- प्रतिभा कटियार
उत्तराखंड में इस बरस एनसीईआरटी की किताबें चलेंगी. इस खबर के साथ ही समूचे उत्तराखंड में दो तरह की हलचल पैदा हुई. एक जिसमें थोड़ी एन्ग्जाईटी यानि थोड़ा तनाव था, कैसी किताबें होंगी, क्या होगा, कैसे मिलेंगी बच्चों को, क्या वो हमारे बच्चों के लायक होंगी, क्या हमारे बच्चे उन किताबों के लायक होंगे आदि दूसरी हलचल थी बाजार की जो इस फैसले से होने वाले व्यावसायिक नुक्सान के चलते आहत था, लेकिन एक तीसरे तरह की हलचल भी देखने को मिली जिसमें ख़ुशी और संतोष शामिल था कि ‘अरे वाह हमारे बच्चों को भी अब अच्छी किताबें मिलेंगी, वही किताबें जो प्राइवेट स्कूलों के बच्चों के पास होती हैं.’ दरअसल यह तीसरी हलचल अक्सर पहली और दूसरी हलचल के नीचे अक्सर दब सी जाती है जबकि बदलाव की शुरुआत इसी हलचल से होनी है.
इस तीसरी हलचल में वो शिक्षक शामिल हैं जो सचमुच अपने बच्चों (स्कूल के बच्चों) को बेहतर नागरिक बनाना चाहते हैं, वो चाहते हैं कि किसी से कम न आंकें जाएँ उनके बच्चे, वो भी अवसरों का पूरा लाभ ले सकें क्योंकि उन्हें अपने बच्चों पर यकीन है कि वो योग्यता में किसी से कम नहीं हैं. अगर कोई फासला है उनमें और अन्य बच्चों में तो वो है हालात का, सुविधाओं का. जिसके लिए किसी भी सूरत से न वो बच्चे जिम्मेदार हैं न ही उनके माता पिता. इन्हीं हालात में, उन्हीं सीमित सुविधाओं (जिसमें भरपेट खाना न मिलना भी शामिल है) के बीच अगर कोई है जो इन बच्चों का हाथ थामकर उन्हें मुख्यधारा में चलने, दौड़ने और बेहतर जीवन जीने, सुंदर नागरिक बनाने में मदद कर सकता है वो है शिक्षक. ये वो शिक्षक हैं जो समझते हैं अपना दायित्व.
इन शिक्षकों को आप कभी यह शिकायत करते नहीं पायेंगे कि, ‘इन बच्चों को कोई सिखा नहीं सकता.’ ‘क्योंकि इनके माँ बाप घर पर ध्यान ही नहीं देते, हम कितना कर लेंगे’ ‘जब ये रोज स्कूल आते ही नहीं, तो इन्हें कौन पढ़ा लेगा’ ‘इनसे कुछ न हो पायेगा, कितना भी कर लो.’ इन नकारात्मक जुमलों को ये शिक्षक आसपास फटकने नहीं देते कि वो समझते हैं कि उनके सामने जो बच्चे हैं हो सकता है पूरी नींद लेकर ही न आये हों, हो सकता है उन्हें भरपेट खाना ही न मिला हो. वो जानते हैं कि स्कूल से जाने के बाद उन्हें परिवार के पोषण के लिए घर के कामों में मदद करनी होती है, खेतों में काम करना होता है, ठेला लगाना होता है, मजदूरी करनी होती है या कुछ और भी. ऐसे में अगर ये बच्चे स्कूल आ रहे हैं तो यह भी कोई कम महत्वपूर्ण बात नहीं है. ये शिक्षक बच्चों के अभिभावकों से बच्चों के घर पर न पढने की शिकायत नहीं करते बल्कि उन्हें आश्वासन देते हैं कि उनका बच्चा बाकी बच्चों से कम नहीं है, और जो परेशानी उसे सीखने में आ रही है उसे दूर करने की जिम्मेदारी खुद शिक्षक की है, अभिभावकों की नहीं.
ये शिक्षक लड़ जाते हैं उन लोगों से जो सरकारी स्कूल के बच्चों यानि ‘उनके बच्चों’ को जरा भी कमतर समझते हैं. ऐसे शिक्षकों का होना कोई यूटोपिया नहीं है, उनसे आप उत्तराखंड के तमाम स्कूलों में मिल सकते हैं. मेरी मुलाकात तो खूब होती रहती है, और मैं इन मुलाकातों को याद रखती हूँ. हाल ही में देहरादून जिले के डोईवाला ब्लॉक में ऐसे शिक्षकों के एक समूह से मिलने का अवसर हुआ. मौका था एनसीआरटीई की किताबों की समीक्षा का. जो दरअसल समीक्षा से ज्यादा उन किताबों से रू-ब-रू होने का अवसर था. शिक्षकों ने पूरे दो दिन लगाए और किताबों को ठीक से उल्टा-पुल्टा पढ़ा, समझा वह भी लर्निंग आउटकम के सापेक्ष कि आखिर ये किताबें शिक्षा के उन उद्देश्यों के कितने करीब हैं जो इनसे अपेक्षित हैं.
शिक्षक पूरे मनोयोग से किताबों में डूबे रहे, चर्चाएँ की, कुछ नोट्स बनाए, कुछ चीज़ें बिन्दुवार नोट कीं. अंत में जब अनुभवों की साझेदारी के दौरान कुछ शिक्षकों ने आशंका जाहिर की कि ‘किताबें तो बहुत अच्छी हैं लेकिन शायद उनके स्कूल के बच्चे अभी इन किताबों की योग्यता नहीं रखते’ तो तीसरी हलचल यानी सकारात्मक सोच वाले तमाम शिक्षकों ने लगभग मोर्चा ले लिया कि उनके बच्चों को कमतर न समझा जाय. उन्होंने स्पष्ट कहा, ‘एनसीआरटीई की किताबें हर लिहाज से बेहतर हैं और यह ख़ुशी की बात है कि उनके बच्चों को ये किताबें मिलने वाली हैं. हो सकता है पहले साल किताबों से रिश्ता बनाने में शिक्षकों और बच्चों दोनों को थोड़ी ज्यादा मशक्कत करनी पड़े लेकिन बहुत जल्द रिदम बन जायेगी.’ सवाल उठे कि ‘इन किताबों में राज्य के संदर्भ नहीं है, लोक से जुड़ाव नहीं है’ जिसके जवाब में शिक्षकों ने खुद कहा कि, ‘कोई भी पाठ्य पुस्तक एकमात्र जरिया नहीं होता पढ़ाने का. इसमें मौजूद किसी भी पाठ को स्थानीय संदर्भ से जोड़कर शिक्षक पढ़ा सकते हैं. किसी अन्य पठन सामग्री की मदद भी ले सकते हैं.’
एक सवाल उठा कि, ‘हमारे यहाँ के बच्चे तो अभी ठीक से हिंदी नहीं पढ़ पाते ऐसे में उन्हें अंग्रेजी कैसे पढ़ाई जायेगी’ जिसका जवाब भी वहां मौजूद शिक्षकों ने ही यह कहकर दिया, ‘अगर हम शिक्षक ठीक से प्रयास करेंगे अपने बच्चों पर भरोसा करेंगे तो वो हिंदी और अंग्रेजी सब सीख जायेंगे.’ बातचीत का अंत हुआ इस वाक्य के साथ ‘हमारे बच्चों को (सरकारी स्कूलों के) किसी से कम मत समझिये.’
यह सारी बातचीत शिक्षकों के बीच की है जिसमें पहली हलचल यानी नकारात्मक भाव लगभग अलग-थलग पड़ चुका था. यह संवाद इतना सुंदर और इतना आशावान था कि इसके आगे सारी नकारात्मकताएँ औंधे मुंह गिरी पड़ी थीं. जिन शिक्षकों को अपने बच्चों पर इतना भरोसा है उनके रास्ते में भला कौन सी अडचन आ सकती है बस कि इस तीसरी हलचल यानी सकारात्मक प्रयासों की, सकारात्मक सोच की हलचल को और तेज़ करना है, दूर तक इसका विस्तार करना है.
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