Tuesday, June 18, 2013

वो लोगों से दुःख मांगता था...


वो कोई दरवेश था शायद. उसके कंधे पर कोई पोटली नहीं थी. लेकिन कुछ था तो पोटलीनुमा. अदश्य. वो कहता था कि उसके पास दुनिया के हर सवाल का जवाब है. हर समस्या का समाधान है. पलक झपकते ही वो बारिश ला सकता था, पलक झपकते ही आपको फूलों से भरे बागीचे में ले जाकर छोड़ सकता था. एक ही पल में आप खुद को राजा समझ सकते थे और अगले ही पल तितली की तरह उड़ते या फूल की तरह खिलते महसूस कर सकते थे.

वो लोगों से दुःख मांगता था. बड़ी सी हथेली थी उसकी. बहुत बड़ी सी. उसकी हथेली पर जाते ही बड़े से बड़ा दुःख नन्हा सा हो जाता था. वो दरवेश धरती की तरह गोल-गोल घूमता था. उसके साथ पूरी सष्टि घूमती थी. एक रोज बहुत सारे बच्चों ने उसे घेर लिया, हमें जलेबियां खानी हैं...पूरे कमरे में जलेबियां ही जलेबियां. बच्चे खाते जा रहे थे...खाते जा रहे थे...खाते ही जा रहे थे....न जाने कबसे भूखी पड़ी अंतड़ियों और सपनों से खाली आंखों में उस रोज तृप्ति की बारिश हुई. चारों ओर जलेबियों की खुशबू फैली हुई थी.

एक रोज दरवेश ने बच्चों से पूछा, क्या तुम चाहते हो कि ये बादल तुम्हारे पैरों के नीचे बिछ जाएं....? बच्चे चुप...ऐसा भी कहीं होता है क्या? दरवेश ने पूछा कि क्या तुम चाहते हो कि इस तेज गर्मी वाले मौसम में बारिश हो जाए...बच्चों की आंखों में चमक तो आ गई पर वो खामोश ही रहे....ऐसा भी कहीं होता है क्या?

फिर धीरे से एक गुमसुम सी, खामोश सी सिलबिल ने हाथ उठाया...हां...बारिश....
क्या?
दरवेश ने पूछा.
बारिश हो जाए सिलबिल ने पलकें झपकाते हुए कहा...धीरे धीरे और बच्चों के भी हाथ उठे और दरवेश ने गोल-गोल घूमना शुरू किया...बच्चों ने भी घूमना शुरू किया. गोल...गोल...गोल....गोल....और कुछ ही देर में बादल के कुछ टुकड़े कमरे के भीतर झांकने को बेकल हो उठे.

कुछ ही देर में हल्की फुहार गिरने लगी. किसी की नाक पर एक बूंद गिरी, किसी के सर पर..कोई बोला...देखो बारिश आ गई....दूसरा बोला...कहां? तीसरी बोली...यहां मेरी नाक पर...कोई बोला मेरे सर पर और अचानक पूरा कमरा बारिश की बूंदों की आवाज में डूब गया. सारे बच्चे तर-ब-तर.

कमरे के बाहर भी बारिश थी, कमरे के भीतर भी. कमरा...शरीर का भी, ईंट पत्थर का भी.

दरवेश की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी. लोग अपनी-अपनी समस्याएं लेकर आते और दरवेश आंखें बंदकर गोल-गोल घूमते और थोड़ी ही देर में समस्या गायब...लोग खुशी-खुशी वापस लौट जाते. रागिनी के पास कोई दुःख नहीं था, कोई परेशानी नहीं या वो किसी से कुछ कहना ही नहीं चाहती थी.

दरवेश ने उसके करीब जाकर पूछा, तुम्हें कुछ नहीं चाहिए...वो चुप रही.

दरवेश ने उसकी हथेलियों को अपने हाथों में लिया...उसके सर पर हाथ पर फिरा दिया. दोनों चुप बैठे रहे...रागिनी ने कहा, आप सचमुच कुछ भी कर सकते हो?

दरवेश चुप रहा.
रागिनी ने फिर कहा, आप मेरी मां को वापस ला सकते हो? वो भगवान के पास चली गई है. कहते हुए रागिनी ने अपनी आंख का एक आंसू दरवेश की हथेली पर रख दिया.

आप सब बच्चों से झूठ क्यों बोलते हैं?
दरवेश चुप.

मैं जानती हूं उस रोज कोई बारिश नहीं हुई थी. कोई बादल बच्चों की बात नहीं मानता. कोई जलेबियां नहीं खाई थीं हमने...
ऐसा क्यों करते हो आप....बोलो...

दरवेश बोला, बेटा, जादू मेरे पास नहीं तुम सबके पास है. तुम सब हो दरवेश. मैं तो तुम सबके बीच आकर अपना दुख, अपनी परेशानी कम करता हूं. हां, एक बात है कि मैं झूठ नहीं बोलता. जिन बच्चों ने कहा बारिश हुई उन्होंने उसे सचमुच महसूस किया. जिंदगी में किसी भी बात का होना न होना हमारे चाहने पर निर्भर करता है. हम क्या चाहते हैं, कितना चाहते हैं, किस तरह चाहते हैं. अपने उस चाहने के प्रति कितनी जिद है हमारे भीतर...

मैं अपनी मां को वापस लाना चाहती हूं....रागिनी फूट-फूटकर रोने लगी....तभी उसने देखा कि दरवेश उसकी मां में बदल गया. वो दरवेश उसकी मां ही थी. जो भेष बदलकर रागिनी से मिलने आई थी. रागिनी देर तक मां से लिपटकर रोती रही. मां ने उसे खूब प्यार किया. दोनों ने जलेबियां खाईं. और देर तक बारिश में भीगती रहीं.

अगले रोज जब रागिनी की आंख खुली तो न बादल थे, बारिश, न जलेबियां, न बच्चे न दरवेश न मां....हां, लेकिन रागिनी की आंख में आंसू भी नहीं था....

12 comments:

shashi purwar said...

बेहद सुन्दर प्रस्तुति ....!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल बुधवार (19 -06-2013) के तड़प जिंदगी की .....! चर्चा मंच अंक-1280 पर भी होगी!
सादर...!
शशि पुरवार

प्रवीण पाण्डेय said...

कोई मेरी पीड़ा अपनी कह कर आता,
कोई मेरे मन को थोड़ा सह कर आता,
आता कोई बस आने को कुछ पल संग में,
वह पहाड़ से एक नदी सा बह कर आता।

Kailash Sharma said...

बहुत सारगर्भित प्रस्तुति...

Swapnrang said...

कमरे के बाहर भी बारिश थी, कमरे के भीतर भी. कमरा...शरीर का भी, ईंट पत्थर का भी.

प्रतिभा सक्सेना said...

चाह और अनुभव का बड़ा गहरा रिश्ता है !

प्रतिभा सक्सेना said...

चाह और अनुभव का बड़ा गहरा रिश्ता है !

प्रतिभा सक्सेना said...

चाह और अनुभव का बड़ा गहरा रिश्ता है !

Unknown said...

सचमुच चाह और अनुभव का बहुत गहरा रिश्ता है । हमारी सोच जैसी होती है वैसा ही एहसास होता है । बधाई ।

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

ये जो सपना सुखप्रेम का
सपना क्‍यों है,सच क्‍यों नहीं........गहरी संवेदन प्रस्‍तुति।

बी एस पाबला said...

सारगर्भित अभिव्यक्ति

Anonymous said...

really touching, felt great reading the article :)

Rahul Paliwal said...

वाह! बहुत प्रेरक!बहुत दिनों बाद कुछ अच्छा पढ़ा !