Saturday, June 13, 2009

सफर में शब्द और कोई नहीं...

सूरज की एक तिरछी सी पतली लकीर लड़की के गालों को छूते हुए माथे पर पड़ रही थी. लड़का उसे देख रहा था. लड़के ने अपने भीतर कुछ पिघलता हुआ महसूस किया. उसने पूरे भावों के साथ कुछ कहा लड़की से. शब्द चले हौले-हौले एक सफर को. सफर लंबा था भी, नहीं भी. हर शब्द संभलता हुआ, बिखरता हुआ बस पहुंचने की जल्दी में. धरती ने आकाश को कुछ कहते हुए देखा. सुना नहीं. शब्द सफर में थे अब तक. लड़की मुस्कुराई. लड़के की आंखों में कोई गीली सी लकीर उभर आई थी. लड़की ने पलकें मूंद ली थीं बस. लड़के ने उन मुंदती पलकों में खुद को कैद होते हुए महसूस किया. शब्द अब तक सफर में थे. लड़की अतीत की गर्द झाड़-पोंछकर मन के आंगन को साफ कर रही थी।

लड़का अभिभूत था. उसके आंचल का एक कोना भर मुट्ठी में पकड़कर लड़के को लगा कि उसने पूरा आसमान मुट्ठी में ले लिया है. लड़की के माथे पर सूरज चमक रहा था. उसकी बिंदी को रोशनी से भर रहा था. उसकी आखों में भी रोशनी झांक रही थी. लड़का अपनी हथेलियों से लड़की के माथे पर पड़ती रोशनी को रोक लेना चाहता था. लड़की ने मना किया ऐसा करने से. लड़का मान गया।

लड़की ने दरवाजे पर सजाये वसंत के पौधे में बड़े दिनों बाद पानी डाला. बालकनी में झुक आई पूरनमाशी की डाल पर स्मृतियों के फूल न जाने कब से लगे-लगे मुरझा चुके थे. जाने कौन सा मोह था कि लड़की ने उसे सहेजा हुआ था अब तक. उस रोज लड़की ने उन सारे सूखे फूलों को अपने आंचल में भर कर पूरणमाशी की डाल को नये फूलों के लिए खाली कर दिया।

लड़का देख रहा था सब कुछ. शब्द अब भी सफर में थे. लड़की न जाने कहां खोई हुई थी. उसे न जाने कितना काम था. वह बीच-बीच में लड़के को देख लेती थी मुस्कुरा कर. लड़की के माथे पर पसीने की बूंदे हीरे सी चमक रही थीं. लड़का उनकी खूबसूरती में डूबा था. उसका दिल चाहा कि ये हीरे ऐसे ही चमकते रहे हैं हमेशा. लेकिन लड़की ने पसीना अपने कुर्ते की बांह से पोंछ लिया. लड़का अनमना हो गया. लड़की ने बिखरे हुए बालों का जूड़ा बनाया. जूड़ा पसंद नहीं था लड़के को. वह बालों को खुला देखना चाहता था. जुल्फों के जंगल में खुद को खो देना चाहता था. उनकी खुशबू को अपने भीतर बसा लेना चाहता था. लेकिन लड़की ने उन्हें बांध लिया था।

लड़का अब तक लड़की के प्रेम का इंत$जार कर रहा था. लड़की एकदम बेफिक्र थी, जैसे उसे किसी बात की परवाह नहीं थी. लड़का अब बेसब्र होने लगा था. लड़की अनजान ही रही और घर की दीवारों पर अपनी पसंद की पेंटिंग्स को टांगती रही।

लड़के ने फिर कुछ कहा, लड़की ने सुना नहीं. शब्द फिर सफर में...लड़के ने लड़की की आंखों पर अपनी हथेली रख दी. कानों के पास चूम लिया धीरे से. लड़की मुस्कुराई. हथेली हटाकर भी आंखें बंद ही रखीं उसने. क्या कहा तुमने? लड़की ने पूछा
प्रेम ? लड़के ने कहा।
कुछ शब्दों का सफर पूरा हो चुका था शायद. लड़की $जोर से खिलखिलाई.
...प्रेम?
जानते भी हो प्रेम?
हां, जो मुझे तुमसे है? लड़का बोला।
लड़की हंसी।
उठकर चली गई भीतर।
जानती थी वो, प्रेम पुरुषों को सिर्फ लुभाता है. उन्हें नहीं मालूम क्या होता है प्रेम कैसा होता है और कैसे किया जाता है?

लड़की हंसती रही देर तक....गहरी हंसी...हंसी ही हंसी...पूरे कमरे में उसकी खिलखिलाहटें बिखर गई थीं. बालकनी में अभी-अभी खाली हुई वो डाल उसकी हंसी के फूलों से भर गई. उदास सा वसंत चौंककर सुनने लगा उस हंसी को. लड़का घबरा गया लड़की को इस कदर हंसते देख. उसने उस हंसी को छुआ तो हाथ भीग गये उसके. ऐसी उदास, गीली हंसी उसने कभी नहीं देखी थी. लड़का डर गया...बाहर निकल गया घर से।

लड़की हंसती रही...हंसती रही...लड़के के शब्द जिनमें जन्मो का साथ, सदियों की मोहब्बत और न जाने क्या क्या था, अब तक सफर में थे।
हालांकि लड़का अब सफर में नहीं था।
कहीं नहीं.

6 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सुन्दर प्रस्तुति।

Dinesh Shrinet said...

शब्दों में क्या वो कहा जा सकता है जिसके लिए हमने शब्द न गढ़े हों। मेरे लिए भाषा हमेशा यही चुनौती बनकर आती है। आपने यह अद्भुत काम कर दिखाया है।
--
दिनेश श्रीनेत

ravindra vyas said...

....फिर एक दिन ऐसा आया कि वह हंसी लड़के के पीछे पीछे चलने लगी। वह जहां जाता हंसी उसके पीछे आती सुनाई देती। लड़के के शब्द कहीं खो गए थे। अब वह चुप रहने लगा। उसकी चुप्पी में हंसी रहने लगी। गूंजने लगी। अब जब कभी वह लड़का एकांत में कभी हंसता तो उसकी हंसी में लड़की की हंसी की गूंज थी। वह गूंज जब जब उस लड़की को महसूस होती तो वह ओस में भीग जाती........

के सी said...

बेहद खूबसूरत है ... कल रात को पढ़ रहा था सोचा फोन करके ही बधाई दूं पर चाँद ढलने का समय हो चला था. मेरी पसंद ऐसी ही है और ये दिल को छू जाने वाली रचना है.

vijay kumar sappatti said...

aapki ye post padhi ..

man khush ho gaya , mausam bhi kuch aisa hi ho chala hai .. par aapne shabdo me jaise jaan dal di ho ...
badhai sweekar kare

dhanyawad.

vijay
pls read my new suif poem
http://poemsofvijay.blogspot.com/2009/06/blog-post.html

Syed Ali Hamid said...

I came across your blog yesterday. This story is written in lyrical prose and, perhaps, borders on the surreal(although my knowledge of Painting is severely limited, but I think that the painting accompanying the story is a surrealistic work). "Prem purushon ko sirf lubhaata hai".Is it nothing more than that? At least the sad, mocking laughter of the girl seems to indicate this. Do men progress, in life, from love to lust? Is it the other way round with women? These questions baffled me 35 years ago, and they continue to do so. Perhaps it is part of the Divine design that some mysteries shall remain mysteries. If they are solved, then what will remain?

Good post and good blog, Pratibha ji.