पता नहीं
वह उस जगह को याद भी करती हो
या...नहीं
जहाँ बैठ हम दोनों ने
प्रेम की ऊष्मा से
घास की हरियाली पर
सपनों का बुना था कुंकुनापन
हाथों में थाम हाथ
आत्मा को जागते हुए
कहा था एक दूजे के लिए
छुओ....
जागो....
और, भीग जाओ.....
वे सुख के पल
क्या उसे अभी भी
याद हैं?
यह मैं नहीं जनता
यद्यपि आज भी आती पड़ी हैं
मेरी कवितायें
उन भीगे पलों से
संचित करने जिनको
मैं जगा हूँ
न जाने कितनी रातें।
krishn कान्त निलोसे की कविता
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