दरअसल, इन दिनों एक नई दोस्ती हाथ लगी है. एक शख्स जो एकदम कंट्रास्ट है मुझसे. जिसका सब्जेक्ट ही वो है जिस पर मेरा यकीन नहीं. यानी ज्योतिष, ईश्वर, नियति, नियंता, ग्रहों की गणना. चूंकि वो युवा है और उसने इस विषय को धार्मिक नजर से नहीं, एक जिज्ञासु की तरह पढ़ा है और वो यह भी जानता है कि मेरी इन चीजों पर आस्था नहीं तो वह अपनी बात विज्ञान के बरअक्स रखता है. मैं उसे ध्यान से सुनती हूं और एक छोटी सी हंसी से उसकी सारी मेहनत पर पानी फेर देती हूं. वो निराश नहीं होता. अगली बार उसकी झोली में नये तरीके होते हैं, अपनी बात को रखने के. और मेरे पास भी.
हमारे लंबे-लंबे वक्तव्य अक्सर कट-छंटकर वहीं छूट जाते हैं, जहां हम बात कर रहे होते हैं. सारे कहे सुने को झाड़कर हम अपनी-अपनी राहों पर चल देते हैं. उसे लगता है कि मैं जानबूझकर उसकी बातों को काटती हूं, इसमें मुझे सुख मिलता है. उसके ऐसा कहने के पहले तक तो नहीं लेकिन बाद में मुझे जरूर मजा आने लगा. वो कहता है कि हम इस वक्त मिलेंगे यह नियति ने पहले ही तय कर रखा होगा. मैं कहती हूं कि तुम्हारी नियति मेरी गुलाम है. ये सूरज, चांद सितारे इन्हें मैं हथेलियों पर लिये घूमती हूं. सारे मौसम मेरा कहा मानते हैं. सुबहों का वक्त बदलकर मैं आधी रात को कर सकती हूं और तेज दोपहरों को घनी रात बना सकती हूं. वो इसे मेरा अहंकार कहता है. मैं इसे अपना होना कहती हूं.
मेरा भाग्य में विश्वास नहीं, कर्म में है. और मैं जानती हूं कि बिना फल की इच्छा के कर्म करने का ज्ञान देने वाली 'गीता' को दुनिया में सबसे ज्यादा पढ़ी जानी वाली किताब भले ही माना गया हो लेकिन बिना फल की इच्छा के काम करने वाले लोग मुझे तो नहीं मिले. जो मिले, उन्होंने गीता नहीं पढ़ी थी. तो मेरा और मेरे इस नये दोस्त का झगड़ा चलता रहता है. संभवत: उसे भी इस झगड़े में कोई सुख मिलने लगा हो. कुछ भी हो हम जब कह रहे होते हैं, उस बीच कम से कम हमारा सहना जरा कम हो जाता है. हम जीवन के तमाम बोझिल सवालों को दरकिनार कर उनसे मुक्त होने का सुख तो महसूस करते ही हैं. विषयांतर होने का भी अपना अलग ही मजा है कि काफी दूर निकल जाने के बाद हम यह भी भूल जाते हैं कि आखिर हम चले कहां से थे और क्यों चले थे भला. बस चंद कदमों के साथ चलने की कुछ आहटें, कंधों पर उतरती शामें, दूर क्षितिज के पार कहीं कुछ ढू़ढती सी निगाहें यही याद रह जाता है. मुस्कुराती हूं अपना ओवरकोट उतारते हुए कि इसी के साथ एक शाम भी उतारकर टांग दी है वार्डरोब में.
7 comments:
bahut achcha likha hai man ke bhaav kuch mere jaise.
tumhaarii aisii ki taisii.
@ Baabu- thanku!
बहुत सुन्दर!
prashansa ke lye shabdo ka abhav he
purane akhbar padh rha tha, achank apka 'ye lukhnau ki...' blog dekha (17/12/11), to swayam ko rok nhi paya apke blog k darshan kiye baghair,,,
ek achhe lekhan se rubru hone ka mauka mila...
विषयांतर होने का भी अपना अलग ही मजा है कि काफी दूर निकल जाने के बाद हम यह भी भूल जाते हैं कि आखिर हम चले कहां से थे और क्यों चले थे भला. बस चंद कदमों के साथ चलने की कुछ आहटें, कंधों पर उतरती शामें, दूर क्षितिज के पार कहीं कुछ ढू़ढती सी निगाहें यही याद रह जाता है. मुस्कुराती हूं अपना ओवरकोट उतारते हुए कि इसी के साथ एक शाम भी उतारकर टांग दी है वार्डरोब में.
sundar..
मैंने आपको सर्वप्रथम "छूटना" से पढ़ना शुरू किया था ...कोई मुझे छोड़ कर जा रहा था ...उसने लिंक दिया था आपके ब्लॉग का कि देखो छोड़ने में भी एक सुख है ....और उसने वो सुख प्राप्त भी कर लिया ....
और आज आप कहती है जब "तुम्हारी नियति मेरी गुलाम है. ये सूरज, चांद सितारे इन्हें मैं हथेलियों पर लिये घूमती हूं. सारे मौसम मेरा कहा मानते हैं. सुबहों का वक्त बदलकर मैं आधी रात को कर सकती हूं और तेज दोपहरों को घनी रात बना सकती हूं. वो इसे मेरा अहंकार कहता है. मैं इसे अपना होना कहती हूं."
मैं पूरे शांत मन से और विश्वाश से कह रहा हूँ कि आप यही हैं ..एकदम ऐसी ही !!
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