न लिख पाने की पीड़ा कितनी बड़ी होती होगी कि जेल के काले पंद्रह सालों से शिकायत नहीं, बस कि लिखने की मनाही से डर था उसे. भगतसिंह की डायरी समेत उन तमाम राजनैतिक कैदियों की याद ताजा हो उठी, जिन्होंने जेल में न लिख पाने की पीड़ा को भोगा और कइयों ने तो नाखूनों से कुरेद कुरेद कर जेल की दीवारों पर लिखा. रिल्के जब न लिख पाने की असह्य पीड़ा का जिक्र करते हैं, तो इन लेखकों के चेहरे उभरते हैं.
हम सब कितने सुंदर समय में जी रहे हैं. अभिव्यक्ति के सारे दरवाजे हमारे हैं. हम जब चाहे, जैसा चाहें लिखने को स्वतंत्र हैं. वी आर लिविंग इन अ कंफर्ट जोन ऑफ एक्सप्रेशन. फिर भी...?
न, सवाल करने का मुझे कोई हक नहीं. बस कि जेल की उन दीवारों को चूम लेने का जी चाहता है, जहां इन भटकती आत्माओं को कैद किया गया था. मुझे लगता है कि मुझे जेलों से एक किस्म का लगाव है. अपने जीवन की पहली किताब के रूप में जिसकी याद दर्ज है उसका नाम 'भारतीय जेलों में पांच वर्ष' था. मेरे पत्रकारिता के जीवन का पहला असाइनमेंट लखनऊ जेल में महिलाओं के जीवन पर था. जेलयाफ्ता लेखकों ने हमेशा आकर्षित किया.
सवाल जेल का है नहीं शायद, उन बंधनों का है जिनमें हम बेकल हो उठते हैं. हैरान...कि क्या करें...कैसे जिएं. अचानक सर से आसमान गायब हो जाए और जेल की बैरकों में ठूंस दिया जाए तो कैसा लगता होगा. प्रकाशवती पाल (यशपाल जी की पत्नी) के साथ उनके घर के लॉन में ऐसी ही सर्दियों की धूप में न जाने कितने जेल जाने के और जेल से भागने के किस्से सुने थे.
सोचती हूं कि हमें कितना सरल और सहज जीवन मिला है. चारों ओर एक कंफर्ट जोन है. हर कदम सुविधाओं से भरा हुआ. यह भी एक तरह का कारावास ही तो है. इस कंफर्ट जोन को तोडऩा भी कोई कम मुश्किल काम नहीं. छोड़कर चले जाना सारे सुख और बीन लेना किसी के पैर की बिंवाई और किसी के आंख का आंसू...
जीने के लिए मरना ही होता हर किसी को न जाने कितनी बार. जीवन की इस कारा के कैदियों आओ, तोड़ दें सभी दीवारें और छीन लें अपने हिस्से का समूचा आसमान. बहुत हुआ मर-मर के जीना, आओ इतना जियें कि मर जाएं.
(4 फरवरी को हिंदुस्तान में प्रकाशित )
10 comments:
चलो.
बहुत हुआ मर-मर के जीना, आओ इतना जियें कि मर जाएं.
...
शुरुआत हो चुकी है जीने की ....आप लिखते रहना बस !
चलो ऐसा ही कुछ कर जाएँ,
इतना जियें कि मर जाये...
जीवन का यह भी एक रंग है...
काश तोडना इतना आसान होता
kya baat......chalo....ham peechhe hai
मैं अपने लिये स्वातन्त्र्य की नयी परिधियाँ नित बनाता हूँ।
"जीने के लिए मरना ही होता हर किसी को न जाने कितनी बार. जीवन की इस कारा के कैदियों आओ, तोड़ दें सभी दीवारें और छीन लें अपने हिस्से का समूचा आसमान."
सही कहा प्रतिभा.....
लेकिन कई बार इतना आसान नहीं होता...
विचार की स्वतंत्रता भी सामजिक दायरे को तोड़ने में
खुद को असंयत महसूस करती है कभी कभी...!!
और जब भी कभी उसे तोड़ने की कोशिश करती है तो उन्हीं चारदीवारियों में ठूंस दी जाती है जिसे आप जेल कह रही हैं फिर एक चारदीवारी और भी है जो दिखाई नहीं देती.....!!
आपके लेखन को बधायी.......
कुछ सोचने को विवश करती है हमेशा....
भले ही वो आपकी कल्पना की उड़ान हो...
या इस जीवन के धरातल से जुडी सच्चाई !!
वाकई लिख पाने की स्वतंत्रता काफी सुकून देती है, इसके बिना जीना घुटन के ही समान है.
बहुत ही प्रभावशाली आलेख ...वाह बहुत ही सटीक एवं सार्थक प्रस्तुति...
kya sab ko naseeb hotii hai likhne ki freedom ?
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