24 नवंबर 1952 में पाकिस्तान में जन्मी परवीन शाकिर के
अल्फाज की खुश्बू से सारी दुनिया अब तक महक रही है.
अक्स-ए-खुशबू हूं, बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊं तो मुझको न समेटे कोई
कांप उठती हूं मैं ये सोचकर तनहाई में
मेरे चेहरे पर तिरा नाम न पढ़ ले कोई
जिस तरह ख्वाब मिरे हो गये रेजा-रेजा
उस तरह से न कभी टूट के बिखरे कोई
मैं तो उस दिन से हिरासां हूं कि जब हुक्म मिले
खुश्क फूलों को किताबों में न रक्खे कोई.
अब तो इस राह से वो शख्स गुजरता ही नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाजे से झांके कोई
कोई आहट, कोई आवा$ज, कोई चाप नहीं
दिल की गलियां बड़ी सुनसान हैं, आये कोई.
अक्स-ए-खुशबू हूं, बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊं तो मुझको न समेटे कोई
कांप उठती हूं मैं ये सोचकर तनहाई में
मेरे चेहरे पर तिरा नाम न पढ़ ले कोई
जिस तरह ख्वाब मिरे हो गये रेजा-रेजा
उस तरह से न कभी टूट के बिखरे कोई
मैं तो उस दिन से हिरासां हूं कि जब हुक्म मिले
खुश्क फूलों को किताबों में न रक्खे कोई.
अब तो इस राह से वो शख्स गुजरता ही नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाजे से झांके कोई
कोई आहट, कोई आवा$ज, कोई चाप नहीं
दिल की गलियां बड़ी सुनसान हैं, आये कोई.
7 comments:
जहे नसीब पाकिस्तान की मश्हूर शायरा मर्हूम परवीन शाकिर साहिबा को आज ब्लाग की दुनियाँ एक बार फिर से पढ़ाने के लिए मश्कूर हूँ मोहतरमा.
ग़ज़ल के मतले समेटो की जगह समेटे कर लें.
ये बहुत ज़रूरी है वे उपरोक्त ग़ज़ल में ए का काफिया निर्वाह किया जा रहा है.परवीनजी की रूह को सुकून मिलेगा और हमें भी.
क्या अंदाज़े बयां है-
कांप उठती हूँ मैं ये सोच के तनहाई में,
मेरे चेहरे पे तेरा नाम न पढ़ ले कोई.
हया की इस पाकीज़गी का क्या कहना.
ग़ज़ल का आखिरी शेर जानलेवा है-
कोई आहट,कोई आवाज़,कोई चाप नहीं,
दिल की गलियां बड़ी सुनसान है आये कोई.
हमारे दिल की गलियों का भी यही हाल है.
उपरोक्त ग़ज़ल उर्दू की मश्हूर बहर-(बहरे रमल मुसम्मन मखबून महज़ूफ है.
अरकान प्रत्येक मिसरे में इस प्रकार हैं-
फाइलातुन-फइलातुन-फइलातुन- फेलुन.
ग़ालिब साहब की मश्हूर ग़ज़ल इसी बहर में है.
इश्क पे ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ग़ालिब
जो लगाये न लगे और बुझाये न बने.
परवीन शाकिर साहिबा उर्दू ग़ज़ल की आबरू हैं. उनकी ग़ज़लों का दर्द ओढ़ा हुआ नहीं भोगा हुआ है.
उनका कुछ शेर -
कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उसने,
बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की.
वो कहीं भी गया लौटा तो मेरे पास आया,
बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की.
मर्हूम परवीन शाकिरजी की मुहब्बत ने आपके ब्लाग पर काफी देर रोक लिया.खैर
अब तो जाते हैं मयक़दे से मीर,
फिर मिलेंगे अगर ख़दा लाया.
आमीन.
बहुत खुब..
शुक्रिया सुभाष जी, गलती सुधार ली है. परवीन जी की रूह के सुकून का सवाल है आखिर और हर उर्दू पसंद की रूह के सुकून का भी. परवीन शाकिर ने सचमुच हर लफ्ज़ जीकर लिखा है. अभी उनकी गज़लों का, नज़्मों का सिलसिला चलेगा.
प्रस्तुति के लिए आभार
- विजय
शुक्रिया.
silsilaa chalta rahey..
Dr. Badrinarayan ka "prem patr" uplabdh karwayeeye.
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