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प्रतीचा के अनन्त में
मैं...वो.... और समय
बतियाना चाहते हैं
देर तक
इन दिनों...
वह है कहाँ?
कौन है उसके साथ?
मैं नहीं जानता
मैंने देखा भी नहीं है
उसे बरसों से
मैं निढाल
प्रतीचा की ढलती उदासी में
व्योम के वातायन से
तलाशता रहता हूँ
उसका नाम
ब्रहमांड के विस्तार में
आख़िर praticha के अनंत का
कभी तो मिलेगा ओर-छोर
तब....मैं....वो और समय
बतियाएंगे साथ-साथ
काल का अतिक्रमण करते हुए
खामोशी में एक नई रचना रचाते हुए
जैसे बसंत रचता है
पलाश के साथ
अपनी वासंती भाषा में...
1 comment:
उम्दा रचना, बधाई.
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