Saturday, June 6, 2009

फरिश्ते के हाथ

ध्यान से देखा तो पता चला जिन्हें मैं हमेशा से अपने मानता रहा, वे हाथ मेरे नहीं है. वैसे मुझे अपने हाथ अच्छे से याद हैं, यह जरूर है कि उन्हें देखना कभी-कभार ही हो पाता था. और अब तो उन्हें देखे अरसा हो गया था. इस बीच बिना हाथ की ओर एक बार भी देखे, मैं समझता रहा कि वे हाथ जिन्हें लेकर मैं मां के गर्भ से धरती पर उतरा था, अब भी मेरे दांये-बांये झूल रहे हैं।

मुझे भरोसा था कि ये वे ही हैं जो गाहे-बगाहे कलम पकड़ लेते हैं और उसकी भीगी आंखों से उसके आंसुओं को मेरी जीभ तक खींच लाते हैं और कभी-कभी अंधेरे कमरे में दरवाजे की सांकल खोजते हैं. कितना समय बीत गया इस भरोसे में जीवन बिताते।

अभी हाल में मुझे पता चला कि मरे हाथों को बदल दिया गया है. मैं जिन्हें अपने मानता रहा, वे हाथ किसी और के हैं. शायद इसलिए मुझे कई बार आश्चर्य हुआ है, वह कर गुजरने पर जिसके मैं सर्वथा अयोग्य था. वह लिखने पर जिसे पढ़कर लगा जैसे किसी और का लिखा पढ़कर लगा जैसे किसी और का लिखा पढ़ रहा हूं।

अब अंदेशा होने लगा है कि हो न हो कोई चोर किसी भले मानस के हाथ चुराकर भाग रहा होगा कि अचानक पकड़े जाने के डर से उसने उन हाथों को मेरे हाथों से बदल दिया और मेरे हाथ लेकर बेखौफ भाग गया. यह अंदेशा भी होने लगा कि से निश्चय ही किसी फरिश्ते के हाथ हैं, वरना ये उसकी भीगी आखों से उसके आंसुओं को मेरी जीभ तक इतना सुरक्षित नहीं पहुंचा पाते और मेरी खातिर खोजते नहीं अंधेरे कमरे में जंग लगी सांकल और मुझे वह सब नहीं लिखने देते जो मैं उनके बारे में उन्हीं से बेलॉग लिख रहा हूं।
- उदयन वाजपेयी
(उद्भावना कवितांक से साभार )

5 comments:

निर्मला कपिला said...

bahut bhaavmay aur gaharee abhivyakti hai shubhkamnayen

के सी said...

यह अंदेशा भी होने लगा कि से निश्चय ही किसी फरिश्ते के हाथ हैं, वरना ये उसकी भीगी आखों से उसके आंसुओं को मेरी जीभ तक इतना सुरक्षित नहीं पहुंचा पाते.
सुन्दर और गंभीर !

अजय कुमार झा said...

बहुत खूब प्रतिभा जी उद्यान जी की बात हम तक पहुंचाने के लिए....इस दृष्टिकोण से देखना सबके बस की बात नहीं होती..आपको पढ़ना हमेशा ही एक सुखद एहसास रहता है...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

हाथों को लेकर सुन्दर प्रस्तुति।
बधाई।

वीनस केसरी said...

पूरे लेख में कवित्त भरा पड़ा है
लेख पढ़वाने के लिए धन्यवाद
वीनस केसरी