Wednesday, January 4, 2012

मुझे मेरे शब्दों में मत ढूंढना



मुझे मेरे शब्दों में मत ढूंढना
न ढूंढना मेरे शब्दों को उनके अर्थ में
मत ढूंढना मुझे विन्यास में
न कला की लंबी यात्राओं में
न किताबों में दर्ज इबारतों में.

मुझे मेरे होने में मत ढूंढना
मत ढूंढना मेरे नाम में
न ही मेरे चेहरे में
न कविताओं में, न कहानियों में
न रूदन में, न खिलखिलाहटों में

मत ढूंढना मुझे इतिहास की पगडंडियों में
न ख्याल में, न बंदिश में, न ध्रुपद में
न ढूंढना मुझे आग में, न पानी में
न किसी किस्सा-ए-राजा रानी में,

मुझे ढूंढना तलाशना होगा खुद को
छूना होगा अपनी ही रूह को
मांजना होगा अपना ही व्यक्तित्व,
बेदम होती आशाओं पर
रखना होगा उम्मीद का मरहम
उगानी होगी खिलखिलाहटों की फसल ,

तमाम वाद, विवाद से परे
लिखे-पढ़े से बहुत दूर
कहे सुने को छोड़कर किसी निर्जन स्थल पर
किसी रोज मुझे ढूंढना अपने ही भीतर
मुझे मेरे शब्दों में मत ढूंढना...

13 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

शब्द हृदय में जब उतरेंगे,
लोग हृदय अपना पढ़ लेंगे।

Swapnrang said...

आजकल जाँ लेने पे लगी हो .एक के बाद एक अद्भुत रचना कितनी प्रशंसा की जाय.यह भी सुन्दर है.तुमको हर कोई अपने भीतर नहीं तलाश सकता इतनी सामान्य तो नहीं हो.........

M VERMA said...

कहे सुने को छोड़कर किसी निर्जन स्थल पर
किसी रोज मुझे ढूंढना अपने ही भीतर
अद्भुत और अत्यंत भावमय रचना ...

Vandana Singh said...

just awwwwsome !!!!!

सदा said...

बेहतरीन भाव संयोजन शब्‍दों का ...

आनंद said...

मुझे ढूंढना तलाशना होगा खुद को
छूना होगा अपनी ही रूह को
मांजना होगा अपना ही व्यक्तित्व,
बेदम होती आशाओं पर
रखना होगा उम्मीद का मरहम
उगानी होगी खिलखिलाहटों की फसल ,

तमाम वाद, विवाद से परे
लिखे-पढ़े से बहुत दूर
कहे सुने को छोड़कर किसी निर्जन स्थल पर
किसी रोज मुझे ढूंढना अपने ही भीतर
मुझे मेरे शब्दों में मत ढूंढना...
.....
आप यकीं करेंगी ही नहीं प्रतिभा जी कि ये सारे शब्द मैं सुन चुका हूँ ....
हुबहू वही ...जब भी उन शब्दों कि गूँज मंद पड़ने लगती है ...पता नहीं कहाँ से कैसे वो फिर मुझसे कह दिए जाते हैंऔर ऐसा एक बार नहीं अनेक बार होता है मेरे साथ !
आपको पढ़ना मेरा शौक भी है और मेरी मज़बूरी भी ! :)
आज क्षमा करना मुझे !

Pratibha Katiyar said...

आनंद जी, आप मेरे लिखे को इतने प्रेम से पढ़ते हैं तो ये सब आपका ही है...मेरा इसमें कुछ भी नहीं. मै बस माध्यम हूँ...

***Punam*** said...

लिखे-पढ़े से बहुत दूर
कहे सुने को छोड़कर किसी निर्जन स्थल पर
किसी रोज मुझे ढूंढना अपने ही भीतर
मुझे मेरे शब्दों में मत ढूंढना...!

और तुम मुझे इस तरह पा सकते हो....
बेहद खूबसूरत...

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

behad sundar rachna... Umda...

Unknown said...

क्या बात है प्रतिभा जी , यूँ ही नहीं आपका ब्लॉग मेरे ब्लॉग पर बड़े अच्छे के युग्म में है . आपकी रचना में आपको क्यों पढेंगे ? सब रचनाओं में हम खुद को ढूंढते हैं . किसी ने समझाया था यह संसार माया है और सिर्फ हमारे सचेतन का सम्प्रेषण है. फिर शब्द भी तो हमारे ही चेतन / अवचेतन का सम्प्रेषण हुए . तो सम्प्रेषण में क्या मिलेगा. जैसे सिनेमा का सादा पर्दा. खुद में ढूँढना पड़ेगा

Pratibha Katiyar said...

@ Atul praksh- मेरी आड़ी टेढ़ी लकीरों को कविता या कहानी कहने वालों की शुक्रगुजार हूँ. असल में ये दिल की हरारत से मुक्ति पाने का उपाय भर हैं...

बाबुषा said...

इन्हें इनके शब्दों में मत ढूंढना दुनिया वालों ..इन्हें ढूंढना बाबू के आस पास .... :-) :-)

Pratibha Katiyar said...

@ Baabu- :)