पिघल रहा था
पत्थर के भीतर का मोम
खिल रहे थे
चाकुओं की धार पर फूल
रात के भीतर उग आये थे
चमकते हुए दिन
धरती के गर्भ से
जन्म लेने लगा था आसमान
आग के भीतर से झांक रही थी
बेहिसाब शीतलता
सितारे डुबकियां ले रहे थे
समंदर के भीतर
जब लिखी जा रही थी
प्रेम कहानी
10 comments:
जब लिखी जा रही थी
प्रेम कहानी
धरती के गर्भ से
उगने लगा था आसमान...waah
जिंदगी को देखने, उसे महसूस करने और उसके साथ चलने का इससे बेहतर नजरिया यदि कोई हो तो बताएं। मुझे आपकी यह कविता नजरिए पर छाए कुहासे को हटाने में सहायता कर रही है। खासकर जब आप यह लिखती हैं कि 'आग के भीतर से झांक रही थी बेहिसाब शीतलता'तब मुझे सबसे अधिक मन रस आ रहा था क्योंकि यह भी एक नजरिया है। बस इस नजरिए में हम यही चाहेंगे कि कमी और चाहे जिस तरह की हो पारस्परिकता की कभी न हो। शुक्रिया
अच्छी रचना है!
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मित्रता दिवस पर बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
प्रेम कहानी बनती है, प्रकृति के मौलिक तत्वों से।
This is fine one jut like mysterious voice from unknown long distance , coming slowly---/ amazing poetry .
Thanks ji /
प्रेम्कहानियाँ जब जब लिखी जाती हैं ...ऐसा ही होता है...सुन्दर अभिव्यक्ति
Gazab !! :-)
वाह!! बहुत गहरी रचना!!
आप बहुत अच्छा लिखती है .. आपकी ये कविता बहुत ही शानदार बन पड़ी है ....बहुत ही गहरा आभास दिलाती हुई रचना .
आपको बधाई !!
आभार
विजय
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कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html
सुंदर अभिव्यक्ति!
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