मार्च की सुबह नौकरी के काम से मैं रुद्रपुर के कॉर्बेट इन में पड़ा हुआ था। पता नहीं किस गरज से मैंने कमरे की चिटकनी नहीं लगायी। सुबह के खर्राटों में मेरे मोबाइल की चीख उठी। किसी तरह सिकुड़ते—सिकोड़ते हुए मोबाइल उठाने को होता हूँ तो खुली आँखें अचंभित हो उठती हैं। मेरे सामने एक स्मार्ट सा आदमी अपनी दंतमाला खोले मुस्कान बिखेर रहा था। मन से एक आवाज आई. ओह यह कविता का विदूषक! जी हाँ कविताफरोश सुभाष रावत वह और पहले आ चुके थे. फ्रेश हो चुके थे। अब हाज़िर हो रहे हैं।
शायद यह बात उन्होंने निम की ट्रेनिंग में सीखी होगी। सीधे रिपोर्ट करते हुए कहते हैं—जी हाँ हम पहुँच चुके हैं। हेम पंत कुछ ही मिनटों में हाज़िर होते होंगे। हम ठीक 6 बजे यहाँ से रवाना हो जायेंगे। मेरे मन से आवाज आई— ‘यह साँचे में ढला हुआ आदमी कैसे कविता का आदमी हो गया। ‘कविता का आदमी तो शर्तिया बेतरतीब होना चाहिए। बहरहाल हेम भी उस समय प्रकट हो गए। वो भी इनसे कम नहीं हैं। सुभाष दा चलो लेट नहीं होना है। 10 बजे शुरू हो जाएगा।
मुझे याद आया कि बीते दिन यह योजना बनी थी कि अल्मोड़ा में ‘क से कविता’ करने के लिए सुभाष दा और हेम रानीखेत के बाटे अल्मोड़ा पहुँचेंगे। अल्मोड़ा में नीरज भट्ट जी—जान से कविता कराने को जुटे हुए हैं। मैंने दोनों को शुभकामनाएं दीं, ‘कविता का अंतिम किला’ फतह करने के लिए। अंतिम इस मायने में कि अब तक 12 जिलों में ‘क से कविता’ होने लगी थी।
मेरे खाप में लटपटी नींद चपड़—चपड़ कर रही थी। मैं सोने की कोशिश करने लगा मगर तभी पता नहीं क्यों मृणाल पाण्डे की किताब का टाइटल मेरे जेहन में गूँज पड़ा। ‘ओ रे अल्मोड़ा’। मैं अचकचाकर बैठ गया। मैंने मोबाइल से सुभाष दा को धात लगायी, मुझे भी ले जाओ, मेरा मन भी आने का कर रहा है। वहां से दोनों खितखित करने लगे। देखा कविता का कमाल! मैं झटपट तैयार हुआ और हम कार में जा घुसे। सुभाषदा रोडवेज की बस से अब तक कविता—धर्म के प्रचार—प्रसार को गए हैं। पिछली दफा तो वे मेरी बाइक की पीठ पर बैठकर बागेश्वर पहुंचे थे। जहाँ से फिर भराड़ी पहुँच गए। फिर गरुड़—कौसानी होते हुए वापिस दिल्ली की बस में जा घुसे थे। हम उनकी बहादुरी की सान में धार लगाते रहे। मगर इस बार हेम ने तय किया था कि कविता के होलटाइमर को थोड़ा आराम के साथ कविता—स्थल तक ले जाया जाए।
मटकोटा मोड़ से गुजरते हुए हमें पहले पत्रकार जगमोहन रौतेला और फिर मीडिया—गुरु भूपेन सिंह की भी फाम हो आई। ‘चलोगे? पहले रानीखेत में उमेश डोभाल और फिर अल्मोड़ा की धार में कविता कौन भला ऐसा रोमानी सपन ठुकराए। जग्गू दादा बोले, यार वैसे तो फूफाजी की तेरहवीं हैं, लेकिन वहां भी चलूँगा तो ठीक ही हुआ। भुप्पी दा बोले ‘अरे मुझे डिस्टर्ब क्यों कर देते हो बार—बार, अब कह रहे हो तो जाना ही पड़ेगा। इस तरह हम पांच जन हल्द्वानी से हो गए। उस दिन तो ऐसा लग रहा था मानो किसी से भी कविता के लिए चलने को कहते चल ही देता।
रानीखेत में हम ख़राब वक़्त शुरूहोने से ठीक पहले पहुँचे। सौज्यू की बकेट पर बनी सुंदर और सार्थक कलाकृतियों को देख मन प्रसन्न हो उठा। ललित कोठियाल ने टीम हल्द्वानी की चिप लगाकर हम लोगों का ग्रुप फोटो खेंचा। सभागार में हालाँकि चारु तिवारी बोलकर निमा चुके थे। लेकिन शेखर दा मंद—मंद लौ में सुलगरहे थे। उत्तराखंड की दशा, दिशा, दृष्टि का समूचा—समग्र आख्यान। हमारा रिवीजन हो गया। उनसे तो एक ही बात सौ—सौ बार सुनने का मन करता है। राजदूत भंडारी जी जैसे ही संस्कृत का उच्चार करते हुए आये तो हमने बाहर निकलकर गढ़वाल के ओने—कोने से पहुंचे मित्रों से मिलने—भेंटने का लुत्फ़ उठाया। देहरादून से योगेश दा ‘भट्ट’ अपनी अदा के साथ आये थे। मनीष सुन्द्रियाल हमेशा की तरह मौजूद थे। व्योमेश जुगरान जी से सकल रूप में पहली भेंट थी। एक कोने से अपने 23 साल पुराने दगड़ीयों के साथ अरुण कुकसाल टिमटिमा रहे थे। महेश पाण्डेय जी और पी.सी. तिवारी जी की शिकायतों ने भी हमें और परिपूर्ण किया। अंदर पुरस्कारों का रेला शुरु हुआ। इधर से गीता गैरोला दीदी की टोली जीप भरकर आ धमकी। साथ में पंखुड़ी और सुमन केसरी। हम धन्य हुए। गीता दी जहाँ न पहुंचें वो कार्यक्रम ही क्या।
नीरज बार—बार समय से आने का अलार्म बजा रहे थे तो हम खिसक लिए। भूपेन सिंह को वहीं छोड़ना पड़ा क्यूंकि उन्हें मीडिया के हालातों पर कुछ जरूरी बात वहाँ रखनी थीं। कठपुड़िया में दाल—भात खाया। पहाड़ी खाना खिलाने की जिरह की मगर दाज्यू बोले कोई नहीं खाता सैप अब आप कह रहे होए लेकिन यहाँ के गिराक तो अरहर की दाल ही मांगने वाले हुए। छोटे स्टेशन के लिहाज़ से बहुत सारी खाने की दुकानें हैं यहाँ लेकिन सब के बाहर मोमो के ही चिट लटके हैं।
खैर हम थोड़ी देर में कोसी पुल की तारीफ करते—करते स्यालीधार पहुँच गए। अब जाकर कविता पर बात फोकस हुई। सुभाष दा का निर्देश हुआ नीरज को फोन लगाकर पूछो कितने आए। कितने वाला सवाल बहुत जरूरी था. अल्मोड़ा में कविता को कैसे देखा जाएगा जाने. इसी बीच हेम को कल्याण मनकोटी ने आने की इत्तिला दी. अब हम एक—एक क्षण में और सुनना चाहते थे। लोग जुड़ रहे थे, मगर कितने आएंगे टोटल धुंधलका था। हमने मित्र पुलिस की अनुपस्थिति देखकर माल रोड की बाइक पार्किंग में कार घुसेड़ दी और दौड़े—दौड़े जी.जी.आइ.सी. की सीढ़ियाँ उतरनी शुरू कीं ताने से अंदर देखा कुछ लोग थे। फिर हाल में पहुंचे ठीक—ठाक लोग थे।
नीरज को भी ठीक-ठीक नहीं पता था. कविता क्या बला है. हल्की बूंदाबादी शुरू हो चुकी थी पर हौले—हौले लोग बढ़ ही रहे थे। संख्या 25 पार हुई तो हमने सभा शुरू करने की घोषणा की। चेहरे के अंदर चेहरे पढ़ने में अल्मोड़यों का कोई सानी है ? धीर—गंभीर चेहरों के भीतर बैठा प्रश्नवाचक जानने को उत्सुक था कि आखिर ये क्या बेचने आये हैं और क्या भिड़ा के जाना चाहते हैं। इनमें दुकानदार थे, छात्र थे, शिक्षक थे, इंजीनियर थे समाजसेवी थे। नीरज जैसे अपरिभाषित युवा भी थे। टुकुर—टुकुर ताक रहे नीरज पंत जी को कुछ—कुछ आईडिया था प्रभात उप्रेती जी की सिफारिशी सूचनाओं की वजह से। मगर, बाकी सबकी आँखों में प्रश्न अधिक थे। हम थोड़ा तो ताड़ गए, यहाँ ऐसे ही दाल नहीं गलेगी।
अल्मोड़ा एक नाम नहीं एक विचार है
अल्मोड़ा हम सबके लिए उत्तराखंड के लिए और कहना चाहिए नार्थ इंडिया के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा है। और हम बेहद खुश हैं कि आज हम अल्मोड़ा में हैं। तने हुए चेहरे थोड़ा मुलायम पड़े। मगर क्या अल्मोड़ा में अल्मोड़ा है। हम पूछने आए हैं जिसे हम अल्मोड़ा नाम से जानते हैं, क्या यह वही अल्मोड़ा है। पी.सी. जोशी का अल्मोड़ा, हुड़किया वकील वाला, मोहन उप्रेती वाला। सुमित्रानंदन पंत वाला। गौरीदत्त पांडेय वाला। खुशीराम वाला ? वही अल्मोड़ा है जहाँ गुरदत्त को, जोहरा को और बलराज साहनी को पंडित उदयशंकर ने साधा था। निश्चित रूप से इस आक्रामकता से प्रश्नवाचक सामान्य मुद्रा में आ गए। हमने बताने की बजाय पूछने की कोशिश की। हमें अफ़सोस है अल्मोड़ा में कविता शुरू होने में वक़्त लग गया। मगर क्या कोई कविता अल्मोड़े के बगैर पूरी हो सकती है? हम इसीलिए यहाँ आये हैं।
सच में यह कोई पेंतरेबाजी वाला मामला नहीं था। हमें वाकई जानना था कि वो अल्मोड़ा जिसे दुनिया जानती है, आज इतना चुप क्यों है। वीर बालकों के जोखिमों वाला अल्मोड़ा इतना नपा-तुला क्यों है ? इस शुरुआती बातचीत के बाद हम सब एक धरातल पर थे। हम यह मान रहे थे कि अल्मोड़े को चुप नहीं रहना चाहिए और समय आ गया है कि अल्मोड़ा बोले. सबको जगाने वाला अल्मोड़ा आज चुप नहीं रह सकता। सुभाष दा ने कविता कविता की घंटी बजायी और उधर अल्मोड़ा की आवाज सुलगने लगी। पहले धीमी—धीमी, फिर मध्यम और फिर गगन हिलोर कर।
नीरज पांगती से सुनाना शुरू किया। पांगती ने पाश की ‘सबसे खतरनाक’ सुनाई. महेंद्र ठकुराटी ने मीरा के छंद गाये। नीरज पंत ने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की ‘तुम सोचते होगे’ और बल्ली सिंह चीमा की ‘भूख से लड़ते हुए इंसान’ पेश की। मनीष पंत ने योगेश की कविता ‘नहीं दवाई अम्मा’। मोतीप्रसाद साहू ने अवध बिहारी श्रीवास्तव की ‘मंडी चले कबीर’, चंद्रा उप्रेती ने महाश्वेता देवी की ‘आ गयी तुम’, ललित योगी ने जयशंकर प्रसाद की ‘सब जीवन बीता जाता है’ सुनाई। राजेंद्र भट्ट ने गिर्दा की ‘ततुक नी लगा उदेख’ गाई तो हेम ने हीरा सिंह राणा की ‘लस्का कमर बाँधा’ गाई. दीपा गुप्ता ने हरिवंशराय बच्चन की ‘दिन जल्दी जल्दी ढलता है’, प्रतिभा ने देवल आशीष की ‘प्रिय तुम्हारी सुधि को मैंने’, नीरज भट्ट ने चंद्रकुंवर बर्त्वाल और दुष्यंत कुमार, जगमोहन रौतेला ने मदन मोहन डुकलान, भास्कर ने केदारनाथ सिंह की, सुभाष रावत ने कैश जौनपुरी की ‘मैं नमाज नहीं पढूंगा’ सुनाई। लक्ष्मी आश्रम कौसानी से आई मीनू ने अपने मधुर कंठ से ‘मैं तुमको विश्वास दूं, तुम मुझको विश्वास दो’ गाकर सभी के कंठ को समवेत कोरस में बदल दिया. खैर 28 जनों में से 25 ने कविताएं पढ़ीं और अल्मोड़ा में ‘क से कविता’ का शानदार आगाज हो गया। अलग-अलग तेवर और कलेवर की कविताएं सामने आयीं. यह खुद से या समूह के विवेक से ही हो गया कि इसमें भिन्नता और विविधता को जगह मिल पाई।
‘क से कविता’ के कुछ नियम बनाये गए हैं या कहें वह नियम नैसर्गिक रूप से विकसित होते गए हैं। सुभाष ने बताया कि अपनी नहीं, अपने दोस्त की नहीं, अपनी पसंद की बड़ी कविता यह पहली शर्त है। दूसरा, किसी भी बैठक में कोई अध्यक्ष नहीं, कोई विशेष नहीं। बराबर सभी सम्मानीय। तीसरा, एक व्यक्ति की एक ही कविता। चौथा, जगह ऐसी चुनें जो सबको भाये। जहाँ सब आना पसंद करें। उन्होंने बताया कि कविता को लिखकर या प्रिंट कराकर साथ लायें। कविता स्थल पर पहुंच कर कविता ढूंढना कविता की गंभीरता को कम करता है। एक नियम यह भी बताया गया कि समूह में यदि कोई बड़ा कवि भी है तो भी उसकी कविता कोई और नहीं पढ़ सकेगा। हाँ कवि की अनुपस्थिति में उसकी कविता लायी जा सकती है. मीडिया में छपने—छपाने की रस्म से बचा जाएगा। मीडिया को जब तक खुद इसे कवर करना जरूरी न लगे, तब तक कोई मीडिया के पास नहीं जायेगा। कविता को साहित्यिकों और उनके संस्कारों से बचायेंगे।
हल्द्वानी की पहली बैठक में एक विचित्र अनुभव हुआ था. कार्यक्रम में थोड़ा विलंब से आये तारा चन्द्र त्रिपाठी और अनिल भोज ने अचानक अपनी कविताएं पढ़ना शुरू कर दीं। बीच में किसी ने आगाह किया कि यहाँ अपनी कविता पढ़ने का नियम नहीं हैं, तो दोनों वरिष्ठजन रुष्ठ हो गए। तब किसी ने कहा, अरे चलेगा, एक आध तो चल सकती हैं, सीनियर आदमी हैं। तब सुभाष ने कड़ा स्टैंड लेते हुए कहा कि बिल्कुल नहीं चलेगी। नहीं लाये हैं तो कोई बात नहीं। सुन भी तो सकते हैं। बाकी लोग लाये हैं, उन्हें सुनेंगे। उस दिन हल्द्वानी में सुभाष दा का यह स्टैंड कईयों को थोड़ा अखरा तो सही, लेकिन आगे इसने हमारी बड़ी मदद की। हल्द्वानी में ही नहीं और जगह भी। लोगों को खासकर साहित्यिकों को अपनी कविता सुनाने की आदत हो गयी है। यह आदत डी.एन.ए. में ही शामिल हो गयी है। इस आदत ने कविता का बड़ा नुकसान किया है। ‘क से कविता’ आंदोलन के इन नियमों की वजह से कई बार बड़े कवियों की प्रतिभागिता से वंचित रहना पड़ता है। लेकिन वह यदि दूसरे की कविता सुनने नहीं आ सकते, ऐसा कलेजा नहीं रख सकते तो हम उनसे वंचित रहना ही पसंद करते हैं। इसका बड़ा लाभ यह हुआ है कि कविता का संकुचित लगने वाला दायरा अब काफी चौड़ा गलियारा बन गया है। शुरुआत में लोग अपनी पाठ्य पुस्तक के ज़माने वाली कविता भी ले आते हैं। फिर कॉलेज के दिनों की रोमानी कविता और शायरियां। कुछ लोग जिनका साहित्य की दुनिया से कम एक्सपोजर रहा होता है, भजन—कीर्तन टाइप भी ले आते हैं। लेकिन धीरे—धीरे कविता की तलाश शुरू हो जाती है. घर में मौजूद सामग्री कम लगने लगती है. समूह में आई एक भी अच्छी कविता लोगों को अपनी रुचि का परिष्कार करने के लिए प्रेरित करती है। फिर अच्छी से अच्छी कविता लाने की होड़ मच जाती है। इस परिष्करण के लिए किसी आलोचना, समालोचना, सौन्दर्यबोध या प्रवचन की जरूरत नहीं पड़ी। लोग बिना कहे खुद के विवेक से समझते जाएँ, यही सबसे बढ़िया समझ है।
‘क से कविता’ का पहला साल पूरा हुआ तो प्रदेश भर के कविता प्रेमी मार्च 2017 में दून विश्वविद्यालय, देहरादून में एकत्र हुए थे। एक बड़ा जलसा हुआ था। जैसे अपने शहर में हम अपने आप से आते हैं, वैसे ही वहां भी पहुंचे। ‘क से कविता’ आंदोलन को एक शक्ल देने में जुटी रही प्रतिभा कटियार और गीता गैरोला ने इस आयोजन को कविता के बड़े उत्सव के रूप में कल्पित किया, यहाँ से मिली ऊर्जा ने इसे नई—नई जगहों में फ़ैलने की प्रेरणा दी। देहरादून में अब तक लगातार 25 बैठकें, जबकि हल्द्वानी—रुद्रपुर में 18 बैठकें हो चुकी हैं।
कुछ जगहों पर लोगों ने इसके अपने फॉर्मेट भी बनाए हैं। जैसे किसी कविता को मंचित करके प्रस्तुत करना या किसी बार एक ही कवि की अनेकों कविताएं पढ़ना। या सबके द्वारा किसी महाकाव्य के अंश पढ़ना। कविता वीडियो देखना और बनाना। कविताओं को पोस्टर में लाना निश्चित रूप से कविता के प्रसार के लिए ऑनलाइन माध्यमों का काफी इस्तेमाल होता है। यूनिट स्तर, प्रदेश स्तर और राष्ट्रीय स्तर पर इसके अलग—अलग मंच हैं। जहाँ यह द्विगुणित—बहुगुणित होती रहती है। ‘क से कविता’ हैदराबाद, लखनऊ, दिल्ली, गुड़गाँव, पुणे, मस्कट, न्यूयॉर्क आदि तक भी पहुंची है। मगर, इसका जो रूप उत्तराखंड में देखने को मिला है वह नायाब है। यहाँ ये निरंतरता के साथ हो रही है और इसका फैलाव भी हो रहा है। कई बार साथी मजाक करते हैं, कुछ लोग हर प्रदेश में एक पार्टी की सरकार लाने में लगे हैं और कुछ लोग देश के कोने—कोने में कविता प्रदेश बनाने का काम कर रहे हैं। काश इस देश में एक दिन कविता का राज हो!
उत्तराखंड में हर जिले में कविता होने का यह मतलब कतई नहीं है; जिसे ‘क से कविता’ आयोजित करने वाले भी भली—भांति जानते हैं कि वह अचानक नए लोगों को खड़ा कर रही है। दरअसलए उत्तराखंड की जमीन में मौजूद साहित्यानुराग की उर्वर शक्ति ही इसकी बुनियाद बनाती है। लोग हैं इसलिए वे कविता को आमंत्रित करते हैं. लोग खुद कुछ कर रहे हैं इसलिए वे इस आंदोलन से जुड़ना चाहते हैं। लक्ष्मी आश्रम की एक छात्रा ने हमसे कहा, अरे आप लोग तो हमारा ही काम कर रहे हैं। हम लोग भी आजकल गीतों की यात्रा पर निकले हैं, गाँव—गाँव जा रहे हैं लेकिन यह भी सच है कि लोग बिखरे हुए हैं। लोग साहित्य के कर्मकांडी रस्मो—रिवाज से इतने आजिज आ चुके हैं कि उन्हें उसमें ताजगी की उम्मीद ही नहीं लग रही. समाज का सांस्कृतिक विघटन कला और कलाबोध के विघटन को भी जन्म देता है। मगर यह शक्ति भी कला में ही है जो टूटे—बिखरे को जोड़ देता है। अभी-अभी तक गिर्दा इसका जीवंत उदाहरण थे, जो तरह—तरह की सूत को कातने वाली तकली थे। इस तकली का हमारे बीच से अनुपस्थित हो जाना एक खालीपन दे गया।
उत्तराखंड में और जगहों की भांति अल्मोड़ा के प्रश्नवाचक साथियों को भी ‘क से कविता’ का विचार बहुत भा गया। एक साथी तो इतने भावुक हो गए कि बोलने लगे, हमेशा ही दूसरों की कविताओं को सुनता आया हूँ। कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन खुद भी दूसरों को सुनाऊंगा। हम अपनी न सही, अपनी पसंद की कविता दूसरों को सुना सकते हैं, उनसे साझा कर सकते हैं, यह विचार खुद में अदभुत है।
यह भावना हमें कई जगह दिखी है। ऐसे साथी मिल जाते हैं जिनकी डायरियों में बेहतरीन कविताओं का सत्व है. ऐसी डायरियां आखिर कब बोलेंगी। वो चयन और परख किसके काम आएगी। कब तक लिखने वाले पढ़ने वालों पर हावी रहेंगे। और लिखे हुए का परीक्षण कैसे होगा ? यह काम ही ‘क से कविता’ कर रही है। यह साहित्य के जनतांत्रिकरण का आन्दोलन है। यह पढ़ने—लिखने की संस्कृति का एक ताजा आंदोलन है।
कर्बला के मोड़ से उतरते उतरते हम सब अचानक ही और एक साथ हँस दिये, तो हो गया। एक ने कहा। दूसरे ने कहा तो कुछ करने लगो तो कुछ हो ही जाता है. तीसरे ने कहा कविता ने शोकाकुल आत्माओं को मुक्ति दे दी। अगले ने इस बात का प्रतिकार किया नहीं जनाब इस आंदोलन ने कवियों और लेखकों की जकड़न से कविता को मुक्ति दी। हां कविता सही हाथों में आनी शुरू हुई है। तरह—तरह के विचार, विश्लेषण मगर कविता को वाकई नयी ऑक्सीजन तो मिल ही गयी, यह एक तथ्य है। हम अल्मोड़ियों की तरह बोलने लगे थे। ‘लैन करणक मन ज ह्वोलो तो कसिक नी होल, ह्व़े जाल, अल्मोड़िया चाल दरअसल वो चाल है जो किसी भी परिस्थिति में पिटना और पराजित होना पसंद नहीं करती. जुगतकि चक्रव्यूह को भेद लें.
हमने ‘क से कविता की माँ ; मनीष गुप्ता ने प्रतिभा कटियार को यही नाम दिया था. को अल्मोड़ा की बैठक के कुछ फोटो ‘व्हाट्सएप’ की. फिर और कुछ जिलों के साथियों को लोग पूछते ही हैं कहाँ से आया कविता का यह मंच ? कुछ लोग पूछते हैं कौन है मुखिया ? साहित्य की गलियों में फिरने वाले कुछ जासूस खुलासा करते हैं कि मनीष गुप्ता का है, कि नए ‘क से कविता’ एक स्वतंत्र विचार है। सही मायनों में यह पाठकों का मंच है. मनीष का एक मंच है जो कि एक निजी यू ट्यूब चैनल है. ‘हिन्दी कविता’ नाम से वे अपनी तरह से हिंदी कविता की सेवा करते हैं. और कहना चाहिए उन्होंने वीडियो माध्यम से और नामी लोगों से कविताएं पढ़ा कर नई ऊर्जा का संचार किया है। मनीष, प्रतिभा, लोकेश और सुभाष दा की बातचीत में पल रहे विचार के शुरुआती साक्ष्य भी रहे. फिर इसमें गीता गैरोला, नूतन गैरोला, प्रभात उप्रेती आदि अनेक जनों के सुझाव जुड़े और आज यह इस शक्ल में है।
5 comments:
कुछ, कुछ समझ में आया, कुछ बहुत कुछ समझ में आया अल्मोड़िया चाल खेलते हैं तो समझ में भी आनी चाहिये। 'क'से कविता और 'क' से कवि बस की बात नहीं इसलिये मान लेने में बुराई नहीं है। बहुत कुछ है आलेख में बहुत कुछ समय के साथ जुड़ता जायेगा। चालें एक साथ, साथ साथ चलें वो भी ठीक नहीं। आखिर अल्मोड़े से शुरु होती अल्मोड़िया चाले कहीं जाकर एक दूसरे में उलझें नहीं इतना इन्तजाम तो होना ही चाहिये।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (28-04-2017) को "यह समुद्र नहीं, शारदा सागर है" (चर्चा अंक-2954) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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