िजंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुम्हें चाहूंगा।
तू मिला है तो एहसास हुआ है मुझको
ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोड़ी है,
इक $जरा सा $गमे दौरा का भी है ह$क है जिस पर
मैंने वो सांस भी तेरे लिए रख छोड़ी है
तुझ पे हो जाऊंगा कुर्बान तुझे चाहूंगा
मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा...
अपने जज़्बात में नग़्मात रचाने के लिए
मैंने धड़कन की तरह दिल में बसाया है तुझे,
मैं तस्सवुर भी जुदाई का भला कैसे करूं
मैंने $िकस्मत की लकीरों से चुराया है तुझे,
प्यार का बनके निगहेबान तुझे चाहूंगा
मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा...
तेरी हर चाप से जलते हैं ख्य़ालों में चिरा$ग
जब भी तू आये जगाता हुआ जादू आये
तुझको छू लूं तो फिर ऐ जाने तमन्ना मुझको
देर तक अपने बदन से तेरी खुश्बू आये
तू बहारों का है उन्वान तुझे चाहूंगा
मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा...
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुम्हें चाहूंगा।
तू मिला है तो एहसास हुआ है मुझको
ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोड़ी है,
इक $जरा सा $गमे दौरा का भी है ह$क है जिस पर
मैंने वो सांस भी तेरे लिए रख छोड़ी है
तुझ पे हो जाऊंगा कुर्बान तुझे चाहूंगा
मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा...
अपने जज़्बात में नग़्मात रचाने के लिए
मैंने धड़कन की तरह दिल में बसाया है तुझे,
मैं तस्सवुर भी जुदाई का भला कैसे करूं
मैंने $िकस्मत की लकीरों से चुराया है तुझे,
प्यार का बनके निगहेबान तुझे चाहूंगा
मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा...
तेरी हर चाप से जलते हैं ख्य़ालों में चिरा$ग
जब भी तू आये जगाता हुआ जादू आये
तुझको छू लूं तो फिर ऐ जाने तमन्ना मुझको
देर तक अपने बदन से तेरी खुश्बू आये
तू बहारों का है उन्वान तुझे चाहूंगा
मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा...
10 comments:
बहुत बहुत सुन्दर ..............
ये तो मेहंदी हसन साहब की गाई हुई नायाब गजल है उसका आदियो लगा देते तो आनंद और कई गुना बढ जाता. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
मेंहदी हसन साहब ने क्या खूब गाया है इस ग़ज़ल को .....सचमुच लाजवाब है. इसे पढ़ते ही कानो में वे स्वर गूंजने लगे...
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति, आभार ।
इस गज़ल को क़तील शिफ़ाई साहब ने लिखा है, उनका नाम तो लगा ही दिजिये और मेंहदी हसन साहब की आवाज तो इसे पढ़ते खुद ब खुद कान में गुँजने लगती है.
बहुत आभार इसे प्रस्तुत करने का. वैसे कोशिश करिये कि अगर शायर का नाम न भी मालूम हो और रचना आपकी न हो, तो यह जरुर लिख दें कि शायर का नाम ज्ञात नहीं.
एक सलाह मात्र है, कृप्या अन्यथा न लिजियेगा.
यह गज़ल इतनी मकबूल है कि इसके गायक और शायर दोनों से ही कोई नावाकिफ हो ऐसा मैं नहीं मानती. इसीलिए किसी का कोई नाम नहीं दिया. हां, ऑडियो लगाना चाहती थी लेकिन अभी यह सीखा नहीं है. कभी-कभी खूब सुने हुए को पढऩा भी सुख देता है और सुनने की प्यास को जगा देता है. पसंद करने के लिए आप सभी का आभार!
क़तील शिफ़ाई साहब की ये ग़ज़ल
बहुत उम्दा है।
मुबारकवाद।
यह ग़ज़ल हमें भी भाति है. यहाँ प्रस्तुत करने का आभार
1993 में आकाशवाणी में नौकरी ज्वाइन की तब यही ग़ज़ल सुनते हुए दो बरस बिताये थे. आज आपने उन कमसिन दिन की याद दिला दी है. बहुत खूबसूरत पसंद है आपकी और अब सोचता हूँ कुछ लोग मिलते जुलते होते होंगे.
बहुत बढिया।
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