एक दिन एक पत्रकारिता के विद्यार्थी ने सवाल किया था किताबों को पढऩे के सलीके को लेकर. उसे जवाब देने के बाद कुछ लिखा भी था. इन दिनों रवीन्द्र व्यास जी के ब्लॉग पर किताबों पर सीरीज चल रही है। किताबों के बारे में एक छोटा सा नोट मेरा भी बिना किसी लाक्षणिकता के, कलात्मकता के....प्रतिभा
अकसर हम किताबों के पास जाते हैं, उन्हें खोलते हैं, पढऩे की कोशिश करते हैं लेकिन किताबें हमें धक्का मारकर दूर कर देती हैं। पूरी पढ़े बिना ही लौट आना पड़ता है. हम तुरंत यह बयान ज़ारी कर देते हैं, उसमें पठनीयता का संकट है. मजा नहीं आया. कुछ खास नहीं है. पढ़ा ही नहीं पाई अपने आपको. दरअसल, बात कुछ और होती है। हमारे भीतर पात्रता ही नहीं होती उन किताबों के भीतर पहुंच पाने की. किताबों का अपना एक संसार होता है, शिल्प होता है, विचार होता है वहां तक पहुंचने की पात्रता तो ग्रहण करनी ही पड़ेगी ना? मुझे याद है जब मैंने पहली बार अन्ना कैरेनिना पढ़ी थी. खूब तारीफ सुनी थी अन्ना की. एक हड़बड़ी सी थी जल्दी से पढऩे की. अन्ना ने मुझे पात्रता नहीं दी. मैं पढ़ तो गई पूरी लेकिन काफी मशक्कत के साथ. बार-बार वो मुझसे दूर जाती और मैं उसे खींचकर आंखों के सामने ले आती. कई बरस बाद फिर से जब अन्ना को उठाया तो इस बार किसी कल-कल की ध्वनि के साथ वह उतरती ही चली गई भीतर कहीं। मुझे कारण समझ में आ चुका था. किताबें भी सुपात्र ढूंढती हैं. ऐसा नहीं कि आयेगा कोई भी उठा लेगा और पढ़ ही लेगा. अगर पढ़ लिया भी तो क्या पूरा ग्रहण कर पायेगा. सचमुच हमें पढऩे के लिए सुपात्र बनना ही होगा और इसके लिए फिर किताबों के पास ही जाना पड़ेगा. एक लंबी प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही हम सुपात्र हो पाते हैं. अगर हम सुपात्र हैं तो किताबें दोनों बाहें पसारकर हमारा स्वागत करती हैं और हमें अपना लेती हैं. वरना हम दरवाजा खटखटाते हैं, बार-बार जबरन अंदर प्रवेश करने की कोशिश करते हैं और एक अनमनी सी नाकामी के साथ लौट आते हैं. कई बार किताबें खुद चलकर भी हमारे पास आती हैं. बुक शेल्फ से हमारी ओर देखती हैं एक आवाज सी आती है, आओ हमें उठाओ, पढ़ो. हम उन्हें उठा लेते हैं. फिर से उसके सुख में जीने लगते हैं.
नोट: हर छपी हुई चीज किताब (रचना) नहीं होती.
13 comments:
Thats really profound. Reading as a habit 'grows'.
किताबों पर आधारित लेख अनुपम है।
प्रतिभाजी, किताबें दूर ही नहीं फेंकती, वे हमारी हत्या भी कर सकती हैं। उनके हाथों से रोशनी और ओस ही नहीं झरते, वे खून से भी रंगे होते हैं। किताबों में सपने ही नहीं छिपे होते, चाकू भी छिपे होते हैं। किसी गहरे अंधेरे में वे किताबें ये चाकू हमारे हाथों में धर देती हैं। हमें नहीं पता होता कि वे चाकू हमारे हाथों से निकलकर किसी की पीठ में घूंपे हुए हैं...........
वे हमारे हाथ भी खून से रंग सकती हैं।
किताबों के साथ फ्रिक्वेंसी मैच होना बहुत जरूरी है... वर्ना अंतिम पेज तक पहुचना आसान नहीं.
वाह ! बिल्कुल दिल की बात कही आपने। बहुत सी किताबों को हम तब हाथ लगाते हैं जब उसके योग्य नहीं होते। बाद में वही किताबें मन पर गहरा असर डालती हैं। चलते चलते किताबों के बारे में गुलज़ार की ये पंक्तियाँ जो मुझे बेहद प्रिय हैं बाटना चाहूँगा...
किताबों से कभी गुजरो तो यूँ किरदार मिलते हैं
गये वक्तों की ड्योढ़ी पर खड़े कुछ यार मिलते हैं
जिसे हम दिल का वीराना समझ छोड़ आए थे
वहीं उजड़े हुए शहरों के कुछ आसार मिलते हैं
मैंने भी वन नाइट एट कॉल सेंटर के बारे में बहुत कुछ सुना, लेकिन जब पढ़ने के लिए वो किताब खरीदी तो आज तक आधी ही पढ़ पाया हूं, जबकि एक अन्य पुस्तक मैंने पढ़ ली.. सही बात आप ने कही, किताबें दूर फेंकती हैं, मुझे किताबें खरीदने का शौक बहुत है, पर जब पढ़ने जाता हूं तो वो मुझे दूर फेंकती हैं..अब तक केवल दो पुस्तक पढ़ने में कामयाब हुआ हूं, एक तो एक एक कदम, पत्रकार दी मौत
आपकी पोस्ट पर क्या टिप्पणी करूँ ? किताबों के बिना यह दुनिया ..
सफ़दर हाशमी की कविता याद आ गई-
किताबें करती हैं बातें
बीते ज़मानों की
दुनिया की, इंसानों की
आज की, कल की
एक-एक पल की
ख़ुशियों की, ग़मों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की
क्या तुम नहीं सुनोगे
इन किताबों की बातें ?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं
किताबों में चिड़िया चहचहाती हैं
किताबों में खेतियॉं लहलहाती हैं
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं
परियों के किस्से सुनाते हैं
किताबों में राकेट का राज़ है
किताबों में साइंस की आवाज़ है
किताबों में कितना बड़ा संसार है
किताबों में ज्ञान की भरमार है
क्या तुम इस संसार में
नहीं जाना चाहोगे
किताबें कुछ कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं
प्रतिभा जी
बिलकुल सही कहाँ आपने
अभी राही मासूम रजा जी का उपन्यास "आधा गाँव" पढ़ रहा था फिर छोड़ दिया और खुद को समझाया की कथा वास्तु बहुत पुराणी थी मगर आज आपकी पोस्ट पढ़ कर मेरा विचार बदल गया
वीनस केसरी
सिद्धेश्वर का आभार
सफ़दर हाशमी की खूबसूरत कविता को टिपण्णी के रूप में फिर से पढ़वा देने के लिए
sahi baat
किताबें तो सागर हैं प्रतिभा जी और एक लोटे की पात्रता सागर नहीं समेट सकती ! सही कहा है आपने कि किताबें पात्रता खोजती हैं या यूँ कहिये कि हम अपनी पात्रतानुसार ही किताबें खोजते हैं ! बहुत सार्थक पोस्ट है आपकी !
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