वो उतरती शाम का धुंधलका था
शायद गोधूलि की बेला
बैलों की गले में बंधी घंटियों की रिद्म
उनके लौटते हुए सुस्त कदम और
दिन भर की थकान उतारने को आतुर सूरज
कितने बेफिक्र से तुम लेटे हुए
उतरती शाम की खामोशी को
पी रहे थे
जी रहे थे.
तुम शाम देख रहे थे
मैं तुम्हें...
तुम्हारी सिगरेट के मुहाने पर
राख जमा हो चुकी थी.
कभी भी झड़ सकती थी वो
बैलों की घंटियों की आवाज से भी
हवाओं में व्याप्त सुर लहरियों से भी
मैं उस राख को एकटक देख रही थी
तुम बेफिक्र थे इससे कि
वो जो राख है सिगरेट के मुहाने पर
असल में मैं ही हूं
तुम्हारे प्यार की आग में जली-बुझी सी
कमरे में कोई ऐश ट्रे भी नहीं...
(अमृता और मरीना की याद में)
9 comments:
जल कर बनी राख और कोई ठिकाना नहीं, बहुत गहरा, छूकर निकल जाता हुआ।
बैलों की गले में बंधी घंटियों की रिदम,
अभी तो सिर्फ वही सुन रहा हूँ.. बहुत खूब
bahut khoob
सिगरेट का धुंआ...एक अजीब चीज है...
उजले रंग के कागज में लिपटी तंबाकू
और बस एक कस लेने की इच्छा।
क्या यही है नशा....
कई लोग एक साथ, एक समय उड़ा रहे हैं
सिगरेट का धुँआ, कमरे बंद पड़े हैं
धुंआ बढ़ता जा रहा है, फैलता जा रहा है.
सिगरेट का कस खत्म हुआ अब....
बस मैं अकेला बचा रहा गया....
कागज और तंबाकू के बचे राखों के बीच
क्या यहां शांति के लिए होम हुआ है.....
(सिगरेट से इश्क पर 3 फरवरी 2009 को लिखे शब्द, आज आपके द्वार पढ़कर याद आ गया)
@ गिरिन्र्द्र झा - शुक्रिया!
namaste mam,
apke blog parivaar main abhi nayi hoon, aap ki jitana to nahi par ek koshish maine bhi ki hai, kripaya ek baar mere blog par bhi visit karen aur mera utsahvardhan karen. my blog url is--
krati-fourthpillar.blogspot.com
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ek baar awashya dekhen aur apane precious comment zaroor den, kyunki aap jese gurujano ke comment bahut mayane rakhate hain hamare jese naye lekhakon ke liye.
thank you.
bahut sundar kavita ... pratibha ji..
क्या कहने…अजीब सा रुमान…आकर्षित करता है!
कमरे में कोई ऐश ट्रे भी नहीं...यानि तुम्हारे बाद कोई ठिकाना भी नहीं. कई दिन पहले पढ़ी थी और राख होने से पहले फिर पढ़ी
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