Monday, February 20, 2012

सांसों का भार कितना अधिक होता है...


हमारे भीतर एक दुनिया होती है. जहां रास्ते भी होते हैं और मंजिलें भी. जहां मौसम भी होते हैं और आरजुएं भी. जहां, नदियां भी होती हैं और पठार भी...वो सब कुछ जो हमें बाहर दिखता है, वो दरअसल हमारे भीतर ही कहीं होता है. हरियाली का कोई एक टुकड़ा हमें हाथ पकड़कर जंगल में ले जाता है और हम उसमें गुम हो जाते हैं. फिर कोई आवाज का सूरज उगता है और हमें जंगल से बाहर निकाल लाता है. 

वो ऐसी ही एक शाम थी. न शब्द बचे थे, न मौन...उतरती शाम के साथ ढेर सारी उदासी भी उतर रही थी. अकेले होने के लिए किसी जंगल जाने में जाने की कोई जरूरत नहीं होती. हम इंसानों से, रिश्ते नातों से भरे जंगल में भी अकेले हो सकते हैं. कभी भी, कहीं भी...उस रोज कोई आवाज नहीं पहनी थी कानों में. आंखों में किसी के नाम का कोई काजल नहीं, पैरों में सितारों की पाजेब नहीं...ढेर सारी जगह घेरता खालीपन. तेज रोशनियां उगलते खंभे और दिन भर की उबासियों से ऊबे लोग सड़कों पर गाडिय़ां दौड़ाकर उस ऊब से पीछा छुड़ा रहे थे. जाहिर है कि अगर सड़क पर निकल ही पड़े हैं तो कहीं तो पहुंच ही जायेंगे. हालांकि मेरे साथ अक्सर ऐसा नहीं होता. कितना भी चलूं घूमफिर कर उसी बिंदु पर वापस आ जाती हूं जहां से चली थी. यानी अपने ही पास, अपने ही भीतर. शायद अभी उन रास्तों की तलाश पूरी नहीं हुई जिन पर चलकर कहीं पहुंचा जाता है, शायद मंजिल जैसी कोई चीज होती ही नहीं...कि बस सफर ही होता है सब कुछ और उस सफर के कुछ ठहराव होते हैं. जहां रुककर हम पानी पीते हैं, चाय पीते हैं, कमर सीधी करते हैं और फिर निकल पड़ते हैं. 

एक रोज एक दोस्त से मजाक ही मजाक में शमशान में मुलाकात तय हुई थी. जो अचानक मुल्तवी कर दी गई थी, किन्हीं कारणों से. मैं तबसे कफन पहने घूम रही थी. सो पहली फुरसत और अकेलापन पाते ही सोचा गोली मारो दोस्त को अकेले ही चलते हैं. यूं भी हम हर सफर में अकेले ही तो होते हैं. कुछ हमसफर मिलते हैं ऐसा आभास सा होता है लेकिन उनके बिछड़ते ही हम और अकेले हो जाते हैं. यानी शाश्वत है अकेला होना ही. तो क्यों न अकेले ही चलूं...यूं भी अपने इस खूबसूरत ठीहे पर मैं हमेशा से अकेले ही जाती रही हूं. कंधों पर उतरती शाम अब रात में तब्दील हो चुकी थी...और रोशनी के खंभों से पार एक नदी बह रही थी. 

भूगोल के नक्शे में इस नदी का नाम गोमती है लेकिन मुझे सारी नदियां जिंदगी की वो नदी लगती हैं जिसके उस पार जाने का अर्थ जीवन से मुक्त होना है...शायद इसका एक कारण ये हो कि मुझे तैरना नहीं आता. उस्ताद तैराक मेरे इस भ्रम को तोडऩे को काफी हैं फिर भी मैं तो अपनी ही दुनिया की बात करूंगी ना...तो जिंदगी की नदी के इसी पार अंधेरा था. मुर्दों को जलाने के लिए लकड़ी की अट्टालिकाएं थी. कहीं किसी के स्मृतिचिन्ह किसी पत्थर के रूप में दर्ज थे. और थोड़ी थोड़ी दूरी पर आग थी. जीवन भर की थकी हुई देहों को विश्राम देती आग. कहीं आग बस बुझने को थी, कहीं धू-धूकर जल रही थी. कहीं मंथर गति से जल रही थी मानो अपनी ही गति पर मुग्ध हो. बनारस के मणिकर्णिका घाट की तरह यहां मृत्यु का कोई उत्सव नहीं मनाया जा रहा था लेकिन मौन भी उत्सव का ही एक रंग है. सबसे अजीब और प्यारी बात ये थी कि ढेर सारी जलती हुई उन चिताओं में से किसी के पास कोई नहीं था. आए तो बहुत सारे लोग होंगे. न जाने कितने रोए होंगे. न जाने कितने कब तक रोयेंगे. लेकिन यहां कोई नहीं था. 

कितना दिव्य सत्य है यह कि सारा मोह हमारी आत्मा से था देह से नहीं. देह तो वही मिट्टी का धेला ही थी हमेशा से. सांस का साथ छूटते ही शरीर अपवित्र हो जाता है. उसे जल्द से जल्द ले जाये जाने के उपक्रम होते हैं और उनसे जुड़ी स्मृतियों के उत्सव की तैयारी होती है. मैंने पहली बार यह दिव्य सच तब जाना जब मेरा एक करीबी नौजवान लड़का जो मेरे प्रति बेहद प्रेम से भरा था और भाभी कहता था, जो कभी भी किसी भी वक्त मुझे परेशान करना अपना हक समझता था और जिसने मुझे एक छोटे भाई से ज्यादा प्यार किया वो चला गया. सुबह घर से निकली तो उसने बालकनी से बाय किया और वापस लौटने पर मुझे उसकी मां को बहन को भाई को संभालना था. रोने की मोहलत नहीं थी. उसके शरीर को उसके ही उस कमरे में क्यों नहीं लाया गया, जहां उसका गिटार रखा था. वो कुर्सी जिस पर वो बैठा करता था, वो खिड़की जहां उसने पौधे बोये थे और वो कार्ड जो उसने दीवार पर सजाये थे...उसकी देह को उस रसोई में भी नहीं लाया गया जहां वो मां से झगड़ा करता था कि आज गोभी के पकौड़े ही खाऊंगा...न जाने कितने सालों तक उसका मुस्कुराता चेहरा नजर आता रहा, उसकी आवाज कानों में पड़ती रही, भाभी अभी चाय पीनी है आपके हाथ की. ऐसा लाड़ उसका कि कोई भी काम छोड़कर मैं उठ जाती थी.

फिर मेरी मासी गयीं. उनके ही उस घर में जिसकी बुनियाद से लेकर घर की दीवारों, छत को उन्होंने अपने सामने बनवाया. घर के पर्दे, फर्नीचर पेंटिंग्स सब चुन-चुन कर लाईं, एक सुंदर बगिया बनाई...उसी घर में उन्हें नहीं लाया गया. बाहर ही रखा गया. मेरे हाथ जाने कैसे संकोच में रुके रहे कि उनकी ही बगिया का एक फूल तोड़कर उन पर नहीं चढ़ा पाई. स्मृतियों में वे अब भी मुस्कुराती हैं क्योंकि मैंने किसी का भी अंतिम समय का चेहरा नहीं देखा. जानबूझकर. जीवन क्या है...शरीर? 
नहीं, सांस. 
क्योंकि सांस जब तक रहती है हमारा शरीर पानी में डूब जाता है और सांस के न रहते ही ये उतराने लगता है. अपनी सांस को छूकर देखती हूं. सांसों का भार कितना अधिक होता है. रात घिरती ही जा रही थी. घुप्प अंधेरे में चिताओं की रोशनी भर थी. चिताएं भी लगभग जल चुकने हो आई थीं. अंधेरे में चीजें ज्यादा साफ न$जर आती हैं...हम क्या चाहते हैं, क्यों चाहते हैं...जीवन हमें कैसा चाहिए ये सारे सवाल उन जलती हुई चिताओं में आहुति के तौर पर डालने को जी चाहा. जी चाहा कुछ लकडिय़ां उठाकर किसी चिता की लौ पकड़कर उसमें प्रवेश कर जाऊं अपने सारे सवालों के साथ और ढेर सारे खालीपन के साथ...पर आह जीवन...

कहीं से आवाज आई...गुडिय़ा...तुम यहां क्या कर रही हो. ये मेरे पापा की आवाज थी. सच कहूं उस वक्त वो आवाज अच्छी नहीं लगी. मैं हमेशा की तरह बात मानने वाली अच्छी बच्ची की तरह सर झुकाये उनके साथ घर की ओर लौट पड़ी...पापा से विनती की मां से कुछ मत कहना और पापा ने शर्त लगा दी कि तुम फिर कभी ऐसा मत करना...हम दोनों जानते हैं कि हम दोनों ही ये शर्त तोड़ेंगे जरूर. कब पता नहीं...रात को नींद की गोलियां खाते हुई शिम्र्बोस्का से जलन हुई, शहरयार जी से भी सब सो गये गहरी नींद और हम एक कतरा नींद को तरस रहे हैं...


9 comments:

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

बहुत सुंदर

प्रवीण पाण्डेय said...

मन बस डूबता चला गया, जब साँस लेने की सुध न हो तो गहराई की कौन पूछे..

अनुपमा पाठक said...

'मौन भी उत्सव का ही एक रंग है.'
आह! डूब कर लिखी गयी... शब्द शब्द में रिसती जीवन की सच्चाई...
नींद... अकेलापन... मौत... जीवन... सभी इकाइयों को जोड़ती भाव सरिता!

रेखा said...

बेहतरीन अभिव्यक्ति ...

***Punam*** said...

प्रतिभा....
कितनी आसानी से कह जाती हैं आप...!
एक एक शब्द पहचाना सा,अपना सा लगता है...!!
बिना शमशान गए ही मैंने जलते देखा है अपने पापा की चिता को...I
बंद और खुली आँखों से अभी भी एक एक सांस के लिए बेचैन उनका चेहरा भूल नहीं पायी हूँ...I
मौत से सामना इतने नज़दीक से होगा ,मैंने कभी सोचा भी न था...!
कई बार सोचा कि कुछ लिखूं उनकी संस्मृति में....लेकिन उनके साथ बिताये अंतिम पंद्रह दिन सिनेमा की रील से दौड़ने लगते हैं इन खुली आँखों में...!
और फिर एक अजीब सा नि:शब्द मौन आस-पास ठहरता सा जाता है..!
अपने शब्दों को इतना कमज़ोर पड़ते मैंने कभी नहीं पाया....!
जीवन की सार्थकता और निरर्थकता...शायद कोई भी इतने अच्छे से नहीं समझा सकता है....!!

आनंद said...

अपनी सांस को छूकर देखती हूं. सांसों का भार कितना अधिक होता है. ...

..

सब सो गये गहरी नींद और हम एक कतरा नींद को तरस रहे हैं...

पता है प्रतिभा जी मैं ना... अपने अम्मा और बाबू जी की इकलौती संतान था ..ना अम्मा के अंतिम समय पर था न बाबूजी के अंतिम समय पर मैं वहाँ मौजूद था मैं दिल्ली में था वो गांव में जब तक पहुंचूं.....क्या रहा होगा उनकी आँखों में ... जब भी सोंच लेता हूँ बहुत गहरी बेचैनी हो जाती है !!

नीरज गोस्वामी said...

गहरे और सुन्दर शब्द...इस भावपूर्ण रचना के लिए बधाई स्वीकारें

नीरज

बाबुषा said...

गुडिय़ा..

Pallavi saxena said...

प्रतिभा जी गजब का लिखा है आपने मन बस पोस्ट के साथ-साथ ही जैसे डूबता चला जाता है। किसी ओर दुनिया में...