- काशीनाथ सिंह
.......और फिर घंटों जो लड़ाई चली, उसका अब तक कोई सानी नहीं है। उसका वर्णन वही कर सकता है, जिसकी जबान में बिजली की चमक, बादलों की गरज और मूसलाधार बारिश को जज्ब करने की ताकत हो। देखते-देखते खिड़की से न$जर आने वाली सारी सड़क और दीवारें लाल होनी शुरू हो गईं। इस दौरान नौजवान उछलता रहा, कूदता रहा, नाचता रहा और गिरता-भहराता रहा। उसके कपड़े तार-तार हुए, कुहनी और घुटने फूटे, सीने पर खरोंच आईं, मुड्ढों और कंधों में मोच आई, छाती धौंकनी की तरह चलती रही, पसलियां बाहर झांकने लगीं, लेकिन उसके बदन पर एक भी छींटा नहीं पड़ा।
इसे शौक साहब के प्रति हमदर्दी कहिए या अपना लालच, भीड़ ने भी उसके साथ कोई मुरौव्वत नहीं दिखाई। उल्टे वह उसका मजाक उड़ाती रही, उस पर व्यंग्य कसती रही, बीच-बीच में कंकड़ और लकडिय़ों के टुकड़े तक फेंकती रही, लेकिन उसे डिगा न सकी.छोकरे, मेरे से तू कोई चाल तो नहीं चल रहा है? अंत में थककर खिड़की के पल्ले से अपना गाल सटाए हुए शौक साहब ने पूछा. पसीने से तर-बतर नौजवान ने सिर उठाया, कैसी चाल?घिनौनी चाल! यानी कि जादू टोना.नौजवान लंबी-लंबी सांसें लेता हुआ ताकता रहा.फिर मुझे क्यों लगता है कि तेरी गर्दन लंबी होकर खिड़की के सामने आ रही है, तेरी आंखें मेरी आंखें में घुसी आ रही हैं, मेरी पीक ऊपर ही ऊपर उड़ जा रही है. तू जहां खड़ा है, वहां न$जर नहीं आ रहा है.चाल वह चले साहब, जो अपनी मां से घात करे. नौजवान हांफते हुए बोला. शाब्बास बहादुर तो तैयार हो जा.दोपहर बाद भीड़ ने गौर किया कि शौक साहब और छोकरा दोनों बगैर खाए-पिए-सोए पस्त पड़ चुके हैं. छोकरे से न ठीक खड़ा हुआ जाता है, न उछला जाता है, न चला जाता है. इसी तरह शौक साहब के निशाने में न पहले जैसी धार है, न ताकत, न सधापन. कभी-कभी तो वह खिड़की से गर्दन बाहर करते और पीक उनके खुले मुंह से बहकर ठोढ़ी से होती हुई बूंद-बूंद करके टपकने लगती. ऐसी भी हालत आती, जब मुंह खुला रहता और कुछ भी न गिरता.
शाम तक तो ऐसा हुआ कि न खिड़की से पीक गिरी और न नौजवान खड़ा रह सका। वह बाईं तरफ झुका-झुका कुछ देर तक झूलता रहा, फिर लुढ़का और पेट के बल ढेर हो गया. फिर किसी तरह बड़ी मशक्कत के बाद चित्त हो सका. उसने चीभ की नोक से अपने होंठ तर किए, धीरे-धीरे पलके खोलीं, और इधर-उधर कुछ देखने की कोशिश की. अंत में उसकी आंखों ने खिड़की ढूंढ ली और वहीं टिक गईं.फिर भी सबका ख्याल था कि अगर ऊपर से पीक की एक भी बूंद गिरी, तो करवट बदलने की बात तो छोडि़ए, इसमें हिलने-डुलने तक की ताकत नहीं रह गई है.
लोग तनाव और उत्सुकता से भरे हुए थे, लेकिन मौसम खुशगवार और उत्तेजक था। ठीक वैसा ही, जैसा होना चाहिए. दिन की धूप अंग-अंग को गर्मा चुकी थी और शाम की ठंड नस-नस में नींद और चैन का नशा घोले जा रही थी. नदी की ओर से आने वाली बसंत की हवा पकड़ी के बचे-खुचे पत्तों से छेड़छाड़ करती और फिर खिड़की से घुसकर शौक साहब के सफेद बालों को सहला जाती.नीले और खुले आसमान में पहले बड़ी देर तक केवल एक तारा टिमटिमाता रहा, लेकिन जैसे-जैसे अंधेरा घना होता गया, सारा नीलापन सफेद कांपते तारों से भरने लगा.लोग टकटकी लगाए खड़े रहे कि देखें, इस कत्ल की रात में क्या होता है, बूंद कब गिरती है.इसी बूंद का इंत$जार करते-करते और होते-हवाते सुबह हुई तो चारों तरफ एक सनसनी और दहशत फैल रही थी.
नौजवान वहां नहीं था, जहां पड़ा था। वह इधर-उधर भी कहीं नहीं था. भोर में थोड़ी देर के लिए लोगों को झपकी आई और उसने मौके का फायदा उठा लिया. जितने मुंह, उतनी बातें. किसी ने अंधेरे में निहुरे-निहुरे उसे भागते देखा था, तो किसी ने कुछ लोगों द्वारा उसे भगाए जाते हुए. शौक साहब के आदमी भी संदेह से बरी नहीं थे, लेकिन यह भी था कि उनके लिए उसकी औकात मक्खी से ज्यादा नहीं थी. जो काम कभी भी हो सकता था, उसके लिए चोरी की क्या $जरूरत?लोगों ने शौक साहब से बहुत कहा. उनके अपने लोगों ने भी और भीड़ ने भी कि हुजूर के आगे एक लौंंडे की क्या बिसात? वह क्या खाकर टिकता? यह क्या कम है कि इतने दिन डटा रह गया? लिहाजा, उसकी चिंता छोडें़ और दुनिया को देखें, उसके दुख-दर्द तकलीफ को सुनें लेकिन उन पर बातों का कोई असर नहीं पड़ रहा था. वे खिड़की के पास उदास और गुमसुम बैठे हुए थे. न कुछ खा-पी रहे थे और न बोल-बतिया रहे थे. उन्होंने दिशाओं में अपने हाथी, घोड़े और बग्घी दौड़ा रखे थे. कभी-कभी तो उनकी गर्दन खिड़की से बाहर आती और वे इस इत्मीनान के लिए नीचे झांकते कि नौजवान सचमुच गायब है या उनके साथ मजाक किया जा रहा है.यह ऐलान करते हुए उनकी आंखों में आंसू थे और वे आंसू गालों पर ढुलक-ढुलक आ रहे थे कि वे तब तक किसी पर नहीं थूकेंगे, जब तक जुर्म करने वाला-उसे भगाने वाला खुद सामने आकर कबूल नहीं करता.
- क्रमश:
.......और फिर घंटों जो लड़ाई चली, उसका अब तक कोई सानी नहीं है। उसका वर्णन वही कर सकता है, जिसकी जबान में बिजली की चमक, बादलों की गरज और मूसलाधार बारिश को जज्ब करने की ताकत हो। देखते-देखते खिड़की से न$जर आने वाली सारी सड़क और दीवारें लाल होनी शुरू हो गईं। इस दौरान नौजवान उछलता रहा, कूदता रहा, नाचता रहा और गिरता-भहराता रहा। उसके कपड़े तार-तार हुए, कुहनी और घुटने फूटे, सीने पर खरोंच आईं, मुड्ढों और कंधों में मोच आई, छाती धौंकनी की तरह चलती रही, पसलियां बाहर झांकने लगीं, लेकिन उसके बदन पर एक भी छींटा नहीं पड़ा।
इसे शौक साहब के प्रति हमदर्दी कहिए या अपना लालच, भीड़ ने भी उसके साथ कोई मुरौव्वत नहीं दिखाई। उल्टे वह उसका मजाक उड़ाती रही, उस पर व्यंग्य कसती रही, बीच-बीच में कंकड़ और लकडिय़ों के टुकड़े तक फेंकती रही, लेकिन उसे डिगा न सकी.छोकरे, मेरे से तू कोई चाल तो नहीं चल रहा है? अंत में थककर खिड़की के पल्ले से अपना गाल सटाए हुए शौक साहब ने पूछा. पसीने से तर-बतर नौजवान ने सिर उठाया, कैसी चाल?घिनौनी चाल! यानी कि जादू टोना.नौजवान लंबी-लंबी सांसें लेता हुआ ताकता रहा.फिर मुझे क्यों लगता है कि तेरी गर्दन लंबी होकर खिड़की के सामने आ रही है, तेरी आंखें मेरी आंखें में घुसी आ रही हैं, मेरी पीक ऊपर ही ऊपर उड़ जा रही है. तू जहां खड़ा है, वहां न$जर नहीं आ रहा है.चाल वह चले साहब, जो अपनी मां से घात करे. नौजवान हांफते हुए बोला. शाब्बास बहादुर तो तैयार हो जा.दोपहर बाद भीड़ ने गौर किया कि शौक साहब और छोकरा दोनों बगैर खाए-पिए-सोए पस्त पड़ चुके हैं. छोकरे से न ठीक खड़ा हुआ जाता है, न उछला जाता है, न चला जाता है. इसी तरह शौक साहब के निशाने में न पहले जैसी धार है, न ताकत, न सधापन. कभी-कभी तो वह खिड़की से गर्दन बाहर करते और पीक उनके खुले मुंह से बहकर ठोढ़ी से होती हुई बूंद-बूंद करके टपकने लगती. ऐसी भी हालत आती, जब मुंह खुला रहता और कुछ भी न गिरता.
शाम तक तो ऐसा हुआ कि न खिड़की से पीक गिरी और न नौजवान खड़ा रह सका। वह बाईं तरफ झुका-झुका कुछ देर तक झूलता रहा, फिर लुढ़का और पेट के बल ढेर हो गया. फिर किसी तरह बड़ी मशक्कत के बाद चित्त हो सका. उसने चीभ की नोक से अपने होंठ तर किए, धीरे-धीरे पलके खोलीं, और इधर-उधर कुछ देखने की कोशिश की. अंत में उसकी आंखों ने खिड़की ढूंढ ली और वहीं टिक गईं.फिर भी सबका ख्याल था कि अगर ऊपर से पीक की एक भी बूंद गिरी, तो करवट बदलने की बात तो छोडि़ए, इसमें हिलने-डुलने तक की ताकत नहीं रह गई है.
लोग तनाव और उत्सुकता से भरे हुए थे, लेकिन मौसम खुशगवार और उत्तेजक था। ठीक वैसा ही, जैसा होना चाहिए. दिन की धूप अंग-अंग को गर्मा चुकी थी और शाम की ठंड नस-नस में नींद और चैन का नशा घोले जा रही थी. नदी की ओर से आने वाली बसंत की हवा पकड़ी के बचे-खुचे पत्तों से छेड़छाड़ करती और फिर खिड़की से घुसकर शौक साहब के सफेद बालों को सहला जाती.नीले और खुले आसमान में पहले बड़ी देर तक केवल एक तारा टिमटिमाता रहा, लेकिन जैसे-जैसे अंधेरा घना होता गया, सारा नीलापन सफेद कांपते तारों से भरने लगा.लोग टकटकी लगाए खड़े रहे कि देखें, इस कत्ल की रात में क्या होता है, बूंद कब गिरती है.इसी बूंद का इंत$जार करते-करते और होते-हवाते सुबह हुई तो चारों तरफ एक सनसनी और दहशत फैल रही थी.
नौजवान वहां नहीं था, जहां पड़ा था। वह इधर-उधर भी कहीं नहीं था. भोर में थोड़ी देर के लिए लोगों को झपकी आई और उसने मौके का फायदा उठा लिया. जितने मुंह, उतनी बातें. किसी ने अंधेरे में निहुरे-निहुरे उसे भागते देखा था, तो किसी ने कुछ लोगों द्वारा उसे भगाए जाते हुए. शौक साहब के आदमी भी संदेह से बरी नहीं थे, लेकिन यह भी था कि उनके लिए उसकी औकात मक्खी से ज्यादा नहीं थी. जो काम कभी भी हो सकता था, उसके लिए चोरी की क्या $जरूरत?लोगों ने शौक साहब से बहुत कहा. उनके अपने लोगों ने भी और भीड़ ने भी कि हुजूर के आगे एक लौंंडे की क्या बिसात? वह क्या खाकर टिकता? यह क्या कम है कि इतने दिन डटा रह गया? लिहाजा, उसकी चिंता छोडें़ और दुनिया को देखें, उसके दुख-दर्द तकलीफ को सुनें लेकिन उन पर बातों का कोई असर नहीं पड़ रहा था. वे खिड़की के पास उदास और गुमसुम बैठे हुए थे. न कुछ खा-पी रहे थे और न बोल-बतिया रहे थे. उन्होंने दिशाओं में अपने हाथी, घोड़े और बग्घी दौड़ा रखे थे. कभी-कभी तो उनकी गर्दन खिड़की से बाहर आती और वे इस इत्मीनान के लिए नीचे झांकते कि नौजवान सचमुच गायब है या उनके साथ मजाक किया जा रहा है.यह ऐलान करते हुए उनकी आंखों में आंसू थे और वे आंसू गालों पर ढुलक-ढुलक आ रहे थे कि वे तब तक किसी पर नहीं थूकेंगे, जब तक जुर्म करने वाला-उसे भगाने वाला खुद सामने आकर कबूल नहीं करता.
- क्रमश:
3 comments:
बढ़िया जानकारी।
बधाई।
हम बाढ़ से जूझ रहे हैं।
excellent
Please post next part
Rohit Kaushik
Post a Comment