Sunday, January 15, 2012

तुम्हें आगे बढ़कर मिलूंगी...



कल हम दोनों ने एक पुल जलाया था 
और दरिया के किनारों की तरह नसीब बांटे थे 
बदन झटके 
तो एक बदन की वीरानी इस पार थी 
और एक बदन की वीरानी उस किनारे 

फिर ऋतुओं ने जो भी फूल दिए
तो तुमने  भी वो बदन से तोड़ लिए 
और मैंने भी वो ऋतुओं को लौटा दिए 
और झडे हुए पत्तों की तरह 
कितने ही बरस हमने पानी में बहा दिए 

बरस बीत गए par पानी नहीं सूखे 
और बहते पानियों में से 
परछाइयाँ तो देखीं पर मुंह नहीं देखे 

और इससे पहले 
की कुछ दूरी पर खड़े हम मिट जाएँ 
चलो बे पत्ते से बदन पर पानी बिछाएं 
तुम अपने बदन पर पैर रखना 
और आधे दरिया को पार कर आना 
मैं अपने बदन पर पैर रखूंगी
तुम्हें आगे बढ़कर मिलूंगी... 
- अमृता प्रीतम 

7 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

पानी कभी न सूखे साधो..

पारुल "पुखराज" said...

vaah ..

Amrita Tanmay said...

भावमई कविता

दीपिका रानी said...

कोमल भावनाओं का पर्याय हैं अमृता प्रीतम..

vikram7 said...

और इससे पहले की कुछ दूरी पर खड़े हम मिट जाएँ चलो बे पत्ते से बदन पर पानी बिछाएं तुम अपने बदन पर पैर रखना और आधे दरिया को पार कर आना मैं अपने बदन पर पैर रखूंगीतुम्हें आगे बढ़कर मिलूंगी... - अमृता प्रीतम
इस सुन्दर कविता की प्रस्तुति के लिये धन्यवाद

vikram7: महाशून्य से व्याह रचायें......

आनंद said...

....तुमने भी वो बदन से तोड़ लिए
और मैंने भी वो ऋतुओं को लौटा दिए
और झडे हुए पत्तों की तरह
कितने ही बरस हमने पानी में बहा दिए

ना जाने कितने बरस ...अभी और बहा देंगे हम ..
प्रतिभा जी शुक्रिया इतनी गहराई कि कवितायेँ शेअर करने के लिए !!

Pallavi saxena said...

निशब्द करती रचना... बहुत ही सुंदर गहरे भावों से सजी बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति इतनी खूबसूरत पोस्ट को यहाँ share करने के लिए आपका आभार समय मिले आपको तो कभी आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है।