Thursday, June 17, 2010

यह जो बनारस है


काशीनाथ सिंह
जाने क्यों कभी-कभी लगता है कि बनारस अब बूढ़ा और जर्जर हो रहा है. हो सकता है यह मेरे अपने बूढ़े होते जाने की छाया हो जो उस पर मुझे दिखाई पड़ती हो, लेकिन यह सच है कि उसके बदन पर फालतू की चर्बी बढ़ती जा रही है. पेट आगे निकल आया है. गोश्त हड्डियां छोड़ रहा है. चमड़ी पर जगह-जगह पपड़ी पडऩे लगी हैं. अपनी झुर्रियों और दाग-धब्बों को छिपाने के लिए प्लास्टिक सर्जरी भी करवा रहा है समय-समय पर, लेकिन उससे क्या? उमर तो उमर छिपाई नहीं जा सकती.
वह बूढ़ा हुआ है अचानक इन्हीं चालीस-पैंतालिस सालों के अंदर. उसके कंधे पर आज भी चादर पड़ी हुई है. गंगा की चादर, जो कभी निर्मल, धवल और झलमल लहराती रहती है, कंधों पर आज मटमैली और धूमिल हो चुकी है. उसकी आंखों के आगे धुंध है, और वह जिए जा रहा है. अपने शानदार इतिहास की स्मृतियों में, अतीत की यादों के भरोसे जो उसे ऊर्जा और गर्व से भर रही है.
मैं आया था बनारस आजादी के पांच साल बाद. बनारस तब अपनी साहित्यिक, सांस्कृतिक गरिमा में जगर-मगर था. जवान और अल्हड़ व मस्त. प्रेमचंद, प्रसाद और आचार्य शुक्ल गुजर चुके थे लेकिन उनकी पदचाप हर चौराहे और गली नुक्कड़ पर थी. नगर के उत्तरी सिरे पर नागरी प्रचारिणी सभा और दक्षिणी छोर पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का हिन्दी विभाग बीच में चाय-पान, सब्जी की दुकानें, कहीं भी, किसी भी वक्त आपको ऐसा परिचित-अपरिचित युवक मिल सकता था जिसकी जेब में कविता या कहानी हो. माहौल ही ऐसा था. गले में गीत लिए घूमने वाले तो अनगिनत थे. हर हफ्ते कहीं न कहीं रचना पाठ व कविता पाठ भी हो सकता था और कहानी पाठ भी. मोहल्ला स्तर की संस्थाओं की भरमार थी. हैदराबाद से कल्पना, दिल्ली से आलोचना, इलाहाबाद से कहानी या नई कविता किसी एक के यहां पहुंचती थी और दूसरे दिन सड़क पर गूंजने लगती थी. बीए करते-करते हिन्दी का ऐसा कोई बड़ा लेखक कवि मसलन पन्त, महादेवी, यशपाल, जैनेन्द्र, अज्ञेय, रामविलास शर्मा, शमशेर, नागार्जुन नहीं था जो देखने-सुनने से बचा हो. बाहर के किसी भी लेखक का बनारस के संपर्क में होना कबीर, तुलसी, भारतेन्दु, प्रसाद, प्रेमचन्द और शुक्ल जी की परंपराओं से जुडऩे या उनसे अलग रास्ता तलाशने जैसा था उन दिनों.
ऐसे ही सघन और हरे-भरे माहौल में पहले-बढ़े और तैयार हुए थे नामवर सिंह, बच्चन सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, शिवप्रसाद सिंह, रादशरश मिश्र, केदारनाथ सिंह, विष्णुचंद्र शर्मा, विद्यासागर नौटियाल, रमाकान्त, कृष्णबिहारी मिश्र, विजयमोहन सिंह और भी जाने कितने कवि, कथाकार, आलोचक. उन्हीं दिनों कवि त्रिलोचन, शंभुनाथ सिंह और आलोचक चन्द्रबली सिंह भी सक्रिय थे और नए के लिए संरक्षण और प्रोत्साहन का काम कर रहे थे. सच कहिए तो धूमिल ही नहीं, बनारस में साठ की पीढ़ी भी इसी माहौल का विस्तार और विकास थी. एक समूचे परिदृश्य में उर्दू के शायर न$जीर बनारसी को न$जरअंदाज नहीं किया जा सकता जो न$जर अकबराबादी की विरासत लिए हिन्दी वालों के साथ बड़ी मुस्तैदी से चलते रहे. ये वे दिन थे जब बनारस सचमुच भारतीय संस्कृति ही नहीं, साहित्य की भी राजधानी था.
हालात बदलने शुरू हुए. 1960 के बाद से. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी उसी साल चंडीगढ़ चले गए. फिर तो जैसे जाने वालों का सिलसिला ही शुरू हो गया. कोई पडरौना गया, कोई आरा, कोई अहमदाबाद, कोई दिल्ली, कोई लखनऊ, कोई शिमला, कोई कहीं और. एक दिन नामवरजी भी दिल्ली चले गये. रही-सही कसर त्रिलोचन ने पूरी कर दी. दिल्ली, भोपाल, सागर. इतना ही रहा होता तो गनीमत थी, लेकिन लोगों की प्राथमिकताएं भी बदलनी आरम्भ हो गईं. जो नागरी प्रचारिणी सभा स्वाधीनता आन्दोलन में हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार के लिए समर्पित संस्था के रूप में जानी जाती थी, वह बैंकों और दुकानों काकटरा होकर रह गईं. ऐसे ही पता कीजिए ज्ञानवापी पर कि प्रेमचंद गृह कहां था? गिरजाघर चौमुंहानी के पास कभी सरस्वती प्रेस था. प्रेस भी और साथ में रिहाइशी विशाल भवन भी, जिसमें प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी रहा करती थीं. उन दिनों अमृतराय और हिन्दी के बड़े-बड़े लेखक भी ठहरा करते थे. प्रगतिशील लेखक संघ और साहित्यिक संघ की गोष्ठियां भी नहीं हुआ करती थीं. आज वहां किसी निदान केन्द्र का बोर्ड है. इसी तरह आचार्य रामचंद्र शुक्ल का आवास तबेला और शोध संस्थान बन चुका है. जो विवाह-मंडप, शादी-विवाह और भाड़े पर आयोजनों-समारोहों के काम आता है. पता नहीं, आधुनिक युग के जन्मदाता भारतेन्दु और प्रसाद जी के ठिकानों के क्या हाल हैं? ज्यादा नहीं, ये बीस-तीस वर्षों के अंदर हुए बदलाव हैं जिनका रफ स्केच है यह टिप्पणी. हां, राजधानी आज भी है यह नगर, लेकिन कला और संस्कृति की नहीं, धार्मिक अनुष्ठानों और कर्मकाण्डों की. इस पर कोई गर्व करना चाहे तो कर सकता है. मित्रो, बनारस गंगा भी है और गलियां भी. किसी एक का नाम नहीं है बनारस और यह सच है कि गंगा का रास्ता गलियों से होकर जाता है. गलियां टेढ़ी-मेढ़ी, उल्टी-सीधी, एक-दूसरे को काटती हुई, एक-दूसरी में गुम होती हुई. कभी खुली, कभी बंद. न हवा, न रोशनी. न आकाश, न तारे. चक्करदार, तंग और संकरी. इनका काम ही है भटकाना, गति को मद्धिम कर देना, रोक देना.
मुल्ला, पंडित, पुरोहित, मौलवी-क्या थे कबीर के लिए? किनके खिलाफ लुकाठा लेकर खड़े हुए थे वे? यही गलियां. जिनसे तंग आकर तुलसी ने कहा था-मांग के खइबो, मसीत पे सोइबो, लेबे को एक न देबे को दोऊ. भारतेन्दु, प्रेमचंद, प्रसाद, द्विवेदी- ऐसा कौन है जिसे तंगमिजाज, संकीर्ण, दकियानूस, चक्करदार पथरीली गलियों ने भटकाने और भरमाने की कोशिश न की हो. लेकिन यह भी सच है कि गलियां वहीं हैं जहां गंगा है. जहां गंगा नहीं, वहां गलियां नहीं. गंगा का मतलब है अप्रतिम गति, सतत प्रवाह, कलकल-उच्छल जीवन, खुला आकाश, हवा का मतलब है अप्रतिहत गति, सतत प्रवाह, कलकल-उच्छल जीवन, खुला आकाश, हवा, आवेग, प्रकाश, अछोर, अनन्त विस्तार. तट पर खड़े हो जाइये और आंखें खोलिए, तो हो सकता है कि वह दिखाई पड़े जो नंगी आंखों से कभी न दिखा हो. गंगा दृश्य भी है और दृष्टि भी-बशर्ते आंखे हों. और आंखें हों भी, तो मायोपिक न हों. मायोपिक होंगी तो सिर्फ तट के किनारे मचलती-उछलती सिधरी मछलियां ही देख सकेंगी. पार की हरियाली, बगुले और बादलों में छिपा सूरज नहीं. गलियां और उनके आजू-बाजू की दीवारें आंखों को मायोपिक बनाती हैं. तो मित्रो! बूढ़ा किसी जमाने का अक्खड़ और फक्कड़ बूढ़ा-बैठा है शिवाला घाट पर. बगल में देखता है-चेतसिंह का किला किसी ताज या ओबेरॉय ग्रुप का होटल हो चुका है. धरोहर के रखोरखाव के नाम पर फाइव स्टार होटल. गंगा स्विमिंग पूल में बदल चुकी है और घाट की सीढिय़ों पर लेटे नंगे-अधनंगे विदेशी पर्यटक धूप सेवन कर रहे हैं. बूढ़ा बैठा है और सामने ताकता है धुंध में. नहीं समझ पाता कि यह धुंध दृष्टि की है या दृश्य की. लेकिन सामने धुंध है. निचाट उजाड़, जिसमें कभी-कभी पानी की पतली सी चमक कौंध उठती है. यह भी उसकी समझ नहीं आता कि यह गंगा की ही कोई धारा है या वरुणा? या गंगा ही सिकुड़कर वरुणा हो गई है? इस उजाड़ में घाट पर बैठे बूढ़े को जो चीज जिलाए जा रही है वह है, कहीं दूर से आती हुई धुन, बल्कि धुनें, कभी शहनाई की, कभी ठुमरी की, कभी तबले की. प्रार्थना कीजिए उसका यह भ्रम बना रहे कि ये धुनें राजा चेतसिंह घाट के होटल के डाइनिंग हाल से नहीं आ रही हैं.
(बनास से)

14 comments:

मुनीश ( munish ) said...

THE world is changing faster everywhere and Benaras is no exception . I have never been there though i wish to . Anyway, thanks for this nostalgic piece by none other than legendry Kashinath ji .

आचार्य उदय said...

बढिया लेख।

अनिल कान्त said...

हमने बहुत कुछ खो दिया है और खोते ही जा रहे हैं

Anonymous said...

राऊर पिङा हमरा समझ मे आवता,आप बनारस से हैँ तो आप अपने लेख को भोजपुरी मे भी छाप सकते थे । अपनी भाषा मे जवन मिठास बा ऊ कहीँ और नईखे ।

Rangnath Singh said...

मार्मिक है। अब क्या कहा जाए....बनारस के बारे में। आपने हमें पढ़वाया इसके लिए धन्यवाद।

Avinash Chandra said...

bahut peeda hai, badal to raha hai, par banaras badlaw me bhi bana rahega ye atal vishwas hai mera

Swapnrang said...

बनारस से बहुत पुराना रिश्ता है.इस शहर से बचपन की बहुत यादे जुडी है.अफ़सोस की मैंने उसी बदलते बनारस को ही जाना है जिसकी आत्मा ठेठपन है पर वोह बदलकर कुछ और होना चाहता था. अपनी जिद भी नहीं छोड़ना चाहता.बस यही दुआ निकलती है बना रहे बनारस.

prabhat said...

काशी कक्का अगर बूढ़े हो गए हैं तो यह खबर है. जो उन्हें जानते हैं, वे मानते हैं कि अभी तक तो वह बूढ़े नहीं हुए. बनारस उनमें धड़कता है इसलिए कि वह काशी में रहे भर नहीं, काशी को जिया है उन्होंने. तभी तो जहां जाते हैं, बनारस उनके साथ जाता है. उनका संस्मरण दरअसल बनारस के उन बदलावों को रेखांकित करता है, जो मान्यताओं और प्राथमिकताओं में बदलाव के चलते हुआ है. प्राथमिकताओं में बदलाव का जिक्र तो खुद उन्होंने भी किया है. यह व्यथा उन लोगों की भी है, जिन्होंने इलाहाबाद को जिया, जिन्होंने लखनऊ को जाना है. मेरे सरीखे लोगों को तो ठुमरी और शहनाई काशीनाथ जी के लिखे में ही सुनाई देती रही है और वह अब सुनाई देती है. इसका मतलब यह कि दृष्टि भ्रम की नौबत अभी तक नहीं आई है. कक्का की लुकाठी की आग सलामत रहे, यह मेरी प्रार्थना है. बनास की प्रति मिलने के पहले यह पढ़ाने के लिए शुक्रिया, प्रतिभा.

Unknown said...

Laajwab hai ji. padhkar aanand aa gaya. banars to fir banaras hai...

''अपनी माटी'' वेबपत्रिका सम्पादन मंडल said...

sachaaee bharaa ye lekhan achha lagaa.banaas ko padane kee eechha aur tez ho gayi.

Unknown said...

bahut hi sundar hai ye.

Vishwanath Gokarn said...

हमारे शहर की तारीख सिर्फ अंदाजा


किसी को नहीं मालूम यह कब हुआ आबाद


ये सारे मुल्क के शाहों का एक शहजादा


यहां जो भी आया सदा रहा आबाद


हमारे शहर की तहजीब भी पुरानी है


यहां सिर्फ वफा की हवाएं चलती हैं


ये रोशनी की जमीं प्यार की निशानी


हर एक दीप के पीछे दुआएं चलती है


प्रतिभा जी, आपने काशीनाथ सर का आलेख पढ़ा कर हम नाकिस लोगों पर एहसान किया है. ठेठ बनारसी हूं इसलिए इसके गोशे गोशे से वाकिफ हूं. दरअसल बनारस कोई शहर नहीं बल्कि एक जीता जागता शख्स है. उसका टूट कर बिखरना किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को व्यथित तो करेगा ही. फिर काशीनाथ सर जैसे बनारस के इनसाइक्लोपीडिया को इन सब पर अफसोस होना लाजमी है. बहरहाल एक अच्छे लेखन से रू-ब-रू कराने के लिए शुक्रिया, नवाजिश, करम, मेहरबां और अभिवादन.

Ashok Kumar pandey said...

काशीनाथ सिंह को पढ़ने का अपना मज़ा है। पल्लव ने बनास में उन पर बहुत अच्छा काम किया है।

यहां प्रस्तुति के लिये आभार

Nikhil Srivastava said...

kashinath singh, banaras, budhapa aur pratibha katiyar ki is peshkash ke tarif ke liye shabd kam hain. behad marmik aur jeevant. shukriya.