Friday, April 8, 2016

जा रे, मैं नहीं देती अटेंशन...



मौसमी बुखार की ज़द में भी कितना कुछ होता है. कितनी स्म्रतियां होती हैं इसकी हथेलियों में, कितने महकते लम्हे और कैसा गुनगुना सा एहसास. पैरों में लगे पहियों को ब्रेक लगाकर एक शाम ढलते हुए सूरज और अपने होने के मगरूर एहसास के साथ. सुख है. हरारत का सुख है. अपनी मगरूरियत का सुख है.

हथेलियों में कोई लकीरें नहीं, उनके बनने और बिगड़ने के खेल से उकताकर एक रोज खेल की बिसात ही पलट दी थी बिलकुल वैसे ही जैसे छुटपन में लूडो खेलते हुए जब हारने लगती थी तो रोते हुए सारी गोटियाँ मिला दिया करती थी. खेल ही तो है जीवन भी, इसके पीछे दौड़ो तो भाव खाता है, मुंह मोड़कर बैठो जरा तो पीछे से धर दबोचता है कम्बखत. सबको अटेंशन चाहिए. जिंदगी को भी, मौत को भी, हाथ की उन लकीरों को भी जिनमे कोई नाम उभरते उभरते छूट गया था, बचपन के उस खेल को भी जिसमें हार न सह पाने वाले उस मासूम को गोटियाँ उलटना सरल लगता था. अटेंशन सबको चाहिए.

'जा रे, मैं नहीं देती अटेंशन...' जिस रोज ये बोला था न उसको ठीक उसी रोज वो  मुस्कुराते हुए दरवाजे पे आ खडा हुआ था. लेकिन अब मैं जरा मसरूफ थी. बड़े काम जमा कर लिए थे मैंने, रोने के सिवा, बिसूरने के सिवा. वो लाख मनाये कि चल पड़ो न दो कदम मेरे साथ, और मैं कहूं ' तू भाव खा ले रे पहले'.

'दरअसल, मुझे भी सांस लेने वालों की नहीं जीने वालों की तलाश होती है. अब तुम सांस नहीं ले रही, मुझसे भाग नहीं रही, मुझसे चिपक भी नहीं रही और अब तुम मेरी पक्की दोस्त हो.' वो मायूस सी आवाज में कहता है. मैं जीवन को माफ़ कर देती हूँ. गलतियाँ किससे नहीं होतीं. कौन है जो गलतियों से खाली है, हम दोनों अब पक्के दोस्त हैं.

वो मेरी हथेलियों को फिर से टटोलता है, उसमे बीते हुए कल की एक भी लकीर नहीं, आगत की कोई बुनावट भी नहीं...बस पड़ोस के घर से आती रातरानी की महक है...पास में रखे कॉफ़ी मग से उठती कॉफ़ी की खुशबू भी. जिन्दगी के पेशानी पे हैरत की लकीरें हैं और मेरे चेहरे पे मुस्कुराहटें, दूर देश में कोई दोस्त रूठा बैठा है...ये खुशबू उस तक भेजना चाहती हूँ, ये हरारत भी, ये महकती हुई रात भी...न कोई विगत, न आगत, बस इस लम्हे का मुकम्मल सुख तेरे लिए दोस्त...

5 comments:

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " दन्त क्रांति - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

Onkar said...

आपका लेख कविता सा महसूस होता है

रश्मि शर्मा said...

बहुत रोचक

प्रतिभा सक्सेना said...

बँधे रास्ते से हटा ऐसी ही भटकन,मन को एकरस यांत्रिकता से छुटकारा दिला जाती है - थोड़ी देर को ही सही .

जसवंत लोधी said...

आपका लेख भावुक है ।
Seetamni .blogspot.in