घर सुनते हीे गिरने लगती हैं दीवारें
ढहने लगती हैं छतें
आने लगती हैं आवाजें खिड़कियों के जोर से गिरने की
उतरने लगती हैं कानों में मां की सिसकियां
पिता की आवाजें कि बाहर चलो, जल्दी...
घर सुनते ही पानी का वेग नजर आता है,
उसमें डूबता हमारा घर, रसोई, बर्तन, बस्ते, खिलौने सब कुछ
घर सुनते ही याद आती है गाय जो बह गई पानी में
वो अनाज जिसके लिए अब हर रोज भटकते हैं
लगते हैं लंबी लाइनों में
वो बिस्तर जिसमें दुबककर
गुनगुनी नींद में डूबकर देखते थे न जाने कितने सपने
घर सुनते ही याद आती है
ईजा की हंसी जो बह गयी पानी के संग
घर सुनते ही याद आती हैं तमाम चीखो-पुकार
तमाम मदद के वायदे
घोषित मुआवजे
मदद के नाम पर सीना चौड़ा करके घूमने वालों की
इश्तिहार सी छपी तस्वीरें,
घर सुनते ही सब कुछ नजर आता है
सिवाय एक छत और चार दीवारों के....
(उत्तराखंड आपदा के एक वर्ष बाद )
ईजा की हंसी जो बह गयी पानी के संग
घर सुनते ही याद आती हैं तमाम चीखो-पुकार
तमाम मदद के वायदे
घोषित मुआवजे
मदद के नाम पर सीना चौड़ा करके घूमने वालों की
इश्तिहार सी छपी तस्वीरें,
घर सुनते ही सब कुछ नजर आता है
सिवाय एक छत और चार दीवारों के....
(उत्तराखंड आपदा के एक वर्ष बाद )
9 comments:
आपकी लिखी रचना शनिवार 05 जुलाई 2014 को लिंक की जाएगी...............
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
bahut sunder
अर्थपूर्ण... सुन्दर....
मार्मिक रचना
बहुत सुंदर!सच में बहुत अच्छी अभिव्यक्ति!
http://www.parikalpnaa.com/2014/07/blog-post_5.html
बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना. सचमुच आँखों के सामने वो त्रासदी फिर से जीवित हो उठी
sahi farmaya aapne .. ghar bache kahaan .. bachaa to sirf sannataa aur tabaahi.
कितना कुछ बह गया जो आने वाला नहीं है ...
मार्मिक रचना ...
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