एक ही लय में सुबह से
देख, कैसे बरस रहा है उदास पानी
फुहार के मलमली दुपट्टे से,
उड़ रहे हैं
तमाम मौसम टपक रहा है
पलक पलक रिस रही है
ये कायनात सारी
हर एक शै भीग-भीगकर देख
कैसी बोझल सी हो गयी है
दिमाग की गीली-गीली सोचों से
भीगी-भीगी उदास यादें टपक रही हैं
थके-थके से बदन में बस
धीरे-धीरे
सांसों का गर्म लोबान जल रहा है.
- गुलजार
9 comments:
आपकी पसंद की ये गुलज़ार जी की रचना ...बेहतरीन है !!!
अथाह...
प्रतिभा जी, गागर में सागर जैसा है कविता का एहसास।
………….
सपनों का भी मतलब होता है?
साहित्यिक चोरी का निर्ललज्ज कारनामा.....
bahut pyaari rachna gulzaar chacha ka jawaab nahi
गुलज़ार जी की बेशकीमती रचना पढवाने के लिये शुक्रिया।
गुलज़ार जी की बेशकीमती रचना पढवाने के लिये शुक्रिया।
udaas paani"achha hai.man kuchh geela ho gaya.
सुंदर भावाभिव्यक्ति-नागपंचमी की बधाई
सार्थक लेखन के लिए शुभकामनाएं-हिन्दी सेवा करते रहें।
नौजवानों की शहादत-पिज्जा बर्गर-बेरोजगारी-भ्रष्टाचार और आजादी की वर्षगाँठ
दिमाग की गीली-गीली सोचों से
भीगी-भीगी उदास यादें टपक रही हैं
bahut hi khoob.....
Meri Nayi Kavita aapke Comments ka intzar Kar Rahi hai.....
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गुलज़ार साहब....... अगर इस रंग बदलती दुनिया में अपने नाम के मुताबिक लेखनी चलाने वाले बन्दों की सूची बनायें तो शायद गुलज़ार साहब का नाम सबसे ऊपर आएगा....
आप ने इस कविता के जरिये एक बार फिर से इस उक्ति को सही साबित किया है....
और इस पावन कार्य के लिए आपको साधुवाद.....
http://humhindustanisabbechtehai.blogspot.com/
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