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अरे, यह तो मेरी ही धडकनों की आवाज थी। धक...धक...धक...कितने बरसों बाद यह आवाज सुनी थी. अपनी ही धड़कनों की आवाज शहरों के शोर में, आवाजों के सैलाब में गुम सी गई थी कहीं. या सच कहूं, हमने ही छुपा दिया था इन्हें सुभीते से बहुत अंदर कहीं. ताकि ये तो सुरक्षित रह ही सकें बाहरी सैलाब से. देखो ना, आज जब शोर के सैलाब की जगह खामोशी ने ली तो धड़कनों ने अपना आकार बढ़ाना शुरू किया. इनकी कारगुजारियां बढऩे वाली थीं. मुझे समझ में आ चुका था. वादियों में इन्होंने टहलना शुरू कर दिया था. अब ये मेरे बस के बाहर थीं।
खामोश वादियों में धड़कनें ही धड़कनें...अचानक वादियां गुलजार होती मालूम हुईं. जब धड़कनें आजाद हुईं तो मन भी आजाद हुआ और न जाने कितनी यादें...पहाड़ों से डर अब जरा कम हो रहा था, लेकिन दोस्ती अब तक नहीं हुई. जाने क्यों सदियों से वैसे के वैसे खड़े पहाड़ मुझे डराते हैं हमेशा से. बहरहाल, धड़कनों की दोस्ती वादियों से हो गई थी. चलने की बेला हुई तो नन्हे बच्चों सी रूठी धड़कनें साथ चलने को राजी ही नहीं हुईं. उन्हें तो यहीं रहना था. भला बताइये, जहां मेरा मन घबराता है, इन्हें वहीं बसना है. दिल की धड़कन से बगावत. अब क्या करूं? जाना तो है....
एक रास्ता है धड़कनों की आवाज आई।
एक हिस्सा यहीं छोड़ दो हमारा।
एक हिस्सा...?
मैं अचरज में।
हां, अपने मन के कितने हिस्से कहां-कहां छोड़ती फिरती हो, कहां-कहां अपने सपने रोपती फिरती हो, एक हिस्सा अपनी धड़कनों का नहीं छोड़ सकती क्या...?
धड़कनों ने मुझे आड़े हाथों लेना शुरू कर दिया था. मैं अब फंस चुकी थी. बुरी तरह से. कोई जवाब नहीं था. कोई भला अपनी धड़कनों से मुंह चुराए भी तो कैसे. तय हो गया. अपनी धड़कनों का एक छोटा सा हिस्सा मैं उन वादियों में ही छोड़ आई हूं।
मैं आ गयी हूं वापस. पता नहीं वापस कभी वहां जाऊंगी भी या नहीं लेकिन पता है कि मेरी तरह शरारती मेरी धड़कनें वादियों का सन्नाटा भंग करती रहेंगी. मैं रहूं ना रहूं जब भी कभी कोई मेरी धड़कनों की आवाज सुनना चाहेगा, उसे शिमला की वादियों में वो आवाज जरूर सुनाई देगी...
- शिमला से लौटकर प्रतिभा