Friday, December 31, 2010

रात में वर्षा- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

मेरी साँसों पर मेघ उतरने लगे हैं,
आकाश पलकों पर झुक आया है,
क्षितिज मेरी भुजाओं में टकराता है,
आज रात वर्षा होगी।
कहाँ हो तुम?

मैंने शीशे का एक बहुत बड़ा एक्वेरियम
बादलों के ऊपर आकाश में बनाया है,
जिसमें रंग-बिरंगी असंख्य मछलियाँ डाल दी हैं,
सारा सागर भर दिया है।
आज रात वह एक्वेरियम टूटेगा-
बौछारे की एक-एक बूँद के साथ
रंगीन मछलियाँ गिरेंगी।
कहाँ हो तुम?

मैं तुम्हें बूँदों पर उड़ती
धारों पर चढ़ती-उतरती
झकोरों में दौड़ती, हाँफती,
उन असंख्य रंगीन मछलियों को
दिखाना चाहता हूँ
जिन्हें मैंने अपने रोम-रोम की पुलक
 से आकार दिया है।

Thursday, December 30, 2010

कितना अच्छा होता है- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

एक-दूसरे को बिना जाने
पास-पास होना
और उस संगीत को सुनना
जो धमनियों में बजता है,
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं ।
शब्दों की खोज शुरु होते ही
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं
और उनके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से
मछली की तरह फिसल जाते हैं ।
हर जानकारी में बहुत गहरे
ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है,
कुछ भी ठीक से जान लेना
खुद से दुश्मनी ठान लेना है ।
कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना,
और अपने ही भीतर
दूसरे को पा लेना ।


हम जीते जी मसरूफ़ रहे...

दाल धोकर कुकर में चढ़ा ही रही थी कि फोन की रिंगटोन बज उठी... फोन उठाया तो उधर से शहरयार जी की आवा$ज थी. तुम्हें कभी फुर्सत नहीं मिलेगी? आवाज में वही पुराना उलाहना और मेरी खुद से मुंह चुराती मेरी आवाज. दो मिनट का वक्त है तुम्हारे पास? उनकी आवाज से नाराजगी छलक रही थी. मैंने कुकर का ढक्कन लगाया, गैस धीमी की और फोन पर ध्यान लगाया. जी बताइये, मैं नज्म पढ़ रहा था फैज की. क्या तो कमाल का शायर था. तुमने पहले भी सुनी होगी लेकिन फिर से सुनो इसे- 

वो लोग बहुत ख़ुश$िकस्मत थे
जो इश्$क को काम समझते थे
या काम से आशि$की करते थे
हम जीते जी मसरूफ़ रहे
कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया.

काम इश्क़ के आड़े आता रहा
और इश्क़ से काम उलझता रहा
फिर आखिऱ तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया...

मैंने कहा, इसे सुना तो पहले भी कई बार था लेकिन आपकी आवाज और अंदाज में सुनना अच्छा लगा. वो बोले, मैं तो बहुत बुरा पढ़ता हूं. उतना ही बुरा जितना बुरा फैज पढ़ते थे. एक बार किसी ने फैज से कहा था कि काश आप जितना अच्छा लिखते हैं, उतना अच्छा पढ़ते भी. तो फैज ने जवाब दिया, सब काम हम ही करें क्या? अच्छा लिखें भी हम, अच्छा पढ़ें भी हम? सब लोग हंस दिये. मैं भी फैज का यही तर्क लोगों को देता हूं.

दो शायरों की स्मृतियां दो मिनट की छोटी सी कॉल में सिमट आई थीं. शहरयार की जानिब से फैज साहब की ये नज्म एक बार फिर सबके हवाले....

Wednesday, December 29, 2010

जाने कितने बिनायक सेन और चाहिए

हमें फख्र है
तुम्हारे चुनाव पर साथी
कि तुमने चुनी
ऊबड़-खाबड़
पथरीली राह.

हमें खुशी है कि
तुमने नहीं मानी हार
और किया वही,
जो जरूरी था
किया जाना.

तुम्हें सजा देने के बहाने
एक बार फिर
बेनकाब हुई
न्याय व्यवस्था.
जागी एक उम्मीद कि
शायद इस बार
जाग ही जाएं
सोती हुई कौमें.

तुम्हें दु:ख नहीं है सजा का
जानते हैं हम,
तुमने तो जान बूझकर
चुना था यही जीवन.
दु:ख हमें भी नहीं है
क्योंकि जानते हैं हम भी
सच बोलने का
क्या होता रहा है अंजाम
सुकरात और ईसा के जमाने से.

हमें तो आती है शर्म
कि लोकतंत्र में
जहां जनता ही है असल ताकत
जनता ही कितनी बेपरवाह है
इस सबसे.

न जाने कितने बलिदान
मांगती है जनता
एकजुट होने के लिए,
एक स्वर में
निरंकुश सत्ता के खिलाफ
बिगुल बजाने के लिए,
खोलने के लिए मोर्चा
न जाने कितने बिनायक सेन
अभी और चाहिए.

Monday, December 20, 2010

सर्द रातें, आलू-गोभा की सब्जी और प्रेम की छुअन

न जाने कब, कितनी बार प्रेम हमारे जीवन से टकराता रहता है. प्रेम का यूं हमसे टकराना हमारे जीवन को प्रेम से भरे या न भरे लेकिन जीवन के मरुस्थल में रूमानियत की कुछ नमी तो छोड़ ही जाता है. सारंगा तेरी याद में नैन हुए बेचैन...बांचते हुए न जाने कितनी बार रोएं खड़े हुए. गुनाहों का देवता पढ़ते हुए रात का कलेजा चीर देने वाली सिसकियों को रोकने की मुश्किल से गुजरते हुए, चार दिनों दा प्यार ओ रब्बा बड़ी लंबी जुदाई...सुनते हुए अपनी कोरों पर कुछ चलते हुए महसूस करते हुए न जाने कितनी बार प्यार हमें छूकर गुजरता रहा.
प्रेम कहानियों का पिटारा खोलें तो भरभरा कर ढेर सारी कहानियां उपस्थित हो जाती हैं. कविताओं का सुंदर बागीचा उग आता है आसपास. खूब-खूब प्रेम से लबरेज कहानियां, कविताएं. आज एक कहानी के बहाने एक बचपन का एक टुकड़ा याद आ गया. बचपन के इस टुकड़े में एक कहानी है और हैं मेरे नाना जी. यह कहानी मेरी स्मृतियों के सिवाय कहीं दर्ज नहीं है. यह मेरे जीवन की पहली प्रेम कहानी है. इसे मुझे तक पहुंचाने वाले मेरे नाना जी थे. जिन्हें हम प्यार से नन्ना कहते थे. सर्द रात में अलाव के पास बैठकर सुनी गई जिन कहानियों का स्वाद अब तक जबान पर है उनमें से एक है यह कहानी.

यह एक राजकुमारी की कहानी थी. राजकुमारी का नाम याद नहीं. कहानी का भी नहीं. इसमें एक राजकुमारी को गरीब लड़के से प्रेम हो जाता है. राजा राजकुमारी को कैद कर देता है. उस गरीब लड़के को मरवाने का हुकुम देता है. फिर किस तरह राजकुमारी अपने प्रेमी को बचाने के लिए लाख जतन करती है. जंगलों की खाक छानती है, जादुई शक्तियां हासिल करती है और अपने प्रेमी को बचाती है... कहानी काफी लंबी थी. उसने कितने पहाड़ लांघे, कितने समंदर के भीतर की यात्राएं कीं. कितने राक्षसों का सामना किया. कैसे जादुई शक्तियां अर्जित कीं, यह सब सचमुच काफी रोचक होता था. नाना जी कहानी इस तरह सुनाते थे मानो हम कहानी सुन नहीं रहे, देख रहे हों. जैसे ही अचानक बड़ा सा राक्षस राजकुमारी के सामने आता, हम सब घबरा जाते. सुंदर राजकुमारी जब लाल रंग के लिबास में बागीचे में रो-रोकर अपने गरीब प्रेमी को याद करती तो हम भी उदास हो जाते. और जब जालिम पिता उसे कैद में डलवा देता तो हमारे भीतर एक आक्रोश जन्म लेता राजा के खिलाफ.

यह उनकी किस्सागोई का निराला अंदाज था. सब हू-ब-हू याद है अब तक. नाना जी के अंदाज-ए-बयां में यह तक शामिल होता था कि लड़के को आलू गोभा (वे ऐसे ही बोलते थे) की सब्जी और नरम-नरम पूडिय़ां बहुत पसंद थीं. जिस तरह वो बताते लगता आलू गोभा की सब्जी और पूरियां दुनिया के सबसे स्वादिष्ट व्यंजन हैं. वे बताते कि राजकुमारी को गोभा की सब्जी एकदम पसंद नहीं थी. लेकिन किस तरह राजकुमारी हर रोज गोभा की सब्जी खाते हुए प्रेम को बूंद-बूंद महसूस करती थी. उस सर्द रात में, छोटी सी उमर में प्यार क्या होता है, यह तो समझ में नहीं आया था लेकिन प्यार के लिए मन में सम्मान बहुत महसूस हुआ. उसका असर यह हुआ कि तबसे जब भी गोभी की सब्जी खाती हूं, उस राजकुमारी की याद आ जाती है.

हमारा संसार किस्सों और कहानियों का संसार है. हर किसी के पास हजारों किस्से हैं और उन्हें कहने के एक से एक निराले अंदाज. आंचलिकता के हिसाब से कहानियों के कहन-सुनन का ढंग तो बदला लेकिन मिजाज नहीं. दुनिया भर की न जाने कितनी प्रेम कहानियों को पढ़ते हुए न जाने कितनी बार प्रेम को अपनी देह पर रेंगते हुए महसूस किया. आज जब स्मृतियों की गठरी को जरा सा खोला तो नाना जी की याद के साथ यह कहानी भी निकल आई. एक सुंदर कहानी. एक सुंदर याद!

Sunday, December 5, 2010

एक रोज

एक रोज
मैं पढ़ रही होऊंगी
कोई कविता
ठीक उसी वक्त
कहीं से कोई शब्द
शायद कविता से लेकर उधार
मेरे जूड़े में सजा दोगे तुम.
एक रोज
मैं लिख रही होऊंगी डायरी
तभी पीले पड़ चुके डायरी के पुराने पन्नों में
मेरा मन बांधकर
उड़ा ले जाओगे
दूर गगन की छांव में.
एक रोज
जब कोई आंसू आंखों में आकार
ले रहा होगा ठीक उसी वक्त
अपने स्पर्श की छुअन से
उसे मोती बना दोगे तुम.
एक रोज
पगडंडियों पर चलते हुए
जब लड़खड़ायेंगे कदम
तो सिर्फ अपनी मुस्कुराहट से
थाम लोगे तुम.
एक रोज
संगीत की मंद लहरियों को
बीच में बाधित कर
तुम बना लोगे रास्ता
मुझ तक आने का.
एक रोज
जब मैं बंद कर रही होऊंगी पलकें
हमेशा के लिए
तब न जाने कैसे
खोल दोगे जिंदगी के सारे रास्ते
हम समझ नहीं पायेंगे फिर भी
दुनिया शायद इसे
प्यार का नाम देगी एक रोज....

बदला-बदला सा लखनऊ

आज यूं ही शहर के मुआयने का मन हो आया. गाड़ी निकाली और निकल पड़े लखनऊ भ्रमण पर. अपना ही शहर ऐसे देख रहे थे मानो पहली बार देख रहे हों. मायावती ने शहर की शक्लो-सूरत कुछ इस कदर बदली है कि देखना बनता है. कल बाबा अम्बेडकर का परिनिर्वाण दिवस भी है. (अब तो महापुरुषों का पेटेंट कुछ पार्टियों ने ऐसे करा लिया है कि उनके बारे में बात करना किसी पार्टी के बारे में बात करना सा लगता है.) एक-एक पत्थर, पार्क में लगे एक-एक पौधे की फुनगी को धो-पोंछकर चमकाया जा रहा था. ऐसा लग रहा था कि पहले से सजी संवरी दुल्हन का बार-बार मेकअप ठीक किया जा रहा हो. कुंटलों फूल रखे थे जिनसे शहर को सजाया जाना था. न जाने कितनी लाइट्स. यकीनन आज रात का न$जारा देखने लायक होगा. 
एकाएक ख्याल आया कि ये वही जगह है जो कभी माफियाओं के नाम से जानी जाती है. मैं जियामऊ की बात कर रही हूं. मेरा निवास स्थल. (अम्बेडकर पार्क से जरा सी दूरी पर) रात तो दूर, दिन में भी रिक्शेवाले यहां आने के नाम से कांप उठते थे. न जाने किसका दिमाग सटक जाये, और रिक्शेवाले के मेहनताना मांगने पर उसे टपका दिया जाए. हमारा वहां आकर बसना एक डेयरिंग स्टेप था, जिसकी हमने बड़ी कीमतें भी चुकाईं. खैर, आज यह पॉश इलाका है. सुपर पॉश. पहले से ठीक सड़कों में रोज क्या ठीक होता रहता है, पता ही नहीं चलता. हमेशा सजी-संवरी बिल्डिंगों का कौन सा श्रृंगार होता है हम कभी समझ नहीं पाते. पर इतना पता है कि आप इन सड़कों से निकलिए तो ऐसा मालूम होगा कि कालीन पर चल रहे हों.
समय सचमुच बहुत बदल चुका है. इस बदले हुए समय में लखनऊ का चेहरा भी बदला है. कितने घोटाले, कितना करप्शन, किसका कितना हिस्सा ये किस्सा तो अपनी जगह ठहरा. फिलहाल, लखनऊ चमक रहा है. संगीत नाटक एकेडमी के रूप में एक ऐसा सुंदर ऑडिटोरियम बना कि पुराने रवींद्रालय की यादें धुंधली पडऩे लगीं. लोगों ने भी इन सारे बदलावों का साथ दिया. वे बदलावों को दिल से लगाने के लिए दौड़ पड़े. नदी में डूबते सूरज को देखने, बाइक्स की रेस लगाने, परिवार के साथ वक्त बिताने और कभी-कभी डूबते सूरज की गवाही में अपने इश्क का इ$जहार करने वालों की भीड़ यहां लगातार बढ़ती ही जा रही है. लगता है कि लोग सचमुच जीना चाहते हैं.
कोई मायावती को कितनी भी गालियां दे, कोसे, लानतें भेजे लेकिन जो एक बार इस मायानगरी में प्रवेश करता है शहर की खूबसूरती उसे हिप्नोटाइज करती है. सीमेंट, सरिया और पत्थरों से तैयार बड़ी-बड़ी इमारतों के बीच भी यह शहर खुलकर सांस लेता न$जर आता है. ढेर सारे ओवरब्रिज ट्रैफिक जाम से निपटने को तैयार हैं. लोग दूर-दूर से आते हैं मायानगरी के दर्शन के लिए. अब लोग लखनऊ को सिर्फ भूलभुलैया, सतखंडा पैलेस, रूमी गेट के लिए ही नहीं जानते. पुराने लखनऊ की ऐतिहासिक इमारतों के साथ नये लखनऊ में उगा यह कंक्रीट का जंगल लोगों को लुभा रहा है. ऊंची इमारतें $जरूर हैं लेकिन किसी के हिस्सा का सूरज फिलहाल नहीं खा रही हैं. (नये लखनऊ में) हजरतगंज का भी रंग-रोगन हो रहा है. उसकी रंगत को लौटाए जाने की तैयारी चल रही है. यानी शहर बदल रहा है. साथ ही हम भी बदल रहे हैं. सरकारों का क्या है वे तो हमेशा से बदलती आयी हैं. सोचती हूं कि अगर हर पॉलीटीशियन अपने-अपने क्षेत्र को लेकर प$जेसिव होने लगे तो कितना अच्छा हो ना? इस बहाने ही सही सबके हिस्से में कुछ खुशहाली तो आयेगी. देश का हर कोना चमक तो उठेगा.

Thursday, December 2, 2010

मम्ताज भाई पतंगवाले...

किसी भी नाटक को देखना असल में कई स्तरों पर खुद को देखना भी होता है. कितनी लेयर्स पर कोई व्यक्तित्व खुलता है, समाज खुलता है और बात पूरी होती है. एक बात को कहने के कितने ढंग हो सकते हैं यह देखने का आनंद थियेटर में मिलता है. कथानक, अभिनय, मंचसज्जा, संगीत, नाटक में किये गये अभिनव प्रयोग और दर्शकों से लगातार संवाद बनाये रखना (कि दर्शक पल भर को भी नाटक की लय से छिटककर दूर न हो जायें) ही किसी नाटक की संपूर्ण सफलता का कारण बनते हैं. पिछले दिनों मानव कौल का नाटक मम्ताज भाई पतंगवाले को देखते हुए एक प्रयोगधर्मी, संवेदनशील नाटक देखने का सुख तो मिला ही, साथ ही विश्वास भी पक्का हुआ कि नये लोग सचमुच नया मुहावरा गढ़ रहे हैं. बनी-बनाई लकीरों से अलग लकीरें खींचने, नई पगडंडियों पर चलने के अपने जोखिम भी होते हैं और सुख भी. मानव इन जोखिमों से खेलने में यकीन करते हैं. अच्छी बात यह है कि ज्यादातर मौकों पर वे सफल होते हैं.
मम्ताज भाई दमित इच्छाओं, आकांक्षाओं के बीच से पनपे व्यक्तित्व की कथा है, जो सक्सेस के हाईवे पर फर्राटे से गाड़ी दौड़ाते हुए भी गांव की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों को हर पल याद करता है. मम्ताज भाई और उनकी पतंग व्यक्ति की असीम आकांक्षाओं के प्रतीक हैं जो पूरे आसमान पर उडऩा चाहती हैं. जिन्हें हमेशा पहले से तय पगडंडियों पर चलने के दबाव के चलते नोचकर फेंक दिया जाता है. मानसिक हलचल, अंतद्र्वद्व, स्वगत कथनों को मंच पर जिस खूबी से मानव ने दिखाया वह कमाल है. मंचसज्जा, पग ध्वनि, लाइट एंड साउंड के खूबसूरत उपयोग से यह नाटक जीवंत हो उठा. पोलिश थियेटर के इफेक्ट्स ने नाटक को ताजगी दी.
चुटीले संवादों ने गंभीर विषय को रोचक बना दिया. लगभग हर दूसरे दृश्य पर तालियों की गडग़ड़ाहट या हंसी की फुहार ने कलाकारों की हौसला अफजाई जारी रखी. सभी कलाकारों ने शानदार अभिनय किया. सबसे सुंदर बात रही नाटक का चुस्त संपादन. एक बार फिर मानव का जादू चल ही गया.

Saturday, November 27, 2010

डायरीनुमा कुछ अगड़म बगड़म-2

मुझे कभी-कभी सिस्टमैटिक होने से बड़ी शिकायत होती है. बल्कि यूं कहूं कि एक अजीब सी ऊब होती है. कभी-कभी तो यह ऊब इस कदर बढ़ जाती है कि घबराहट में तब्दील होने लगती है. सजा संवरा घर, हर काम का एक वक्त मुकर्रर, जिंदगी एकदम करीने से. ये भी कोई जीना है.
मैंने हमेशा कल्पना की एक सजे-संवरे सुलझे, साफ-सुथरे घर की. अपनी इस कल्पना को साकार करने के लिए काफी मशक्कत भी की. लेकिन मुझे आकर्षित किया हमेशा बिखरे हुए घरों ने. जहां घर भले ही बिखरे हों पर मन एकदम ठिकाने पर. इन दिनों मैं उसी उलझाव को जी रही हूं. सब कुछ बिखरा हुआ है. संभालने का मन भी नहीं. और बिखेर देने का मन है. किताबों की ओर देखने का दिल नहीं चाहता. आइस पाइस खेलने का दिल चाहता है. इक्कम दुक्कम भी. दुनिया की खबरें जानने का मन नहीं करता, मां के संग गप्पें लड़ाने का मन करता है. तेज आवाज में बेसुरा सा गाने को जी चाहता है. जिंदगी को उलट-पुलट करने को जी चाहता है. सूरज को चांद के भीतर छुपा देने का मन होता है. धरती का घूमना रोक कर चांद को घुमाने का मन करता है. सब उल्टा-पुल्टा. मन भी कितना अजीब होता है.

Monday, November 22, 2010

दुख का होना

दुख जब पसारे बांहें
तो घबराना नहीं,
मुस्कुराना
सोचना कि जीवन ने
बिसारा नहीं तुम्हें,
अपनाया है.
दुख का होना
है जीवन का होना
हमेशा कहता है दुख
कि लड़ो मुझसे,
जीतो मुझे.
वो जगाता है हमारे भीतर
विद्रोह का भाव
सजाता है ढेरों उम्मीदें
कि जब हरा लेंगे दुख को
तो बैठेंगे सुख की छांव तले
दुख हमारे भीतर
हमें टटोलता है
खंगालता है हमारा
समूचा व्यक्तित्व
ढूंढता है हमारे भीतर की
संभावनाएं
दुख कभी नहीं आता
खाली हाथ.
हमेशा लेकर आता है
ढेर सारी उम्मीदों की सौगात
लडऩे का, जूझने का माद्दा
अग्रसर करता है हमें
जीवन की ओर
लगातार हमारे भीतर
भरता है आन्दोलन
दुख कभी खाली हाथ नहीं जाता
हमेशा देकर जाता है
जीत का अहसास
खुशी कि हमने परास्त किया उसे
कि जाना अपने भीतर की
ऊर्जा को
कि हम भी पार कर सकते हैं
अवसाद की गहरी वैतरणी
और गहन काली रात के आकाश पर
उगा सकते हैं
उम्मीद का चांद
दुख का होना
दुखद नहीं है.
सचमुच!
(रिल्के के कथन से प्रभावित. रिल्के कहते हैं कि अवसाद का हमारे जीवन में होना हमारा जीवन में होना है.)

Monday, November 1, 2010

एक मीठी सी झिड़की

लंबे अरसे बाद नीरज जी को फोन किया. गोपालदास नीरज जी. उनसे जब भी मिली हूं मन को अच्छा सा अहसास हुआ है. इधर मैंने उन्हें लंबे अरसे बाद फोन किया. नाम सुनते ही शिकायती लहजा उभरा, मैं लखनऊ आया था तुम मिलीं क्यों नहीं. मेरे पास कोई जवाब नहीं था. एक मौन था. क्या व्यस्तता का रोना रोती, क्या जवाब देती. खैर, एक बुजुर्ग की तरह डांटने के बाद आशीर्वाद की झड़ी लगाते हुए जब उन्होंने कहा, सुखी रहो तो मन सुखी हो गया. दो लाइनें उन्होंने चलते-चलते सुनाईं जो उनके आशीर्वाद की तरह साथ हो लीं-
जिंदगी मैंने बिताई नहीं सभी की तरह
हर एक पल को जिया पूरी एक सदी की तरह...

Friday, October 8, 2010

कुछ डायरीनुमा अगड़म-बगड़म

पिछला लंबा समय घनघोर व्यस्तताओं के हवाले रहा. आगे भी रहने वाला है. एक काम दूसरे में, दूसरा तीसरे में, तीसरा पहले में काम अड़ाते रहे. फिर भी सब आगे बढ़ते रहे. कभी-कभी लगता है कि मैं काम नहीं करती, बहुत सारे काम मिलकर मेरा बोझ उठा रहे हैं. किस तरह मैं आधे-अधूरे काम इधर-उधर बिखरा देती हूं. कहीं कोई अधूरी कविता, कहीं कोई किरदार झांकता सा कहानी के भीतर से, कभी कोई संगीत का टुकड़ा जो कानों को छूकर गुजरता और पूरा सुनने की ख्वाहिश को बढ़ा देता. कोई लेख अभी और रिसर्च मांग रहा है, कोई असाइनमेंट टाइम की मोहलत नहीं देता, कुकर की सीटी, दूधवाले की गुहार, ऑफिस से आया कोई फोन, कॉल वेटिंग पर झुंझलाते कुछ दोस्त और इन सबके बीच एक टुकड़ा नींद. बिखरे हुए घर में गुम हो जाने की तमन्ना यह सब तो रोज की बात हुई.

पिछले दिनों जेहनी उथल-पुथल भी काफी रही. न जाने कितने विमर्श एक-दूसरे से टकराते रहे. मैं इस मामले में खुद को हमेशा सीखने की भूमिका में पाती हूं इसलिए सबको गौर से सुनती हूं. सुनने पर, पढऩे पर या मंथन करने पर इन दिनों जो हासिल हो रहा है वो न जाने क्यों सुखद मालूम नहीं होता. बिना विचार वाली विचारधाराओं का जंगल सा उगा हुआ मालूम होता है. आधी-अधूरी जानकारियों के साथ लोग लाठी भांजने में लगे हैं. उनकी खुद की ही बात उनसे जा टकराती है. पार्टियों के नाम अलग अलग हैं, झंडों के रंग अलग-अलग हैं. जाहिर है एजेंडे भी अलग-अलग हैं. लेकिन न जाने क्यों इन दिनों लग रहा है कि कहीं कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसमें सचमुच समाज के अंतिम आदमी के बारे में ईमानदारी से सोचा जा रहा हो. कहीं न कहीं कोई न कोई दबाव सबको घेरे हुए हैं. दबाव के आकार प्रकार पर बात नहीं करनी. बात करनी है विचारधाराओं के अस्तित्व पर.

आज की तारीख में क्या कोई भी विचारधारा आम आदमी के करीब है. विचारधाराओं के प्रणेताओं को उनकी ही विचारधाराएं जकड़े हुए हैं. क्या विचारधाराएं हमें संकुचित करने के लिए गढ़ी जाती हैं. अपने जीवन में पहले विचारक के रूप में मैंने कार्ल माक्र्स को ही जाना, समझा. उन्हें पढ़ते हुए तो ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ. कितनी बड़ी दुनिया का स्वप्न था उनकी आंखों में, कितनी खुली हुई दुनिया का स्वप्न. एक दिन मैंने सपने में देखा कि कार्ल माक्र्स लौटे हैं इस दुनिया में. बेहद उदास से बैठे हैं. वही उनकी खिचड़ी दाढ़ी, चेहरे पर तेज, बड़ी-बड़ी आंखें और चौड़ा माथा. उनका व्यक्तित्व सम्मोहित करता है. शायद इसलिए भी कि पहले विचारक के रूप में जेहन में पैबस्त हुए कार्ल माक्र्स को कोई भी रिप्लेस नहीं कर सका. अब तक नहीं. लेकिन आज माक्र्सवाद का जो चेहरा न$जर आ रहा है, माक्र्सवादियों का जो चेहरा नजऱ आ रहा है वो तो कुछ और ही है. माक्र्स उदास थे. मैंने सोचा इनका मूड कुछ ठीक हो तो पूछूं कि ये सब क्या हो रहा है? आप कुछ करते क्यों नहीं? लेकिन उनकी उदासी तो बढ़ती ही जा रही थी. उन्होंने कहा, आजकल जो माक्र्सवाद का चेहरा है उसे देखकर मैं खुद माक्र्सवादी होने से इनकार करता हूं.

 मैं खामोश रही. मेरा सपना तो टूट गया था लेकिन माक्र्स का सपना लगातार टूट रहा है. विध्वंस हो रहा है उनकी वैचारिकी का. उन्हीं का क्यों बाकी विचारधाराओं के भी खंडित चेहरे सामने हैं. ऐसे में खंडित समाज के अलावा और क्या न$जर आयेगा भला. बहरहाल, दिमाग में तो न जाने क्या अगड़म-बगड़म चलता ही रहता है. दरवाजे पर कोई है शायद, ओह, फोन पर भी....रुकना पड़ेगा जी अब तो...

Sunday, September 19, 2010

मुख्तसर सी बात है...

कुछ चीजों से कितना भी पीछा छुड़ाओ, वे बाज नहीं आतीं. हरगिज नहीं. इन दिनों मौसम भी ऐसी ही हेठी पर उतर आया है. वक्त अपनी हेठी पर है कोई मौका नहीं देता, मौसम के करीब जाने का. और मौसम अपनी हेठी पर कि पास आने से बाज आने को तैयार ही नहीं. निकलती हूं घर से तो किसी नये-नये से प्रेमी की तरह मुस्कुराता सा बाहर खड़ा रहता है. बरबस, मन मुस्कुरा उठता है. खुद को उसके हवाले करने के सिवा कोई चारा भी तो नहीं. घर से दफ्तर के रास्तों में ही अक्सर मौसम से मुलाकात होती है. कितनी ही बार दिल चाहा है कि काश, रास्ते थोड़े और लंबे हो जाते. इन्हीं रास्तों में मन के भी कितने मौसम खुले पड़े हैं. इन्हीं रास्तों में  अक्सर अपने जीवन के सही सुरों की तलाश की. मन कैसा भी हो, किसी को उसके बारे में पता हो या न पता हो, इन रास्तों को सब पता है. कितने आंसू, कितनी बेचैनियां, कितना गुस्सा, ख्वाब कितने, ख्याल कितने, बेवजह की मुस्कुराहटें कितनी सब राज पता है इन रास्तों को. इन दिनों मेरे रास्तों में मौसम बिछा मिलता है. भीगा-भीगा सा मौसम. मैं कहती हूं, जल्दी में हूं, बाद में मिलती हूं तुमसे. ये मानता ही नहीं. हेठी पर उतर आता है. कभी झीनी फुहार बनकर झरने लगता है, तो कभी ठंडी हवाएं भीतर तक समाती चली जाती हैं. धुला-धुला सा जहां, धुली-धुली सी सड़कें, खिले-खिले से चेहरे. सोचती हूं कितने दिन हुए खुद से मिले हुए. कितने दिन हुए अपनी दुनिया में आए हुए. कितने दिनों से खुद को खुद से बचा रही हूं,आसपास के मौसम से बचा रही हूं. लेकिन कुछ चीजों पर सचमुच कोई अख्तियार नहीं होता. आज बेहद खूबसूरत भीगे-भीगे से मौसम में खुद को नहाया हुआ पाती हूं तो सोचती हूं कितना अच्छा है कि कुछ चीजों पर अख्तियार नहीं होता...

Saturday, September 18, 2010

रहेगा साथ तेरा प्यार ज़िन्दगी बनकर


वो दिल ही क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे
मैं तुझको भूल के ज़िंदा रहूँ ख़ुदा न करे

रहेगा साथ तेरा प्यार ज़िन्दगी बनकर
ये और बात मेरी ज़िन्दगी वफ़ा न करे

ये ठीक है नहीं मरता कोई जुदाई में
ख़ुदा किसी से किसी को मगर जुदा न करे

सुना है उसको मोहब्बत दुआयें देती है
जो दिल पे चोट तो खाये मगर गिला न करे

ज़माना देख चुका है परख चुका है उसे
"क़तील" जान से जाये पर इल्तजा न करे.

- क़तील शिफ़ाई

Wednesday, September 15, 2010

कुदरत का ऐलान

तुम्हें कौन सा मौसम पसंद है. लड़के ने पूछा? लड़की मुस्कुराई.
शरद. उसने कहा.
तुम्हें कौन सा फूल पसंद है?
गुलाब. लड़की ने कहा.
तुम्हें चिडिय़ा कौन सी पसंद है?
गौरेया.
प्रकृति में सबसे सुंदर तुम्हें क्या लगता है?
सूरज. लड़की ने मुस्कुरा कर कहा.
लड़की की आंखों में चमत्कार गई थी. उसकी आंखों में सूरज उग आया. उसने
अपनी हथेलियों को कटोरी की तरह बना लिया. उस कटोरी में उसने धूप भरने की कोशिश की. एक अंजुरी धूप, जिसमें वह नहा लेना चाहती थी. उसने अपने हथेलियों में भरी धूप को अपने सर पर उड़ेल लिया. लड़की ने शरारत से
पलकें झपकायीं तो लड़का हंस दिया.
उसे लड़की का यह रूप बहुत पसंद है. ऐसे समय में लड़की अपने भीतर होती है.
उसका संपूर्ण सौंदर्य छलक रहा होता है. भीतर का सौंदर्य बाहर के सौंदर्य से
होड़ लेता है. और दोनों मिलकर सारे जहां की खूबसूरती पर भारी पड़ते हैं.
लड़के के पास हमेशा सवालों का पूरा बीहड़ होता है. हमेशा. लड़की को उस बीहड़ से गुजरना कभी बुरा नहीं लगता. लड़का जवाबों से ज्यादा तल्लीन अपने सवालों में था. वो लड़की के बारे में सब कुछ जान लेना चाहता था. उसे पता था कि किसी को चाहने के लिए उसके बारे में सब कुछ जान लेना अच्छा उपाय है. यह जानना किस तरह का हो यह उसे पता नहीं था. यूं उसे लड़की से बात करना ही
बहुत पसंद था. सो उनकी मुलाकातों में अक्सर सवालों के ऐसे ही गुच्छे उगते थे.
जवाबों के भी. लड़की को लगता कि कोई अंताक्षरी चल रही है. अगर लड़का कभी सवाल न पूछे तो लड़की उदास हो जाती थी. उसे लड़के के सवालों में आनन्द आता था. इसी बहाने वो खुद को भी जान पाती थी. कई सवालों का जवाब देते हुए उसे पहली बार अपने ही बारे में पता चला. जैसे उसके जीवन की सबसे बड़ी ख्वाहिश क्या है? जिस रोज लड़के ने पूछा था यह सवाल लड़की उलझ सी गई थी. लड़का इस उम्मीद से था कि वो उसका नाम लेगी. लेकिन लड़की चुप रही. उसने इस बारे में कभी सोचा ही नहीं. उसकी ख्वाहिशें छोटी-छोटी होती थीं. तितली पकडऩा, फूलों से बातें करना, मां के गले से लिपट जाना, पापा की पसंद का खाना बनाना. जीवन की ख़्वाहिश? ऐसा तो कभी सोचा ही नहीं था उसने. कितने दिनों तक वो इस सवाल में उलझी रही थी.
ऐसे ही सवालों का चक्रव्यूह रचते हुए एक बार लड़के ने पूछा रंग कौन सा पसंद है तुम्हें?
लड़की खामोश रही.
लड़के ने फिर पूछा. तुमने बताया नहीं. तुम्हें कौन सा रंग पसंद है.
लड़की का चेहरा लाल हो उठा. सुर्ख गुलाब की तरह. उसकी आंखों के आगे न जाने कितने गुलाब खिल उठे, न जाने कितने गुलमोहर, न जाने कितने पलाश. लड़की का चेहरे पर ढेर सारे रंग आये-गये. लेकिन लाल रंग स्थायी रूप से टिक गया.
लड़की ने शरमाते हुए कहा धीरे से कहा- लाल.
अचानक लड़की घबरा उठी, नहीं-नहीं लाल नहीं.
नहीं...नहीं लाल तो बिल्कुल नहीं.
सूरज भी नहीं. शरद भी नहीं, लाल गुलाब भी नहीं. कुछ भी नहीं. लाल नहीं. नहीं,
नहीं, नहीं...
लड़की के चेहरे पर अचानक घबराहट तारी हो गई थी. उसकी आवाज कांपने लगी. उसे न$जर आने लगीं लाल खून में सनी लाशें, बिलखते बच्चे. लाल जोड़े में सजी दु:खी, आंसू बहाती औरतें, जिन्हें अर्थी में ही उस घर से निकलने की ताकीदें मिल रही थीं. उसे ध्यान आया
कि राजा ने लाल रंग के खिलाफ तो फरमान जारी किया है. जिसे पसंद होगा लाल रंग वो राजा का दुश्मन होगा. लड़की फरमान से डर गयी थी. उसने घबराते हुए कहा, लाल रंग नहीं. लाल ओढऩी भी नहीं, लाल सिंदूर भी नहीं, लाल बिंदी भी नहीं.
लड़का समझ नहीं पा रहा था कि लड़की को क्या हुआ अचानक. अच्छी खासी तो खिलखिला रही थी. अब इस कदर परेशान हो रही है. आखिर लाल रंग पसंद करने में बुराई क्या है. इतना डरने की क्या बात है. लड़के ने उसे बहुत संभालना चाहा लेकिन वह बहुत घबराई हुई थी. लाल नहीं...लाल नहीं...कहते हुए वह भाग गई
वहां से.
लड़का समझ गया. उदास हो गया. उसके बस में भी तो नहीं था, लड़की के मन से डर को निकाल फेंकना. वह लौट गया अपने घर. उसकी कोरें गीली हो उठीं. उसने गलत सवाल किया ही क्यों? उसे अपने ऊपर गुस्सा आ रहा था.
अगले दिन लड़के की आंख खुली तो उसके घर के सामने लगा गुलमोहर लाल फूलों से लदा हुआ था. जमीन पर भी इतने फूल गिरे थे कि धरती पूरी लाल हो गयी थी. उगते हुए सूरज का रंग भी लाल ही था. लड़का हैरान था. आखिर माजरा क्या है, वो समझ नहीं पा रहा था. वो घर से बाहर निकला तो उसे महसूस हुआ कि सारा शहर लाल रंग के फूलों से पट गया है. उसे एक कोने से ढेर सारी दुल्हनों का झुंड आता दिखा. उनकी आंखों में संकोच के लाल रंग की जगह आत्मविश्वास के
तेज की लाली थी. उसे लगा कुदरत ने किसी जंग का ऐलान कर दिया है. लड़का मुस्कुरा उठा. तभी उसने देखा सामने से लड़की मुस्कुराती हुई तेज कदमों से चलते हुए आ रही है उसके पास. उसने लाल रंग की ओढऩी पहनी हुई थी. लाल बिंदिया भी थी उसके माथे पर. मानो उसने पूरा सूरज उगा लिया हो. लड़का उसे खुश देखकर बहुत खुश हुआ. लड़की ने उसके करीब आकर कहा, मुझे पसंद है रंग लाल. सुना तुमने लाल. यह कहने में अब मुझे किसी का डर नहीं.
अगले दिन अखबारों में खबर थी कि जाने कौन सा हुआ चमत्कार बीती रात कि गल गई जेलों की सलाखें सारी. राजा का फरमान कहीं कोने में दुबका पड़ा था.
सपना ही सही लेकिन आंख खुलने पर लड़की अपने इस सपने को लेकर बड़ी खुश थी.

Monday, September 6, 2010

सुख हमेशा चेतना से बाहर रहता है


हर पुस्तक अपने ही जीवन से एक चोरी की घटना है. जितना अधिक पढ़ोगे उतनी ही कम होगी स्वयं जीने की इच्छा और सामर्थ्य है. यह बात भयानक है. पुस्तकें एक तरह की मृत्यु होती हैं. जो बहुत पढ़ चुका है, वह सुखी नहीं रह सकता. क्योंकि सुख हमेशा चेतना से बाहर रहता है, सुख केवल अज्ञानता है. मैं अकेली खो जाती हूं, केवल पुस्तकों में, पुस्तकों पर...लोगों की अपेक्षा पुस्तकों से बहुत कुछ मिला है. मैं विचारों में सब कुछ अनुभव कर चुकी हूं, सब कुछ ले चुकी हूं. मेरी कल्पना हमेशा आगे-आगे चलती है. मैं अनखिले फूलों को खिला देख सकती हूं. मैं भद्दे तरीके से सुकुमार वस्तुओं से पेश आती हूं और ऐसा मैं अपनी इच्छा से नहीं करती, किये बिना रह भी नहीं सकती. इसका अर्थ यह हुआ कि मैं सुखी नहीं रह सकती...

- मारीना की डायरी से

Sunday, September 5, 2010

थोड़ी बहुत तो जेहन में नाराजगी रहे


बदला न अपने आपको जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे,

दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम
थोड़ी बहुत तो जेहन में नाराजगी रहे

अपनी तरह सभी को भी किसी की तलाश थी
हम जिसके भी करीब रहे दूर ही रहे

गुजरो जो बाग से तो दुआ मांगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल वह डाली हरी रहे.

- निदा फाजली

Tuesday, August 31, 2010

हाथ पर लिख दिया -'प्रेम'

बहुत पहले...
अब तो मुझे याद भी नहीं कब,
मैंने अपने हाथ पर लिख दिया था
- 'प्रेम'।

 क्यों ?
क्यों का पता नहीं,
पर शायद ये- मेरे भीतर पड़े
सूखे कुंए के लिए,
बाल्टी खरीदने की आशा जैसा था।
सो मैंने इसे अपने हाथ पर लिख दिया
-'प्रेम'।

 आशा?
आशा ये कि इसे किसी को दे दूंगा।
 ज़बरदस्ती नहीं,
चोरी से...
किसी की जेब में डाल दूंगा,
या किसी की किताब में रख दूंगा,
या 'रख के भूल गया जैसा'-
किसी के पास छोड़ दूंगा।

 इससे क्या होगा ठीक-ठीक पता नहीं...
पर शायद मेरा ये- 'प्रेम'
जब उस किसी के साथ रहते-रहते
बड़ा हो जाएगा,
 तब... तब मैं बाल्टी खरीदकर
अपने सूखे कुंए के पास जाउंगा,
 और वहां मुझे पानी पड़ा मिलेगा।

 पर एसा हुआ नहीं,
'प्रेम' मैं चोरी से
किसी को दे नहीं पाया,
वो मेरे हाथ में ही गुदा रहा।
 फिर इसके काफी समय बाद...
अब मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कब,
मुझे तुम मिली
और मैंने,
अपने हाथ में लिखे इस शब्द 'प्रेम' को,
वाक्य में बदल दिया।

"मैं तुमसे 'प्रेम' करता हूँ"
और इसलिए तुम्हारे साथ घूमता रहा।
सोचा इसे तुम्हें दे दूंगा।
ज़बरदस्ती नहीं....
चोरी से,
तुम्हारे बालों में फसा दूंगा,
या तुम्हारी गर्दन से लुढ़कती हुई
पसीने की बूंद के साथ, बहा दूंगा।

या अपने किस्से कहानियाँ कहते हुए,
इसे बी़च में डाल दूंगा।
फिर जब ये वाक्य,
तुम्हारे साथ रहते-रहते बड़ा हो जाएगा,
तब मैं अपने कुंए के पानी में,
बाल्टी समेत छलांग लगा जाउंगा।

पर ऎसा हुआ नहीं,
ये वाक्य मैं चोरी से तुम्हें दे नहीं पाया।
ये मेरी हथेली में ही गुदा रहा।
पर अभी कुछ समय पहले...
अभी ठीक-ठीक याद नहीं कब,
ये वाक्य अचानक कविता बन गया।

'प्रेम' - "मैं तुमसे 'प्रेम' करता हूँ",
और उसकी कविता।
भीतर कुंआ वैसा ही सूखा पड़ा था।
बाल्टी खरीदने की आशा...
अभी तक आशा ही थी। और ये कविता!!!
इसे मैं कई दिनों से
अपने साथ लिए घूम रहा हूँ।

अब सोचता हूँ,
कम से कम,
इसे ही तुम्हें सुना दूँ।
नहीं.. नहीं..
ज़बरदती नहीं,
चोरी से... भी नहीं,
बस तुम्हारी इच्छा से...।
मानव कौल

Monday, August 23, 2010

अब 'गिर्दा' के गीत हमें जगाने आएंगे


- नवीन जोशी

इस दुनिया से सभी को एक दिन जाना होता है लेकिन 'गिर्दा' (गिरीश तिवारी) के चले जाने पर भयानक सन्नाटा सा छा गया है. जैसे सारी उम्मीदें ही टूट गई हों. वही था जो हर मौके पर एक नया रास्ता ढूंढ लाता था, उम्मीदों भरा गीत रच देता था, प्रतिरोध की नई ताकत पैदा कर देता था और विश्वास से सराबोर होकर गाता था-'जैंता, एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में. (मेरी जैंता, देखना, वह दिन एक दिन जरूर आएगा).-'अपना ध्यान रखना, हां!  अभी पन्द्रह दिन पहले मेडिकल कॉलेज में दिखाकर गिर्दा को लखनऊ से नैनीताल को रवाना करते हुए मैंने कहा था.
-'मैं बिल्कुल ठीक हूं. मेरी बिल्कुल चिन्ता मत करना. सदा की तरह नेह से गले लगाते हुए उसने कहा था- 'ओ के, फिर मिलेंगे.

अब कभी मिलना नहीं हो पाएगा. हालांकि उससे जुदा होना भी कैसे हो पाएगा? वह यहीं रहेगा हम सबके बीच, गाता- मुस्कराता हुआ. उसकी ज्यादा फिक्र करने पर वह कहता भी था-'...क्या हो रहा है मुझे. और मान लो कुछ हो भी गया तो मैं यहीं रहूंगा. तुम लोग रखोगे मुझे जिन्दा, तुम सब इत्ते सारे लोग. सन् 19४3 में अल्मोड़ा के ज्योली ग्राम में जन्मे गिरीश तिवारी को स्कूली शिक्षा ने जितना भी पढऩा- लिखना सिखाया हो, सत्य यह है कि समाज ही उसके असली विश्वविद्यालय बने. उत्तराखण्ड का समाज और लोक, पीलीभीत-पूरनपुर की तराई का शोषित कृषक समाज, लखनऊ की छोटी-सी नौकरी के साथ होटल-ढाबे-रिक्शे वालों की दुनिया से लेकर अमीनाबाद के झण्डे वाले पार्क में इकन्नी-दुअन्नी की किताबों से सीखी गई उर्दू और फिर फैज, साहिर, गालिब जैसे शायरों के रचना संसार में गहरे डूबना, गीत एवं नाट्य प्रभाग की नौकरी करते हुए चारुचन्द्र पाण्डे, मोहन उप्रेती, लेनिन पंत, बृजेन्द्र लाल साह की संगत में उत्तराखण्ड के लोक साहित्य के मोती चुनना और उससे नई-नई गीत लडिय़ां पिरोना, कभी यह मान बैठना कि इस ससुरी क्रूर व्यवस्था को नक्सलवाद के रास्ते ही ध्वस्त कर नई शोषण मुक्त व्यवस्था रची जा सकती है, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल के भूमिगत क्रांतिकारी साथियों से तार जोड़ लेना... रंगमंच को सम्प्रेषण और समाज परिवर्तन का महत्वपूर्ण औजार मानकर उसमें विविध प्रयोग करना, फिर-फिर लौट आना लोक संस्कृति की ओर और उसमें गहरे गोते लगाना... गुमानी, गौर्दा, गोपीदास, मोहनसिंह रीठागाड़ी और झूसिया दमाई, हरदा सूरदास तक लोक साहित्य से लेकर हिन्दी साहित्य के मंचों को समृद्ध करना.

शुरुआती दौर में काली शेरवानी, करीने से खत बनी दाढ़ी और टोपी पहन कर वह प्रसिद्ध गीतकार नीरज के साथ कवि- सम्मेलनों का लोकप्रिय चेहरा भी हुआ करता था. लेकिन समाज के विश्वविद्यालयों में निरन्तर मंथन और शोधरत गिर्दा को अभिव्यक्ति का असली ताकतवर माध्यम लोकगीत-संगीत में ही मिला और एक लम्बा दौर अराजक, लुका-छिपी लगभग अघोरी रूप में जीने के बाद उसने लोक संस्कृति में ही संतोष और त्राण पाया. तभी वह तनिक सांसारिक हुआ, उसने शादी की और हमें वह हीरा भाभी मिली जिन्होंने गिर्दा की एेसी सेवा की कि गिरते स्वास्थ्य के बावजूद गिर्दा अपने मोर्चों पर लगातार सक्रिय रहे. गिर्दा के जाने पर हमें अपने सन्नाटे की चिन्ता है, लेकिन आज हीरा भाभी के खालीपन का क्या हिसाब!

हमारी पीढ़ी के लिए गिर्दा बड़े भाई से ज्यादा एक करीबी दोस्त थे लेकिन असल में वे सम्पूर्ण हिन्दी समाज के लिए त्रिलोचन और बाबा नागार्जुन की परम्परा के जन साहित्य नायक थे. जून 19६5 में लगी इमरजेंसी के विरोध में और फिर जनता राज की अराजकता पर वे 'अंधा युग' और 'थैंक्यू मिस्टर ग्लाड का अत्यन्त प्रयोगधर्मी मंचन करते थे तो लोकवीर गाथा 'अजुवा-बफौल' के नाट्य रूपांतरण 'पहाड़ खामोश हैं' और धनुष यज्ञ के मंचन से सीधे इन्दिरा गांधी को चुनौती देने लगते थे. कबीर की उलटबांसियों की पुनर्रचना करके वे इस व्यवस्था की सीवन उधेड़ते नजर आते तो उत्तराखण्ड के सुरा-शराब विरोधी आन्दोलन में लोक होलियों की तर्ज पर 'दिल्ली में बैठी वह नारÓ को सीधी चुनौती ठोकते नजर आते थे.

वन आन्दोलन और सुरा-शराब विरोधी आन्दोलन के दौर में उन्होंने फैज अहमद फैज की क्रांतिकारी रचनाओं का न केवल हिन्दी में सरलीकरण किया, बल्कि उनका लोक बोलियों में रूपान्तरण करके उन्हें लोकधुनों में बांधकर जनगीत बना डाला. उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन में तो उनका आन्दोलकारी- रचनाकार अपने सर्वोत्तम और ऊर्जस्वित रूप में सामने आया. जब यूपी की मुलायम सरकार उत्तराखण्ड आन्दोलन के दमन पर उतारू थी, देखते ही गोली मारने का आदेश था तो 'गिर्दा' रोज एक छन्द हिन्दी और कुमाऊंनी में रचते थे जिसे 'नैनीताल समाचार' के हस्तलिखित न्यूज बुलेटिन के वाचन के बाद नैनीताल के बस अड्डे पर गाया जाता था. इन छन्दों ने उत्तराखण्ड में छाए दमन और आतंक के सन्नाटे को तोड़ डाला था. ये छन्द 'उत्तराखण्ड काव्य के नाम से खूब चर्चित हुए और जगह-जगह गाए गए.

उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद उनका रचनाकार और भी सचेत होकर लगातार सक्रिय और संघर्षरत रहा. हर आन्दोलन पर वे अपने गीतों के साथ सबसे आगे मोर्चे पर डट जाते थे. नदी बचाओ आन्दोलन हो या कोई भी मोर्चा, गिर्दा के बिना जैसे फौज सजती ही नहीं थी.

अब गिर्दा सशरीर हमारे बीच नहीं रहे. अपनी विस्तृत फलक वाली विविध रचनाओं और अपने साथियों-प्रशंसकों की विशाल भीड़ में गिर्दा जीवित रहेंगे. लेकिन यह तय है कि उसके बिना चीजें पहले जैसी नहीं होंगी. उत्तराखण्ड की लोक चेतना और सांस्कृतिक प्रतिरोध के नित नए और रचनात्मक तेवर अब नहीं दिखेंगे. हां, जन-संघर्षों के मोर्चे पर 'गिर्दा' के गीत हमेशा गाए जाएंगे, ये गीत हमें जगाएंगे, लेकिन हुड़के पर थाप देकर, गले की पूरी ताकत लगाने के बावजूद सुर साधकर, हवा में हाथ उछालकर और झूम-झूम कर जनता का जोश जगाते गिर्दा अब वहां नहीं होंगे.

Wednesday, August 18, 2010

जन्मदिन मुबारक गुलजार साब!

नाम सोचा ही न था, है कि नहीं
अमां कहके बुला लिया इक ने
ए जी कहके बुलाया दूजे ने
अबे ओ, यार लोग कहते हैं
जो भी यूं जिस किसी के जी आया
उसने वैसे ही बस पुकार लिया
तुमने इक मोड़ पर अचानक जब
मुझको गुल$जार कहके दी आवा$ज
एक सीपी से खुल गया मोती
मुझको इक मानी मिल गये जैसे
आह, यह नाम खूबसूरत है
फिर मुझे नाम से बुलाओ तो!

- गुलजार

Monday, August 16, 2010

मानव का मन


मानव कौल मूलत: नाटककार हैं. लेकिन वे लेखक भी हैं. कहानी, कविता, नाटक विधा कोई भी हो जिंदगी के पेचोखम सुलझते से लगते हैं उनके यहां. उन्हें पढऩा जीवन को पढऩे सरीखा है. हालांकि वे खुद हमेशा कुछ न कुछ खोजते हुए से मालूम होते हैं. मानव जितना बोलते हैं, उनका काम उससे कहीं ज्यादा बोलता है. उनके नाटक न जाने कितने रूपों में स्मृतियों में कैद हो जाते हैं. उनकी कविताओं में कहीं मन खुलता है तो कहीं उलझता है. उनकी कहानियां पढ़ते हुए महसूस होता है कि घुटन भरे माहौल में थोड़ी सी हवा और रोशनी मिल गई हो जैसे. मेरा उनसे परिचय बहुत पुराना नहीं है लेकिन उन्हें जितना पढ़ा और जाना ये परिचय बहुत नया भी नहीं लगता. फिलहाल मानव की ये कविता- प्रतिभा

मेरे हाथों की रेखाएं,
तुम्हारे होने की गवाही देती हैं
जैसे मेरी मस्तिष्क रेखा....
मेरी मस्तिष्क रेखा,
तुम्हारे विचार मात्र से,
अनशन पे बैठ जाती है.
और मेरी जीवन रेखा
वो तुम्हारे घर की तरफ मुड़ी हुई है.
मेरी हृदय रेखा
तुम्हारे रहते तो जि़न्दा हैं,
पर तुम्हारे जाते ही धड़कना
बंद कर देती हैं.
बाक़ी जो इधर उधर बिखरी रेखाएं हैं
उनमें कभी मुझे
तुम्हारी आंखें नजऱ आती हैं
तो कभी तुम्हारी तिरछी नाक़.
पंडित मेरे हाथों में,
कभी अपना मनोरंजन तो कभी
अपनी कमाई खोजते हैं,
क्योंकि....
मेरे हाथों की रेखाएं
मेरा भविष्य नहीं बताती
वो तुम्हारा चेहरा बनाती हैं,
पर तुम्हें पाने की भाग्य रेखा
मेरे हाथों में नहीं है.

Saturday, August 14, 2010

वतन के लिये


यही तोहफ़ा है यही नज़राना
मैं जो आवारा नज़र लाया हूँ
रंग में तेरे मिलाने के लिये
क़तरा-ए-ख़ून-ए-जिगर लाया हूँ
ऐ गुलाबों के वतन
पहले कब आया हूँ कुछ याद नहीं
लेकिन आया था क़सम खाता हूँ
फूल तो फूल हैं काँटों पे तेरे
अपने होंटों के निशाँ पाता हूँ
मेरे ख़्वाबों के वतन

चूम लेने दे मुझे हाथ अपने
जिन से तोड़ी हैं कई ज़ंजीरे
तूने बदला है मशियत का मिज़ाज
तूने लिखी हैं नई तक़दीरें
इंक़लाबों के वतन
फूल के बाद नये फूल खिलें
कभी ख़ाली न हो दामन तेरा
रोशनी रोशनी तेरी राहें
चाँदनी चाँदनी आंगन तेरा
माहताबों के वतन

- कैफ़ी आज़मी

Friday, August 13, 2010

बरस रहा है उदास पानी...


बस एक ही सुर में

एक ही लय में सुबह से
देख, कैसे बरस रहा है उदास पानी
फुहार के मलमली दुपट्टे से,
उड़ रहे हैं
तमाम मौसम टपक रहा है
पलक पलक रिस रही है
ये कायनात सारी
हर एक शै भीग-भीगकर देख
कैसी बोझल सी हो गयी है
दिमाग की गीली-गीली सोचों से
भीगी-भीगी उदास यादें टपक रही हैं
थके-थके से बदन में बस
 धीरे-धीरे
सांसों का गर्म लोबान जल रहा है.
- गुलजार

Wednesday, July 28, 2010

तेरे दिल को ख़बर रहे न रहे

तू मुझे इतने प्यार से मत देख

तेरी पलकों के नर्म साये में

धूप भी चांदनी सी लगती है

और मुझे कितनी दूर जाना है

रेत है गर्म, पाँव के छाले

यूँ दमकते हैं जैसे अंगारे

प्यार की ये नज़र रहे, न रहे

कौन दश्त-ए-वफ़ा में जाता है

तेरे दिल को ख़बर रहे न रहे

तू मुझे इतने प्यार से मत देख

- अली सरदार जाफ़री

Sunday, July 25, 2010

बातें जो जाननी जरूरी हैं...


कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ को रोकने के लिए जो कानून संसद के मानसून सत्र के लिए प्रस्तावित है उससे जुड़ी हुई जरूरी बातें-

1- अब तक सेक्सुअल हैरेसमेंट्स को जो मामले में शिकायत करने वाली महिलाओं की हिचक काफी आड़े आती थी. अगर वे शिकायत करती थीं तो उन्हें परेशान करने के दूसरे तरीके भी निकाले जाने लगे. मसलन उनका ट्रांसफर किया जाना, लंबी छुट्टी पर भेजा जाना या नौकरी से ही उन्हें निकाल दिया जाना. ये वो भय थे कि आमतौर पर महिलाएं अपने प्रति होने वाले हैरेसमेंट को या तो चुपचाप सहती रहती थीं या फिर जॉब से ही खुद को विड्रॉ कर लेती थीं.

प्रस्तावित कानून में इस बात का पूरा ख्याल रखा जायेगा कि शिकायत करने वाली महिला को ऑफिस में कोई दिक्कत न आये. जांच कमेटी महिला की पहचान को गुप्त रखेगी. उसकी और उसकी नौकरी की सुरक्षा का ख्याल रखेगी.

- यह कानून सरकारी, अद्र्धसरकारी, संगठित क्षेत्र, निजी तथा असंगठित क्षेत्रों पर एक समान रूप से लागू होगा.

- बिल में यह भी प्रस्ताव है कि अगर इंप्लॉयर कार्यस्थल में होने वाले यौन उत्पीडऩ पर कमेटी का गठन नहीं करता, जांच कमेटी की सिफारिशों पर अमल नहीं करता है, या झूठी शिकायत करने वाले दोषी पाए गए कर्मचारी और गवाह के खिलाफ एक्शन नहीं लेता है तो उस पर 50,000 हजार रुपये का जुर्माना हो सकता है.

- अगर यही गलती दूसरी बार संज्ञान में आती है तो जुर्माने की रकम तीन गुनी हो जायेगी. और उस कंपनी या ऑफिस को बंद भी किया जा सकता है. उसका लाइसेंस भी रद्द किया जा सकता है.

- सरकारी तथा संगठित क्षेत्रों में यौन उत्पीडऩ रोकने के लिए कम से कम दो या अधिकतम 10 सदस्यों वाली आंतरिक शिकायत कमेटी का गठन अनिवार्य हो जायेगा.

- इस कमेटी की अध्यक्षता कोई महिला करेगी.

- असंगठित क्षेत्रों जैसे मजदूर या घरेलू नौकरानियों का यौन उत्पीडऩ रोकने की जिम्मेदारी जिला कलेक्टर की होगी. कलेक्टर को मामलों की जांच 90 दिनों में पूरी होनी जरूरी होगी.

- इस मामले के बारे में जानकारी सूचना के अधिकार के तहत भी नहीं ली जा सकेगी.


क्या है यौन उत्पीडऩ

- ऐसा कोई भी व्यवहार जो एक स्त्री को अवांछित हो और उसे शर्मिन्दा महसूस कराये.

- उससे सेक्सुअल डिमांड करना

- अश्लील टिप्पणी करना

-अश्लील फिल्में दिखाना या उन पर बात करना

- जानबूझकर उससे टकराना या उसके शरीर को छूने की कोशिश करना.

- अश्लील बातें करना

अश्लील एसएमएस करना

- काम में रोड़ा अटकाने की धमकी देना

- मौजूदा और भविष्य के जॉब उपलब्धियों को प्रभावित करने की धमकी देना

- अपने बिहेवियर से कार्यस्थल का माहौल असहज और दखलपूर्ण बनाना.

- अपने व्यवहार से कर्मचारी को बीमार व असुरक्षित बना देना.

- दुकान में उपभोक्ता से गलत व्यवहार करना

क्या हैं कार्यस्थल

- एनजीओ

- हॉस्पिटल्स

- कोचिंग

- कोरियर सेवा

- घरेलू नौकर

- दर्जी, ब्यूटी पार्लर

- स्कूल, कॉलेजेस

- रिसर्च इंस्टीट्यूट्स

- भवन या सड़क निर्माण

- बेकरी, हैंडलूम, कपड़ा प्रिंटिंग

- कृषि, ईंट भट्टा

- पंडा और टेंट कार्य

- शादियां, अचार, पापड़ बनाना, माचिस निर्माण

- मछली व्यवसाय

- डेयरी

- फ्लॉरीकल्चर, गार्डनिंग

- शहद एकत्रीकरण

- अगरबत्ती, बीड़ी, सिगार, मसाला और बिंदी निर्माण

- अखबार की बिक्री, पान की बिक्री

- सुनार की दुकान, हैंडीक्राफ्ट आइटम

- केबल टीवी नेटवर्क, वीडियो फोटोग्राफी

- बैण्ड कंपनी

- होटल उद्योग- रेस्त्रां, ढाबा, क्लब, कैटरिंग

(इस कानून के मिसयूज को रोकने के लिए अलग प्राविधान शामिल करने और अगर सेक्सुअल हैरेसमेंट किसी पुरुष के साथ होता है तो उसके लिए भी कुछ प्राविधान जोडऩे की बात भी उठायी जा रही है.)

Tuesday, July 13, 2010

बंद कीजिये हाय हाय !

एक बार फिर संस्कृतियों के पहरेदारों की नींद में खलल पड़ गया है. महिलाओं के लिए एक और कानून जो बनने जा रहा है. ये कानून होगा वर्कप्लेस पर होने वाले सेक्सुअल हैरेसमेंट्स को रोकने का. वर्कप्लेस पर होने वाले सेक्सुअल हैरेसमेंट की बारीकियों को समझते हुए आने वाले मानसून सत्र में इसे कानून बनाने की योजना है. यह पूरी तरह सच है कि बदले हुए माहौल में ज्यादा महिलाएं, हर तरह के काम की ओर बढ़ रही हैं. ऐसे में वे यौन हिंसा की शिकार भी ज्यादा हो रही हैं. 
1997 में दिये गये विशाखा बनाम स्टेट ऑफ जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल में महिलाओं के प्रति होने वाली यौन हिंसा को लेकर जो दिशा-निर्देश दिए थे, वो शायद अब काफी नहीं रहे. आज इतने बरस बाद अगर मुड़कर देखें तो हालात बहुत बदल गये हैं. इन बदलावों में महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा के तमाम नये-नये रूप सामने आ रहे हैं. कार्यस्थलों पर होने वाले यौन उत्पीडऩ के मामले में अगर सरकारी आंकड़ों पर ही न$जर डालें तो 2006 से 2008 के बीच दो लाख से ज्यादा महिलाएं यौन हिंसा का शिकार हुई हैं. ये सरकारी आंकड़े हैं. हम सब जानते हैं कि असल संख्या इससे कई गुना ज्यादा है क्योंकि ऐसे मामलों में मुखर होने वालों की, मोर्चा लेने वालों की, और मामलों को दर्ज कराने वालों की हिचक अब तक टूटी नहीं है. 
खैर, हम बात कर रहे थे संस्कृति के पहरेदारों की. उन्हें डर है कि महिलाओं के हाथ में फिर एक बार एक और कानून पकड़ा दिया जायेगा जिसका वे फिर मिसयूज करेंगी. समाज के लिए यह आदर्श स्थिति नहीं है. यकीनन ये आदर्श स्थिति नहीं है. हां, वे चुपचाप हर तरह की हिंसा को सहती रहें ये आदर्श स्थिति है. इतने बरसों से तो हम एक आदर्श समाज में जी ही रहे हैं. आदर्श समाज, आदर्श परिवार, आदर्श रिश्ते. हमें अपने सामाजिक ढांचे पर गर्व है. तो अब ये क्या होने लगा कि ये आदर्श ढांचा भरभराने लगा. एक के बाद एक महिलाओं के लिए कानून बनाकर उनका दिमाग खराब कर दिया गया है. बताइये, कोई बात है कि दहेज के नाम पर पूरे के पूरे परिवार सजायाफ्ता हो जाते हैं. बताइये, कि उनकी एक एप्लीकेशन पर किसी की नौकरी पर बन आयेगी. ये भी कोई बात हुई? इन कानूनों ने उन्हें जगाना शुरू कर दिया है. जाहिर है समाज के पहरेदारों की नींद तो हराम होनी ही हुई. इस देश में जहां, हर कदम पर, हर जगह, हर चीज का मिसयूज हो रहा है. टाडा जैसे कानूनों तक का मिसयूज हो गया. पॉलीटीशियन इतने सालों से कर ही क्या रहे हैं, सिवाय सत्ता सुख लेने के और अपने अधिकारों का मिसयूज करने के. ऐसे में सारी चिंताएं महिलाओं के कानूनों के दुरुपयोग को लेकर ही क्यों उभरती हैं ये सोचकर अब हैरत नहीं होती.
हां, मानती हूं कि मिसयूज नहीं होना चाहिए. किसी भी कानून का नहीं होना चाहिए. लेकिन सच यह भी है कि कुछ मामलों में हुए मिसयूज के चलते हम कानून की जरूरत पर सवाल तो नहीं उठा सकते. मिसयूज रोकने के तरीकों पर बात करना वाजिब है. ऐसे मामलों को इंडीविजुली ऑब्जर्व किये जाने की और उन पर कार्रवाई किये जाने की भी जरूरत से इनकार नहीं लेकिन चंद ऐसे उदाहरणों के चलते कानून के अस्तित्व पर ही सवाल उठाना कहां का न्याय है. यूं भी कानून का लाभ उठाना चॉकलेट का रैपर खोलकर खाने जैसा आनन्ददायक तो नहीं होता है. बेहद कड़वे अनुभवों से गुजरने के बाद ही इंसान कानून की तरफ हाथ बढ़ाता है, उसमें भी हाय-तोबा. इसका तो एक ही इलाज है, आप बनाइये न सचमुच ऐसा आदर्श समाज, जहां कभी किसी महिला को किसी कानून का सहारा लेने की जरूरत ही न पड़े. बराबरी की बुनियाद पर खड़ा सह अस्तित्व का समाज. जहां रिजर्वेशन बिल भी बेमानी हो जाये, और ढेर सारे महिला कानून भी. जब तक ऐसा समाज नहीं बनता तब तक हाय-हाय तो बंद कीजिये...सोचिए कि कानून का जन्म अपराध की कोख से ही होता है हमेशा.
 

Wednesday, June 30, 2010

अमलताश होती लड़की की कथा


अरे..अरे..अरे...इतनी तेज सीढिय़ां मत चढ़ो, गिर जाओगी.रुक जाओ...रुक जाओ...अरे रुको भी.
लड़का पीछे से चिल्लाता रहा. लेकिन लड़की के कान आज मानो सुनने के लिए थे ही नहीं. सिर्फ बालियां पहनने के लिए थे. गोल-गोल प्यारी सी बालियां. जिनमें एक छोटा सा लाल रंग का मोती भी लगा हुआ था. सुंदर सा, लटकता हुआ. जितनी तेज लड़की चलती, दौड़ती या मुड़ती वो नन्हा सा लाल मोती मानो नृत्य करने लगता. मगन हो जाता. लड़की इस सबसे बेफिकर.
अरे, सुनो तो. लड़का फिर चिल्लाया. लड़की बस ठिठकी जरा सी. पलटकर देखा उसने और मुस्कुरा दी. फिर चल पड़ी आगे को. लड़का झुंझला गया. लड़की झट से पहुंच गई छत पर और दूर लगे अमलताश की कुछ डालियां जो छत पर झुक आई थीं उनके फूलों को तोडऩे की कोशिश करने लगी. लड़का उसके साये का पीछा करते-करते वहां आया. वो गुस्से में था.
ये फूल कहीं भागे जा रहे थे क्या? जरा धीरे नहीं चला जाता तुमसे? गिर जातीं तो?
लड़की हंसी. नहीं, धीरे नहीं चला जाता मुझसे. बहुत तेज चलना चाहती हूं. इतनी तेज, इतनी तेज, इतनी तेज कि लोगों को लगे कि मैं उड़ रही हूं. काश! मेरे पांव पंख बन जाते.
लड़के ने उसकी आंखों में आकाश उतरते देखा. वो आकाश जिसमें वो उड़ रही है.
अच्छा छोड़ो ये सब. मेरी मदद करो फूल तोडऩे में. लड़के ने कोशिश की. हाथ बढ़ाये...डाल ऊपर थी काफी. उसने एक छोटी सी कूद भी लगाई लेकिन नहीं पहुंच पाया.
अरे यार, नहीं पहुंच पा रहा हूं. लड़का झुंझलाया. लड़की दूर बैठकर लड़के को देख रही थी.
कोशिश करो. को.....शि....श. लड़की ने मुस्कुराते हुए कहा.
लड़का फिर कोशिश में जुट गया. बहुत कोशिश की लेकिन नहीं पहुंच पाया.
मैं वादा करता हूं, कल ढेर सारे फूल ला दूंगा. इससे अच्छे फूल. गुलाब, जलवेरा... अभी रहने देते हैं. नहीं पहुंच पा रहा हूं. सच्ची. लड़का हताश हो रहा था.
अच्छा रहने दो. लड़की ने शांत स्वर में कहा. लड़का खुश हो गया.
यहां आओ, लड़की ने बुलाया.
तुम यहां बैठो आराम से. अब मुझे देखना.
वो झट से बाउंड्री पर चढ़ गयी. बाउंड्री पर संभल-संभलकर चलते हुए वो किनारे पहुंची. वहां से उसने एक बड़ी से डंडी में फंसाकर अमलताश की पूरी बड़ी सी डाल नीचे झुका ली. हाथ में डाल पकड़े-पकड़े हुए ही वह नीचे कूद गई. लड़की की आंखों में न जाने कितने जुगनुओं की चमक थी और उसके शरीर में बिजली सी फुर्ती भी थी. लड़का हैरान.
तुम क्या हो?
लड़के ने हैरत से कहा. तुम्हें डर नहीं लगता. गिर जातीं तो?
तीसरे माले की बाउंड्री से लपक कर अमलताश तोडऩे वाली तुम अकेली ही होगी. लड़के ने झुंझलाते हुए कहा.
हां, हूं तो मैं अकेली ही. अब यहां आओ.
लड़की ने लड़के को डाल पकड़ा दी. और खुद चुन-चुनकर फूल तोडऩे लगी. देखो, ज्यादा मत झुकाना. डाल टूटनी नहीं चाहिए. लड़की ने ताकीद की.
उसने कई सारे गुच्छे डाल से उतार लिए. अब छोड़ दो. उसने लड़के को आदेश दिया और उन गुच्छों को संभालने लगा. अचानक उसे कुछ याद आया. अरे, रुको-रुको. मैं छोड़ूंगी डाल. उसने लड़के के हाथ से डाल ले ली और बेहद इत्मीनान से धीरे-धीरे डाल को छोड़ दिया. जब डाल ऊपर गयी तो ढेर सारे फूल झड़े और लड़की फूलों से नहा गयी. लड़का मुग्ध होकर उसे देखता रहा.
देखा...ये सुख बाजार से खरीदे हजारों रुपये के फूलों में भी क्या मिलता भला? लड़की ने फूलों के बीचोबीच खड़े होकर कहा.
नहीं...लड़का अब भी उसे मंत्रमुग्ध होकर देख रहा था.
लड़की के दुपट्टे में सिमटे हुए फूल अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे. अब लड़की इत्मीनान से बैठ गई. अमलताश की एक डाल को उसने अपने जूड़े में लगा लिया. दूसरी डाल को मोड़कर उसने कंगन बनाया. दाहिने हाथ, फिर बायें हाथ में. फिर बड़ा कंगन गुलबंद बना. अब हार की बारी थी. छोटा हार, फिर बड़ा हार. करधनी, पायल एक-एक कर पूरा श्रृंगार होने लगा. कुछ ही पलों में लड़की अमलताश का पेड़ बन गई. वो धीरे-धीरे उठी. गोल गोल घूमने लगी. कथक की मुद्रायें हौले-हौले आकार लेने लगीं. अप्रतिम न$जारा लड़के की आंखों के सामने था. वो लड़की नृत्य कर रही थी या अमलताश का पेड़? लग रहा था अमलताश के पेड़ ने लड़की की देह में जन्म लिया था.
अगर तुम न होते तो मैं इतनी खुश कभी न होती...लड़की भाव-विभोर होने लगी. उसकी आंखें भर आयीं. उसने लड़के के कंधे पर सर टिकाकर कहा, मेरे जीवन के सारे सुख तुमसे हैं, सिर्फ तुमसे. लड़की की आवाज गीली होने लगी थी. ये लड़कियां जब खुश होती हैं तो रोने क्यों लगती हैं लड़के ने मन ही मन सोचा लेकिन खामोश रहा. वो अपने कंधे पर अमलताश को महसूस कर रहा था.
मेरा जीवन एक उजाड़ बियाबान ही तो था. तुमने ही तो इसे नया रंग-रूप दिया. लड़की फफक पड़ी. लड़का शांत रहा. वो अब जान चुका था कि लड़की जब भी, जो भी करती है बहुत करती है. अब उसे खुलकर रो लेने देना ही बेहतर है. उसने उसे चुप कराने की कोशिश नहीं की.
शाम ने दिन से हाथ छुड़ा लिया था. रात उन दोनों के सर पर मंडरा रही थी. लड़की रोये जा रही थी. तुम्हें याद है, जब तुम आये थे मिलने पहली बार. कितनी नर्वस थी मैं. इतनी कि वो सब कहा जो कहना नहीं चाहती थी. वो सब किया जो करना नहीं चाहती थी. कितनी नर्वस थी मैं. होता कोई और तो न जाने क्या का क्या समझ लेता. मैं मूढ़मति जाने किस दुनिया में थी. तुम गये तो होश आया. होश आया तो लगा कि तुम नहीं गये चले गये सुख भी सारे. लड़की की आंखों में अतीत तैर रहा था. उसने अतीत को खींचकर वर्तमान में मिला लिया था.
उसकी आंखों में छलके आंसुओं को भी मानो उसके अतीत को जानने की इच्छा जाग उठी थी. वे टुकुर-टुकुर लड़की का मुंह देख रहे थे. लेकिन तुमने ऐसा कुछ भी नहीं किया. तुममें....हां सिर्फ तुममें ही तो थी ये ताकत कि जो कहा जा रहा है, उसे न समझे बल्कि जो कहने की इच्छा है उसे समझ ले. मेरे शब्दों में कहां उलझे थे तुम. अपने होने का अहसास कभी भी तुमने कम नहीं होने दिया. कभी भी नहीं.
कैसे किया तुमने ऐसा...?
लड़की अचानक प्रश्न बन गई. लड़का इसके लिए तैयार नहीं था.
जानती हूं तुमने जानकर कुछ नहीं किया. तुम हो ही ऐसे. प्यारे से. है ना? लड़की ने पलकें झपकायीं. लड़के को लगा उसके बारे में नहीं किसी और के बारे में बात हो रही है.
यार, तुम लड़कियों की एक आदत बहुत खराब होती है. जिसे चाहती हो उसे देवता बनाकर रख देती हो. ऐसा तो कुछ नहीं किया मैंने.
हां, ठीक कह रहे हो तुम. हम लड़कियां ऐसी ही होती हैं. जिसे प्यार करती हैं उसे जी-जान से प्यार करती हैं. और जो कोई हमारी भावनाओं को वैसा का वैसा समझ ले तो कहना ही क्या. उसे तो प्यार का देवता ही बना देते हैं. अब ये हमारी गलती है, तो है. लड़की ने मुस्कुराकर अपने कान पकड़ लिये. लड़के की आंखें भर आयीं. तुम ऐसा मत किया करो. मुझे अच्छा नहीं लगता. कभी-कभी डर लगता है. लगता है कि तुम मुझे कुछ ज्यादा ही अच्छा समझ रही हो.
ऐसा नहीं है. लड़की ने आत्मविश्वास से कहा. ऐसा बिल्कुल नहीं है. तुम अच्छे हो इसलिए हम तुम्हें प्यार करते हैं ये तुमसे किसने कहा. तुम सच्चे हो इसलिए हम तुमसे प्यार करते हैं. प्यार के लिए किसी का बहुत अच्छा होना जरूरी नहीं होता, जरूरी होता है जो जैसा है उसे उसके स्वाभाविक रूप में पसंद करना. जैसा तुमने मुझे किया. वरना क्या था मुझमें?
लड़की के चेहरे के भाव बदलने लगे. ऐसा नहीं है. क्या नहीं है तुममें. जो तुम्हें प्यार न करेगा वो निरा मूढ़ होगा. ऐसा नहीं है...लड़की की आंखें छलक उठीं.
मुझे कोई प्यार नहीं करता. कोई भी नहीं. कहते सब हैं कि वो मुझे प्यार करते हैं लेकिन मैं जानती हूं कि मुझे कोई प्यार नहीं करता. तुम करते हो. वर्ना मेरी तमाम बेवकूफियों के बावजूद तुम भला क्यों प्यार करते मुझे. और तुम कोई सवाल भी नहीं करते मुझसे. विश्वास करते हो. कोई पुरुष स्त्री पर इतना विश्वास करे कि कभी कुछ पूछताछ ही न करे, उसकी हर बेवकूफी का कारण खुद ही समझ ले और उन बेवकूफियों को भी प्यार करे, ये आसान नहीं. तुम खास हो. बहुत खास. लड़की ने आंखें मूंद लीं. वो लड़के की उपस्थिति को अपने भीतर महसूस करने लगी. बेहद करीब.
प्यार की उस रात में हजारों तारे खिलने लगे आसमान पर. हवाओं में संगीत गूंजने लगा. लड़की की मुस्कुराहट पूरी फिजां में तैरने लगी. दुनिया भर का दुख, पीड़ा, संत्रास उसकी मुस्कुराहट में पनाह लेने लगे. धीरे-धीरे लड़की ने आंखें खोलीं...वहां कोई नहीं था... दूर-दूर तक कोई नहीं...

Thursday, June 24, 2010

ये ज़िन्दगी उसी की है, जो किसी का हो गया...



आओ तुम्हें आज तुम्हारी पसंद का गाना सुनाती हूं...मैंने मुस्कुरा कर जब मां से कहा तो वो चौंक गईं. मेरी पसंद?
उनका वो अचकचाया चेहरा देखकर मन भीतर तक कचोट गया. उन्हें यह बात इतनी अजीब क्यों लगी कि उनकी पसंद भी कुछ हो सकती है. हमारा परिवार ठीकठाक आधुनिक विचारों का ठीहा है. कहीं किसी पर कोई जोर-जबर नहीं. मां भी पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा हैं. विदेश यात्राएं भी कर चुकी हैं लेकिन सोचती हूं तो सचमुच सब कुछ उनके जीवन में बस वैसे आया, जैसा बाकियों ने निर्धारित किया. यह हिंदुस्तानी स्त्रियों की नियति है. खाने से लेकर पहनने तक दूसरों की पसंद को अपनाने में ही उन्हें सुख मिलता है. इस सुख में वे खुद को खोती जाती हैं अपनी पसंद भी, नापसंद भी.उन्हें इस नियति से भी तो मुक्त होना है.

आज मां की पसंद का ये गाना यहां लगा रही हूं. ये गाना जब मैं छ: बरस की थी, तब वे हारमोनियम पर बजाती थींं. साथ में गाती भी थीं. जब भी ये गाना सुनती हूं, वक्त के उसी हिस्से में पहुंच जाती हूं जहां मां गाने में डूबी हुई हैं. एक कमरे का वो छोटा सा साधनहीन लेकिन प्यारा सा घर. इस गाने को यहां देते हुए मन कुछ गीला सा है कि हमारे होते हुए भी मां को यह क्यों कहना पड़ा कि मेरी पसंद?
फिलहाल उनकी पसंद का ये गाना...
(ये तुम्हारे लिए माँ !)

Tuesday, June 22, 2010

कौमी एकता और तवायफ


वो तवायफ
कई मर्दों को पहचानती है
शायद इसीलिये
दुनिया को ज्यादा जानती है
उसके कमरे में
हर म$जहब के भगवान की एक-एक तस्वीर
लटकी है
ये तस्वीरें
लीडरों की तकरीरों की तरह नुमाइशी नहीं
उसका दरवाजा
रात गए तक
हिंदू
मुस्लिम
सिक्ख
ईसाई
हर $जात के आदमी के लिए
खुला रहता है
खुदा जाने
उसके कमरे की सी कुशादगी
मस्जिद और मंदिर के आंगनों में कब पैदा होगी...
-निदा फाजली
(कुशादगी- विस्तार)


Sunday, June 20, 2010

कितने शहर, कितनी बार- ममता कालिया

शहर कब किसके हुए हैं, शहरयार तक के नहीं. तभी न उनके दिल से निकली थी यह नज़्म इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है? उन्हें क्या पता हर शहर में हर शख्स परेशान सा ही रहता आया है. कितने वक्त में कोई शहर हमारा बन पाता है. हम अपने बंजारे मन से पूछते हैं. यह मन तो मानो उतावला हुआ पड़ा है कि कब हम इस पर अपनी गठरी लादें और दौड़ पड़ें. लेकिन हम मन को अपनी मजबूरियां समझाते रहे, खुक्ख् पड़ी बैंक की पासबुक दिखाते रहे और धीरज धरवाते रहे. लेखन जगत की च्यूंइगगम और चॉकलेट उसे चटाते रहे. आज फलां जगह की मुख्य अतिथिगीरी.
शहर के लिए किसी का रहना जरूरी नहीं होता. ये तो लोग होते हैं जो उससे नाता जोड़ते हैं. कुछ लोग तो अपने नाम के साथ उसे नत्थी कर लेते हैं जैसे वसीम बरेलवी, मजरूह सुलतानपुरी, कैफी आजमी. कुछ लोग नत्थी नहीं करते, फिर भी उनके साथ शहर की शोहरत चिपक जाती है जैसे म$जाज के साथ लखनऊ, गालिब के साथ दिल्ली, राही मासूम रजा के साथ अलीगढ़ कमलेश्वर के साथ मैनपुरी, राजेन्द्र यादव के साथ आगरा. रहे हैं ये सब और शहरों में भी लेकिन वह एक शहर इनका अता-पता बन गया. शहर वालों को भी इनके किस्से कहानी सुनाने में मजा आने लगा, शहर के कुछ अड्डे इनके नाम से सरनाम हुए, साल दर साल इनके हवाले से न जाने कितने सच झूठ तमाम हुए.हमने चाहा था इलाहाबाद हमें चंदन पानी, मोती धागा, सोना सुहागा जैसा अपना ले, आखिर हम तीस साल यहां रह लिये, अट्ठाइस साल नौकरी कर ली, यहां की हवाएं, सर्दी गर्मी झेल ली.
एक शाम विश्वविद्यालय के खुले मंच पर फैज, फिराक और महादेवी वर्मा को इकट्ठे देखा और सुना. तीनों ही साहित्यकार लेकिन हर एक का अंदाजेबयां और. फैज की शान में रात को विभूति राय के घर पर दावत हुई. जब वे कमरे में दाखिल हुए उन्हीं की कविताओं का हमारा रेकॉर्ड स्टीरियो पर बज रहा था. वे पहले हैरान हुए, फिर खुश हुए और एलपी के कवर पर उर्दू में लिख दिया ममता को मोहब्बत के साथ. इस मौके पर हिन्दी उर्दू लेखकों का भाईचारा भी न$जर आता रहा. सभी युवतर लिखने वाले जश्न में आए हुए थे. डा. अकील रिजवी के नेतृत्व में अली अहमद फातमी, असरार गांधी, काजमी जी, ताहिरा परवीन, आतिया निशात, गजाल जैगम, शाइस्ता फाखरी थे तो शम्सुर्रहमान फारुखी जैसे पायेदार और गंभीर आलोचक की भी उस शाम की सभा में शिरकत थी.
हिन्दी उर्दू अदब के इस तरह के संगम इलाहाबाद की खासियत तब से रहे जब प्रगतिशील लेखक संघ की बैठकें यहां होती थीं. जियाउल हक और प्रकाश चंद्र गुप्त इन बैठकों के शक्तिपीठ थे और कोई भी रचनाकार तब तक मुकम्मल नहीं माना जाता जब तक दोनों जुबानों से उसे सनद न मिले. पता नहीं तब भी हिन्दी वालों को क्या मेरी तरह यह अफसोस हुआ होगा कि उन्होंने उर्दू पढऩी-लिखनी क्यों नहीं सीखी. कितना अजीब है कि सभी उर्दू भाषी अदीब हिन्दी जानते हैं लेकिन सभी हिन्दी भाषी उर्दू की मामूली जानकारी भी नहीं रखते. एक अकेले रघुपति सहाय फिराक हिन्दी भाषी अदीबों की यह कमी पूरी करने के लिए नाकाफी थे.
फिराक साहब के क्या कहने. उनकी विनोदप्रियता के किस्से तो जग जाहिर हैं. एक बार फिराक साहब के घर चोर घुस आया. फिराक साहब को रात में ठीक से नींद नहीं आती थी. आहट से वे जाग गये. चोर इसके लिए तैयार नहीं था. उसने अपने साफे से चाकू निकाल कर फिराक के आगे घुमाया. फिराक बोले, तुम चोरी करने आये हो या कत्ल करने. पहले मेरी बात सुन लो.चोर ने कहा, फालतू बात नहीं, माल कहां रखा है?फिराक बोले, पहले चक्कू तो हटाओ, तभी तो बताऊंगा. फिर उन्होंने अपने नौकर पन्ना को आवाज दी... अरे भई पन्ना उठो, देखो मेहमान आये हैं, चाय वाय बनाओ.पन्ना नींद में बड़बड़ाता हुआ उठा, ये न सोते हैं न सोने देते हैं.चोर अब तक काफी शर्मिन्दा हो चुका था. घर में एक की जगह दो आदमियों को देख उसका हौसला भी पस्त हो गया. वह जाने को हुआ तो फिराक ने कहा, दिन निकल जाए तब जाना.चोर आया था पिछवाड़े से लेकिन फिराक साहब ने उसे सामने के दरवाजे से रवाना किया यह कहते हुए कि अब जान पहचान हो गयी है भई आते जाते रहा करो.

Thursday, June 17, 2010

यह जो बनारस है


काशीनाथ सिंह
जाने क्यों कभी-कभी लगता है कि बनारस अब बूढ़ा और जर्जर हो रहा है. हो सकता है यह मेरे अपने बूढ़े होते जाने की छाया हो जो उस पर मुझे दिखाई पड़ती हो, लेकिन यह सच है कि उसके बदन पर फालतू की चर्बी बढ़ती जा रही है. पेट आगे निकल आया है. गोश्त हड्डियां छोड़ रहा है. चमड़ी पर जगह-जगह पपड़ी पडऩे लगी हैं. अपनी झुर्रियों और दाग-धब्बों को छिपाने के लिए प्लास्टिक सर्जरी भी करवा रहा है समय-समय पर, लेकिन उससे क्या? उमर तो उमर छिपाई नहीं जा सकती.
वह बूढ़ा हुआ है अचानक इन्हीं चालीस-पैंतालिस सालों के अंदर. उसके कंधे पर आज भी चादर पड़ी हुई है. गंगा की चादर, जो कभी निर्मल, धवल और झलमल लहराती रहती है, कंधों पर आज मटमैली और धूमिल हो चुकी है. उसकी आंखों के आगे धुंध है, और वह जिए जा रहा है. अपने शानदार इतिहास की स्मृतियों में, अतीत की यादों के भरोसे जो उसे ऊर्जा और गर्व से भर रही है.
मैं आया था बनारस आजादी के पांच साल बाद. बनारस तब अपनी साहित्यिक, सांस्कृतिक गरिमा में जगर-मगर था. जवान और अल्हड़ व मस्त. प्रेमचंद, प्रसाद और आचार्य शुक्ल गुजर चुके थे लेकिन उनकी पदचाप हर चौराहे और गली नुक्कड़ पर थी. नगर के उत्तरी सिरे पर नागरी प्रचारिणी सभा और दक्षिणी छोर पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का हिन्दी विभाग बीच में चाय-पान, सब्जी की दुकानें, कहीं भी, किसी भी वक्त आपको ऐसा परिचित-अपरिचित युवक मिल सकता था जिसकी जेब में कविता या कहानी हो. माहौल ही ऐसा था. गले में गीत लिए घूमने वाले तो अनगिनत थे. हर हफ्ते कहीं न कहीं रचना पाठ व कविता पाठ भी हो सकता था और कहानी पाठ भी. मोहल्ला स्तर की संस्थाओं की भरमार थी. हैदराबाद से कल्पना, दिल्ली से आलोचना, इलाहाबाद से कहानी या नई कविता किसी एक के यहां पहुंचती थी और दूसरे दिन सड़क पर गूंजने लगती थी. बीए करते-करते हिन्दी का ऐसा कोई बड़ा लेखक कवि मसलन पन्त, महादेवी, यशपाल, जैनेन्द्र, अज्ञेय, रामविलास शर्मा, शमशेर, नागार्जुन नहीं था जो देखने-सुनने से बचा हो. बाहर के किसी भी लेखक का बनारस के संपर्क में होना कबीर, तुलसी, भारतेन्दु, प्रसाद, प्रेमचन्द और शुक्ल जी की परंपराओं से जुडऩे या उनसे अलग रास्ता तलाशने जैसा था उन दिनों.
ऐसे ही सघन और हरे-भरे माहौल में पहले-बढ़े और तैयार हुए थे नामवर सिंह, बच्चन सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, शिवप्रसाद सिंह, रादशरश मिश्र, केदारनाथ सिंह, विष्णुचंद्र शर्मा, विद्यासागर नौटियाल, रमाकान्त, कृष्णबिहारी मिश्र, विजयमोहन सिंह और भी जाने कितने कवि, कथाकार, आलोचक. उन्हीं दिनों कवि त्रिलोचन, शंभुनाथ सिंह और आलोचक चन्द्रबली सिंह भी सक्रिय थे और नए के लिए संरक्षण और प्रोत्साहन का काम कर रहे थे. सच कहिए तो धूमिल ही नहीं, बनारस में साठ की पीढ़ी भी इसी माहौल का विस्तार और विकास थी. एक समूचे परिदृश्य में उर्दू के शायर न$जीर बनारसी को न$जरअंदाज नहीं किया जा सकता जो न$जर अकबराबादी की विरासत लिए हिन्दी वालों के साथ बड़ी मुस्तैदी से चलते रहे. ये वे दिन थे जब बनारस सचमुच भारतीय संस्कृति ही नहीं, साहित्य की भी राजधानी था.
हालात बदलने शुरू हुए. 1960 के बाद से. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी उसी साल चंडीगढ़ चले गए. फिर तो जैसे जाने वालों का सिलसिला ही शुरू हो गया. कोई पडरौना गया, कोई आरा, कोई अहमदाबाद, कोई दिल्ली, कोई लखनऊ, कोई शिमला, कोई कहीं और. एक दिन नामवरजी भी दिल्ली चले गये. रही-सही कसर त्रिलोचन ने पूरी कर दी. दिल्ली, भोपाल, सागर. इतना ही रहा होता तो गनीमत थी, लेकिन लोगों की प्राथमिकताएं भी बदलनी आरम्भ हो गईं. जो नागरी प्रचारिणी सभा स्वाधीनता आन्दोलन में हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार के लिए समर्पित संस्था के रूप में जानी जाती थी, वह बैंकों और दुकानों काकटरा होकर रह गईं. ऐसे ही पता कीजिए ज्ञानवापी पर कि प्रेमचंद गृह कहां था? गिरजाघर चौमुंहानी के पास कभी सरस्वती प्रेस था. प्रेस भी और साथ में रिहाइशी विशाल भवन भी, जिसमें प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी रहा करती थीं. उन दिनों अमृतराय और हिन्दी के बड़े-बड़े लेखक भी ठहरा करते थे. प्रगतिशील लेखक संघ और साहित्यिक संघ की गोष्ठियां भी नहीं हुआ करती थीं. आज वहां किसी निदान केन्द्र का बोर्ड है. इसी तरह आचार्य रामचंद्र शुक्ल का आवास तबेला और शोध संस्थान बन चुका है. जो विवाह-मंडप, शादी-विवाह और भाड़े पर आयोजनों-समारोहों के काम आता है. पता नहीं, आधुनिक युग के जन्मदाता भारतेन्दु और प्रसाद जी के ठिकानों के क्या हाल हैं? ज्यादा नहीं, ये बीस-तीस वर्षों के अंदर हुए बदलाव हैं जिनका रफ स्केच है यह टिप्पणी. हां, राजधानी आज भी है यह नगर, लेकिन कला और संस्कृति की नहीं, धार्मिक अनुष्ठानों और कर्मकाण्डों की. इस पर कोई गर्व करना चाहे तो कर सकता है. मित्रो, बनारस गंगा भी है और गलियां भी. किसी एक का नाम नहीं है बनारस और यह सच है कि गंगा का रास्ता गलियों से होकर जाता है. गलियां टेढ़ी-मेढ़ी, उल्टी-सीधी, एक-दूसरे को काटती हुई, एक-दूसरी में गुम होती हुई. कभी खुली, कभी बंद. न हवा, न रोशनी. न आकाश, न तारे. चक्करदार, तंग और संकरी. इनका काम ही है भटकाना, गति को मद्धिम कर देना, रोक देना.
मुल्ला, पंडित, पुरोहित, मौलवी-क्या थे कबीर के लिए? किनके खिलाफ लुकाठा लेकर खड़े हुए थे वे? यही गलियां. जिनसे तंग आकर तुलसी ने कहा था-मांग के खइबो, मसीत पे सोइबो, लेबे को एक न देबे को दोऊ. भारतेन्दु, प्रेमचंद, प्रसाद, द्विवेदी- ऐसा कौन है जिसे तंगमिजाज, संकीर्ण, दकियानूस, चक्करदार पथरीली गलियों ने भटकाने और भरमाने की कोशिश न की हो. लेकिन यह भी सच है कि गलियां वहीं हैं जहां गंगा है. जहां गंगा नहीं, वहां गलियां नहीं. गंगा का मतलब है अप्रतिम गति, सतत प्रवाह, कलकल-उच्छल जीवन, खुला आकाश, हवा का मतलब है अप्रतिहत गति, सतत प्रवाह, कलकल-उच्छल जीवन, खुला आकाश, हवा, आवेग, प्रकाश, अछोर, अनन्त विस्तार. तट पर खड़े हो जाइये और आंखें खोलिए, तो हो सकता है कि वह दिखाई पड़े जो नंगी आंखों से कभी न दिखा हो. गंगा दृश्य भी है और दृष्टि भी-बशर्ते आंखे हों. और आंखें हों भी, तो मायोपिक न हों. मायोपिक होंगी तो सिर्फ तट के किनारे मचलती-उछलती सिधरी मछलियां ही देख सकेंगी. पार की हरियाली, बगुले और बादलों में छिपा सूरज नहीं. गलियां और उनके आजू-बाजू की दीवारें आंखों को मायोपिक बनाती हैं. तो मित्रो! बूढ़ा किसी जमाने का अक्खड़ और फक्कड़ बूढ़ा-बैठा है शिवाला घाट पर. बगल में देखता है-चेतसिंह का किला किसी ताज या ओबेरॉय ग्रुप का होटल हो चुका है. धरोहर के रखोरखाव के नाम पर फाइव स्टार होटल. गंगा स्विमिंग पूल में बदल चुकी है और घाट की सीढिय़ों पर लेटे नंगे-अधनंगे विदेशी पर्यटक धूप सेवन कर रहे हैं. बूढ़ा बैठा है और सामने ताकता है धुंध में. नहीं समझ पाता कि यह धुंध दृष्टि की है या दृश्य की. लेकिन सामने धुंध है. निचाट उजाड़, जिसमें कभी-कभी पानी की पतली सी चमक कौंध उठती है. यह भी उसकी समझ नहीं आता कि यह गंगा की ही कोई धारा है या वरुणा? या गंगा ही सिकुड़कर वरुणा हो गई है? इस उजाड़ में घाट पर बैठे बूढ़े को जो चीज जिलाए जा रही है वह है, कहीं दूर से आती हुई धुन, बल्कि धुनें, कभी शहनाई की, कभी ठुमरी की, कभी तबले की. प्रार्थना कीजिए उसका यह भ्रम बना रहे कि ये धुनें राजा चेतसिंह घाट के होटल के डाइनिंग हाल से नहीं आ रही हैं.
(बनास से)

Saturday, June 12, 2010

दु:ख का जायका

मेरे लोगो!
दु:ख से समझौता न करना
वरना दु:ख भी कड़वाहटों की तरह तुम्हारे $जायके का हिस्सा बन जायेगा
तुम दु:ख के बारे में $गौर करना...
उसकी माहीयत जानना, उसकी तुम ड्राइंग करना
और सर जोड़कर उस तस्वीर से बातें करना
गली के बाहर मैदानों में, खेतों में,
घर की छतों के ऊपर
हर तरफ बातें करना, दु:ख की, आनेवाले सुख की
मेरे लोगो!
दु:ख को जब पहचानोगे तो उसका कर्ज उतारोगे
इक-इक पैसा जमा करना सुख की ख़ातिर
हथियार बनाना, ज़ेहनों में, तस्वीरों में तहरीरों में
फिर दु:ख के आगे डट जाना
और ऐसी दीवार बनना जिसकी तैयारी में का$फी दिन लगे हों
का$फी लोग लगे हों
सारी खूबियां उस दीवार में हो, सब सैलाबों के आगे डट जाने की
मेरे अच्छे लोगो!
क्या तुमने सोचा है के: दीवारें भी नंगी हो जाती हैं कुछ ईंटों के गिर जाने से
तुम सोच-समझ के अपने संगी साथी बनाना
ईंटों को गिरने न देना
धीमी आंच में धीमे-धीमे बातें करना दु:ख की,
सुख की तुममें जो सबसे अच्छी बात करेगा
वही तुम्हारा साथी होगा-वही तुम्हारा सूरज होगा
मेरे लोगो!
दु:ख के दिनों में सूरज के रस्ते पर चलना
उसके डूबने-उभरने के मं$जर पर $गौर करना
मेरे लोगो!
झील की मानिंद चुप न रहना
बातें करना, चलते रहना, दरिया की रवानी बनना
मेरे लोगो!
दु:ख से कभी समझौता मत करना, हंसते रहना
दु:ख के घोड़े की लगामों को पकड़ कर हवा से बातें करना
ऊंचा उडऩा.
- शाईस्ता हबीब

सुनो प्रेम बतियां...


जिस भावना को अभिव्यक्त करने में हमेशा, दुनिया की हर भाषा के शब्द पंगु हो गये वो भावना है प्रेम. फिर भी सबसे ज्यादा लिखत-पढ़त प्रेम पर ही हुई. इसी लिखत-पढ़त में से दुनिया के महान लोगों के प्रेम के बारे में व्यक्त किये गये विचारों को संकलित किया गया है एक पुस्तक में. पुस्तक का नाम है प्रेम. संवाद प्रकाशन से आई इस पुस्तक से गुजरना भी एक अनुभव है. प्रेम की इन परिभाषाओं का अनुवाद और संकलन किया है अशोक कुमार पाण्डेय जी ने.
आइये देखते हैं कुछ टुकड़े-


प्यार दीवानावार चाहे जाने की दीवानावार चाहत है- मार्क ट्वेन

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मैंने सौंप दिया खुद को उसे
और ग्रहण किया कीमत की तरह
इस तरह प्रमाणित हुआ
जीवन का पवित्र समझौता-एमिली डिकिंसन

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पुरुष जानते हैं कि स्त्रियां उन पर भारी पड़ती हैं. इसलिए वे सबसे ज्यादा कमजोर या सबसे ज्यादा अज्ञानी का चुनाव करते हैं. अगर वे ऐसा न सोचते तो उन्हें यह भ्रम न होता कि स्त्रियों को इतनी जानकारी न हो जाए, जितनी उन्हें खुद है- डॉ. जॉनसन


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पहला प्यार केवल थोड़ी सी मूर्खता और ढेर सारी उत्सुकता होता है- जॉर्ज बर्नाड शॉ

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अपरिपक्व प्रेम कहता है, मैं तुम्हें प्रेम करता हूं क्योंकि मुझे तुम्हारी जरूरत है. परिपक्व प्रेम कहता है, मुझे तुम्हारी जरूरत है क्योंकि मैं तुम्हें प्यार करता हूं-एरिक फ्राम


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जब प्यार पागलपन नहीं, तो यह प्यार ही नहीं- पेड्रो केल्ड्रान डे ला बर्का

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प्रेम हमेशा ज्ञान की शुरुआत होता है जैसे आग रोशनी की-थॉमस कार्लाइल

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पुरुष का प्यार उसकी जिंदगी की एक छोटी सी चीज होता है पर औरत के लिए यह उसका संपूर्ण अस्तित्व- लॉर्ड बॉयरन

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एक आदमी वहां नहीं, जहां वह है बल्कि वहां है जहां वह प्यार करता है- अज्ञात

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अगर प्यार न हो ते धरती मकबरे जैसी हो जायेगी- रॉबर्ट ब्राउनिंग

Friday, June 11, 2010

हाय मैंने गहने क्यों पहने

सीरियलों के संसार में से लापतागंज के अलावा न आना इस देश मेरी लाडो ही मेरे हिस्से आता है. कारण ये भी हैं कि घर पहुंचने पर इन्हीं का वक्त होता है और ये ऑटोमेटिक रुटीन का हिस्सा बन चले हैं. लाडो तो खैर लाडो है, उसे अम्मा जी के देश में न आने की सख्त ताकीद है. फिर भी कुछ लाडो आ ही जाती हैं. किसी को घर की नौकरानी बनना पड़ता है तो किसी को डाकू. अम्मा जी दांव पर दांव फेंकती रहीं अपनी डाकू बेटी को प्यार के जाल में फंसाने के. आखिर उसे गहने, जेवर, लाड़, प्यार के जाल में फंसाकर पुलिस के हवाले कर दिया.

मुझे सचमुच हंसी आ रही थी. सीरियल तो खैर सीरियल ही है, उसका क्या लेकिन असल जिंदगी में भी तो यही होता है. गहना, जेवर, सुंदरता के कसीदे, अदाएं, नाज, नखरे ये सब स्त्रियों की दुनिया की चीजें बना दी गईं. इसके पहले कि तुम्हारी आंख देखे आसमान तुम्हारी आंख में प्यार का काजल लगा देते हैं. इसके पहले कि उठे गर्दन लो भारी सा हार लटका लो गले में. इसके पहले कि हाथ मजबूती से पकड़ें अपने जीवन की बागडोर उन्हें चूडिय़ों से भर दो, चूडिय़ां भी किसी के नाम की. पायल की रुनझुन में खोई रहो तुम और तुम्हारी चाल पर लगी ही रहे हमारी लगाम. सर से पांव तक गहने ही गहने, वाह क्या कहने? अब तो तुम बहुत कीमती हो, घर में रहो, कोई चुरा न ले जाए तुम्हें. यही तो होता रहा है सदियों से. सो सीरियल में भी डाकू अंबा ने जैसे ही गहने पहने वो फंस गयी जाल में. चूडिय़ों भरे हाथ हथकड़ी से सज गये. उसके मन में उस वक्त यही तो आया होगा कि हाय मैंने गहने क्यों पहने?

गहनों के इस सच को समझना होगा. असल गहना है ज्ञान, समझ, विवेक, हिम्मत, काबिलियत, जिसे कोई बर्दाश्त नहीं कर पाता, क्यों भला?