Monday, August 31, 2009

इख्फ़ा-ए-मुहब्बत


तुम मोहब्बत को छुपाती क्यों हो?
हाय! ये हीर की सूरत जीना
मुंह बिगाडे हुए अमृत पीना
कांपती रूह धड़कता सीना
जुर्म फितरत को बनाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छुपाती क्यों हो।
दिल भी है दिल में तमन्ना भी है
तुमको अपने पर भरोसा भी है
झेंपकर आंख मिलाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छुपाती क्यों हो?
हां, वो हंसते हैं जो इंसान नहीं
जिनको कुछ इश्क का इर$फान (ज्ञान)नहीं
संग$जादों में $जरा जान नहीं
आंख ऐसों की बचाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छुपाती क्यों हो?
जुल्म तुमने कोई ढाया तो नहीं
इब्ने आदम को सताया तो नहीं
यों पसीने में नहाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छुपाती क्यों हो?
झेंपते तो नहीं मेहराबनशीं,
मक्र पर उनकी चमकती है जबीं
सिद्क पर सर को झुकाती क्यों हो?
तुम मुहब्बत के छुपाती क्यों हो?
परदा है दा$ग छुपाने के लिए
शर्म है किज़्ब (झूठ) पे छाने के लिए
इसको होठों में दबाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छुपाती क्यों हो?
आओ, अब घुटने की फुरसत ही नहीं
और भी काम हैं, उल्फत ही नहीं
है ये खामी भी नदामत (शर्म) ही नहीं
डर के चिलमन को उठाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छुपाती क्यों हो?
- कैफी आज़मी

8 comments:

अमिताभ मीत said...

बेहद खूबसूरत नज़्म है. कैफ़ी आज़मी का जवाब नहीं.

mehek said...

दिल भी है दिल में तमन्ना भी है
तुमको अपने पर भरोसा भी है
झेंपकर आंख मिलाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छुपाती क्यों हो?
bahut hi sunder ehsaas,padhwane ke liye shukran

Mithilesh dubey said...

बहुत सुन्दर लाजवाब रचना,।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...
This comment has been removed by the author.
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

कैफी आज़मी साहब की खूबसूरत गज़ल पढ़वाने के
लिए आभार!

के सी said...

प्रतिभा जी आपके ब्लॉग को नियमित पढ़ रहा हूँ, सदी का आदमी श्रंखला बेहतरीन थी उसे कई बार पढ़ा है, आज की नज़्म पसंद आई !

अनिल कान्त said...

कैफी आज़मी साहब की नज़्म पढ़कर मजा आ गया

सुशीला पुरी said...

मै अपने इख्तियार में हूँ भी नही भी हूँ ,
दुनिया के कारोबार में ,हूँ भी नही भी हूँ .