- प्रतिभा कटियार
आखिरी बार उनसे कब बात हुई थी याद नहीं लेकिन ज्ञानपीठ मिलने के बाद की बात है. उन्हें बात करने में काफी दिक्कत हो रही थी फिर भी उन्होंने एक शेर सुनाया,
उनके कभी भी आये फोन पर कही गयी लाइनें न जाने कहाँ-कहाँ नोट हैं. एक तो कैलेण्डर पर ही दर्ज है. उन्हें नयी पीढ़ी की भाषा से शिकायत थी. ये भी कि ये लोग पढ़ते नहीं हैं. बस जल्दी में रहते हैं...रेखा की तारीफ में उन्होंने कहा था की उमराव जान के गाने लिखते वक़्त रेखा का तसव्वुर होता था. वो बहुत ही खूबसूरत अदाकारा हैं.
आज उनकी हर बात याद आ रही है और ये गम बढ़ता ही जाता है कि हम उनकी शिकायत अब कभी दूर नहीं कर पाएंगे...उनके अलीगढ आने के दावतनामे अब तक संभालकर रखे हुए हैं...शहरयार साहब, इतना शिकवा भी किसी से क्या करना कि बिन कहे कुछ भी चले जाना..आप तक मेरी आवाज पहुंचे न पहुंचे मेरी हिचकियाँ ज़रूर पहुंचेंगे...आपके लिखे में ढूँढा करेंगे आपको....
(प्रभात खबर के सम्पादकीय पेज पर 15 फ़रवरी को प्रकाशित )
वो झरते कोहरे की एक शाम थी. चाय की प्यालियों में कोहरे की खुशबू भी घुल जाती थी. शहरयार साब एक मुशायरे में आये थे. उनका बार-बार फोन आ रहा था और मै कहीं और व्यस्त थी. आखिर निकल ही पड़ी. मुद्दतों से होती बातें और ये मुलाकात. वो मंच पे थे. उन्हें ही सुनने गयी थी मै तो. लेकिन मुशायरे वाले काफी तेज़ दिमाग होते हैं. असली हीरा आखिरी के लिए बचाकर रखते हैं. किसी की अनगढ़ शायरी से ऊबती मेरी सूरत उन्होंने ताड़ ली. वो मंच से उतारकर आये और मेरे पास वाली खाली पड़ी कुर्सी पर बैठ गए. कुछ देर खुसुर-फुसुर सी आवाज में बात करने के बाद उन्होंने कहा कि 'तुम जाओ अब, मुलाकात हो गयी.' मैंने कहा 'मैं आपको सुने बिना चली जाऊं.?' तो बोले 'मैं तुम्हें अलग से सुना दूंगा. मेरा इंतजार करोगी तो देर हो जाएगी. ये लोग हमें आखीर में बुलाएँगे.' न चाहते हुए भी मै वापस आ गयी...
उनकी न जाने कितनी गजलों का पहला ड्राफ्ट मेरे कानो में दर्ज है...सुबह-सुबह कानों में फोन लगाये दौड़ती भागती मै उन्हें सुनती रहती. आज सोचती हूँ कि हम कितने स्वार्थी लोग हैं..मैंने उन्हें जब भी फ़ोन किया... किसी न किसी काम से किया. चाहे वो अहमद फराज के जाने पर या रेखा के बारे में कुछ लिखते हुए...या जिन्दगी से मायूस होने पर जिन्दगी पर कुछ शेर मांगते हुए. उन्हें फ़ोन करते ही ' ये क्या जगह है दोस्तों' की धुन सुनाई देती. ऐसा लगता कि दिन बन गया. आज ये सोचकर आँख नम है कि मै उनकी एक शिकायत कभी दूर नहीं कर पाई कि कभी यूँ भी फ़ोन कर लिया करो खैरियत ही ले लिया करो.
आखिरी बार उनसे कब बात हुई थी याद नहीं लेकिन ज्ञानपीठ मिलने के बाद की बात है. उन्हें बात करने में काफी दिक्कत हो रही थी फिर भी उन्होंने एक शेर सुनाया,
'किया इरादा बारहा तुझे भुलाने का
मिला न उज़्र ही कोई मगर ठिकाने का'
....और आखिर में कहा 'तुम्हारे लिए.' मैं झेंप गयी. बुजुर्गों के प्रेम की तासीर इतनी गाढ़ी होती है की वो हममे जज्ब हो जाती है. जाने क्यों मै उन्हें 'उमराव जान', 'गमन', 'आहिस्ता-आहिस्ता' जैसी फिल्मों के खूबसूरत गानों और उनकी ढेर सारी हर दिल अज़ीज़ शायरी के ही रु-ब-रु नहीं देख पाती. उनकी नेकदिली, उनकी खुशमिजाजी, थोड़ी सी तुनक, और जिन्दगी से बेपनाह करने वाले शख्श के रूप में उनकी शायरी के रंग मिलाते ही देख पाती हूँ. उन्हें जब अवार्ड मिलने की घोषणा हुई तो वो हिंदुस्तान में नहीं थी. मै फोन करके बधाई देने चाहती थी लेकिन फोन न लगे...इसी उलझन में थी की उनका फोन आ गया. कुछ खबर मिली है अभी-अभी की ज्ञानपीठ वाले सम्मानित करना चाहते हैं...वो बता रहे थे या ये पूछ रहे थे कि मुझे पता है कि नहीं पर उनकी आवाज में ख़ुशी थी. मैंने बहुत खुश होकर उन्हें मुबारकबाद दी..जिसे उन्होंने शाइसतगी से रख लिया. उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान आकर बात करता हूँ. और यकीनन अलीगढ पहुंचते ही उन्होंने बात की. एक गजल सुनाई, वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे
जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे
हम जीते जी मसरूफ़ रहे
कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया.
काम इश्क़ के आड़े आता रहा
और इश्क़ से काम उलझता रहा
फिर आखिऱ तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया..
फैज़ की ग़ज़ल. बोले, 'तुमने इसे सुना तो खूब होगा पर आज मेरा मन है सुनाने हुआ.' सचमुच उस दिन उनसे सुनने के बाद गजल और भी खूबसूरत हो गयी थी. मैंने कहा 'गजल तो पहले ही खूबसूरत थी आपकी आवाज में ढलकर और सुन्दर हो गयी...' ठठाकर हँसे और एक किस्सा सुनाया. 'फैज़ बहुत अच्छे शायर थे लेकिन वो पढ़ते बहुत बुरा थे. उनसे किसी ने पुछा कि जितना अच्छा आप लिखते हैं उतना ही अच्छा पढ़ते क्यों नहीं. तो फैज़ ने जवाब दिया, अरे साहब...लिखें भी हमीं अच्छा और पढ़ें भी हमीं अच्छा ये क्या बात हुई...' हम दोनों देर तक इस बात पर हँसते रहे.
मिला न उज़्र ही कोई मगर ठिकाने का'
....और आखिर में कहा 'तुम्हारे लिए.' मैं झेंप गयी. बुजुर्गों के प्रेम की तासीर इतनी गाढ़ी होती है की वो हममे जज्ब हो जाती है. जाने क्यों मै उन्हें 'उमराव जान', 'गमन', 'आहिस्ता-आहिस्ता' जैसी फिल्मों के खूबसूरत गानों और उनकी ढेर सारी हर दिल अज़ीज़ शायरी के ही रु-ब-रु नहीं देख पाती. उनकी नेकदिली, उनकी खुशमिजाजी, थोड़ी सी तुनक, और जिन्दगी से बेपनाह करने वाले शख्श के रूप में उनकी शायरी के रंग मिलाते ही देख पाती हूँ. उन्हें जब अवार्ड मिलने की घोषणा हुई तो वो हिंदुस्तान में नहीं थी. मै फोन करके बधाई देने चाहती थी लेकिन फोन न लगे...इसी उलझन में थी की उनका फोन आ गया. कुछ खबर मिली है अभी-अभी की ज्ञानपीठ वाले सम्मानित करना चाहते हैं...वो बता रहे थे या ये पूछ रहे थे कि मुझे पता है कि नहीं पर उनकी आवाज में ख़ुशी थी. मैंने बहुत खुश होकर उन्हें मुबारकबाद दी..जिसे उन्होंने शाइसतगी से रख लिया. उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान आकर बात करता हूँ. और यकीनन अलीगढ पहुंचते ही उन्होंने बात की. एक गजल सुनाई, वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे
जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे
हम जीते जी मसरूफ़ रहे
कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया.
काम इश्क़ के आड़े आता रहा
और इश्क़ से काम उलझता रहा
फिर आखिऱ तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया..
फैज़ की ग़ज़ल. बोले, 'तुमने इसे सुना तो खूब होगा पर आज मेरा मन है सुनाने हुआ.' सचमुच उस दिन उनसे सुनने के बाद गजल और भी खूबसूरत हो गयी थी. मैंने कहा 'गजल तो पहले ही खूबसूरत थी आपकी आवाज में ढलकर और सुन्दर हो गयी...' ठठाकर हँसे और एक किस्सा सुनाया. 'फैज़ बहुत अच्छे शायर थे लेकिन वो पढ़ते बहुत बुरा थे. उनसे किसी ने पुछा कि जितना अच्छा आप लिखते हैं उतना ही अच्छा पढ़ते क्यों नहीं. तो फैज़ ने जवाब दिया, अरे साहब...लिखें भी हमीं अच्छा और पढ़ें भी हमीं अच्छा ये क्या बात हुई...' हम दोनों देर तक इस बात पर हँसते रहे.
उनके कभी भी आये फोन पर कही गयी लाइनें न जाने कहाँ-कहाँ नोट हैं. एक तो कैलेण्डर पर ही दर्ज है. उन्हें नयी पीढ़ी की भाषा से शिकायत थी. ये भी कि ये लोग पढ़ते नहीं हैं. बस जल्दी में रहते हैं...रेखा की तारीफ में उन्होंने कहा था की उमराव जान के गाने लिखते वक़्त रेखा का तसव्वुर होता था. वो बहुत ही खूबसूरत अदाकारा हैं.
आज उनकी हर बात याद आ रही है और ये गम बढ़ता ही जाता है कि हम उनकी शिकायत अब कभी दूर नहीं कर पाएंगे...उनके अलीगढ आने के दावतनामे अब तक संभालकर रखे हुए हैं...शहरयार साहब, इतना शिकवा भी किसी से क्या करना कि बिन कहे कुछ भी चले जाना..आप तक मेरी आवाज पहुंचे न पहुंचे मेरी हिचकियाँ ज़रूर पहुंचेंगे...आपके लिखे में ढूँढा करेंगे आपको....
(प्रभात खबर के सम्पादकीय पेज पर 15 फ़रवरी को प्रकाशित )
6 comments:
राह देखा करेगा सदियों तक......
छोड़ जायेंगे ये जहाँ तनहा......
एक भावभीनी श्रधांजलि......
यादभरी अभिव्यक्ति...
उनकी न जाने कितनी गजलों का पहला ड्राफ्ट मेरे कानो में दर्ज है...सुबह-सुबह कानों में फोन लगाये दौड़ती भागती मै उन्हें सुनती रहती."...... मुझे वोह समय याद आ गया जब शहरयार साब की बातें तुमसे होते हुए मुझ तक पहुँचती थी.
EK BHAV BHARI SHRADANJALI
achcha laga
Aap ne Rula diya Pratibha Ji !
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