Thursday, May 9, 2024

भला हुआ मोरी गगरी फूटी....


ये चायल के नगाली गाँव में मेरी आखिरी सुबह थी। जाने से पहले सारी हवा, सारा हरा अकोर लेना चाहती थी। सिर्फ मैं जानती थी कि कितनी बेचैनियां लिए घर से निकली थी इस सफर के लिए। कितनी अनिश्चितता लिए। ऐसी अनमयस्कता कि कहीं न मन लगे न पैर टिकें। अकेले रहते ऊब जाऊँ तो भी किसी से बात करने का जी न करे। जो कभी कर भी जाय बात करने का जी तो समझ न आए कहाँ से शुरू हो संवाद का सिलसिला। दूसरा संभाले ये ज़िम्मेदारी तो लगे थक गयी सुनते-सुनते। बात करना आजकल बात सुनना हो चला है।

कितनी ही बार दिल किया कि अपने चेहरे से पोंछकर पहचान मिटा दूँ, गुमा दूँ तमाम आवाजें, मुंह फेर लूँ  समझदारियों से। मगर ये हो न सका। चंद परछाइयों ने हमेशा पीछा किया, कुछ आवाज़ों ने हमेशा पुकार की जंजीरें से बांधकर रखा, कुछ आँखों ने कभी ओझल न होने का वादा थमा दिया। सोचती हूँ जिन चीजों से भागती रही उम्र भर उन्हीं चीजों ने ज़िंदगी में रोका हुआ है। और ज़िंदगी तो कितनी खूबसूरत है। तो शुकराने में आँखें भर आती हैं उन सब मोह की जंजीरों के प्रति जिनसे भागती फिर रही हूँ। 

हाल ही में देखी हुई फिल्म Irish Wish याद हो आई। सच में, हम कहाँ जानते हैं अपने बारे में कुछ भी...जानता तो कोई और है हम तो बस उसे जीते हैं। तो बस नागली गाँव की उस सुबह के आगे बाहें पसार दी थीं। 

गाँव सब गाँव जैसे ही तो होते हैं। सीधे, सरल मुस्कुराते। उन पगडंडियों पर एक जगह चारा काटने की मशीन देख बचपन की याद खिल गयी जब चारा मशीन में लटक जाने के बावजूद उसे हिला तक नहीं पाती थी। सर पर चारे का गट्ठा लेकर चलने की जिद हो या कुएं से मटकी में पानी भरकर ले जाने की जिद...हर जिद पर होती अपनी मासूम हार की याद खिल गयी। कितना तो खुशकिस्मत बचपन है जो ऐसी प्यारी यादों से भरा हुआ है। 


अभी बचपन की याद का हाथ थाम नगाली गाँव में घूम ही रही थी कि एक अजब सी चीज़ दिखी। कुछ काला गोल जिसमें से धुआँ निकल रहा था और उसमे पानी जैसी टोटी भी लगी थी। पास ही खड़े एक युवक ने बताया यह पानी गरम करने की चीज़ है। भीतर आग जलती हुई किनारे पर पानी जमा होने की व्यवस्था और टंकी से गरम पानी के निकास की तरतीब। यह लोगों का खुद का जुगाड़ है। 

इस देश का वैभव अप्रतिम है। बस हम इस वैभव से इतर न जाने कहाँ उलझे हुए हैं और यही है मूल प्रश्न। इन उलझे सवालों के साथ और ज़िंदगी को खूब जी लेने की कशिश के साथ मैं भागती फिर रही थी गाँव में। तभी मेरा पाँव फिसला और सर्रर्रर्र....गिरी तो कोई उठाने वाला भी नहीं था। खुद उठी और खुद की तलाशी ली। दाहिने हाथ की कलाई ने देह का सारा बोझ उठा लिया था सो मैडम दर्द से कराह उठीं। थोड़ी चिंता तो हुई मुझे कि अभी एक लंबा सफर करना है ऐसे में अगर हाथ ने हाथ खड़े कर दिये तो कैसे होगा। 

कमरे पर लौटी, हाथ धोया और छिली हुई जगह पर डेटोल लगाया। दर्द मूसलसल जारी थी। पैकिंग करते हुए मुस्कुराहट थी इर्द-गिर्द। कल शाम कहानी में विक्टर ऐसे ही फिसल गया था जिसे देख शैलवी देर तक हँसती रही थी और विक्टर नाराज हो गया था। और आज सुबह मैं फिसल गयी। अब मुस्कुराने की बारी विक्टर की थी। 
हाथ में दर्द तो था लेकिन वो मुड़ रहा था और इस बात का सुकून था कि शायद फ्रैक्चर तो नहीं है। कैब आ चुकी थी...चला चली की बेला थी...मिताली आई और मुस्कुराकर गले लगी। मैंने महसूस किया कि वो सिसक रही है। आर्यन बाबू खड़े हुए थे, उनके चेहरे पर मुस्कुराहट भी थी और फिक्र भी। रास्ते के लिए बेसन के चीले पैक करके देते वक़्त आर्यन मूव और पट्टी लेकर भी खड़ा था। मिताली ने मूव लगाया और कॉटन बैंडेज बांधी। 


कुछ ही दिनों में कैसे ये अनजान दुनिया अपनी हो चली थी। मैंने आँख भर सामने खड़े पेड़ों को देखा वो लहरा उठे। कैब सड़क पर दौड़ रही थी मन वहीं छूट रहा था....

मेरे पास वक़्त थोड़ा बचा हुआ था, मैंने संतोष को बोला, कसौली होते हुए चलें तो देर तो न होगी। उसने कुछ कहे बिना कसौली की सड़कों पर कैब मोड दी। कैब में उसने अपनी पसंद के गाने बजाए और मुझे सब अच्छे लग रहे थे। कभी-कभी खुद को दूसरों की पसंद के हवाले भी करना चाहिए। कसौली की सड़कों से फिर से गुजरना यूं लग रहा था मानो अपने ही एक ख़्वाब को फिर से छू लिया हो। 

संतोष ने एक जगह ब्रेक के लिए कैब रोकी और मैं उस कैफे की छत पर पड़ी खाट पर पसर गयी। करीब 40 मिनट बाद आँख खुली। ऐसी गहरी नींद...ऐसे राह चलते मिलेगी सोचा न था। कसौली होते हुए ही कालका स्टेशन समय से पहले ही पहुँच गयी थी। 

वेटिंग रूम में छुपी तमाम कहानियों की स्मृतियाँ कौंध गईं। वापसी की ट्रेन में बैठे हुए देह और मन को जैसे पंख लग गए थे...चलते वक़्त हिमाचल ने नींद साथ रख दी थी। 

देहरादून पहुँचकर ऊँघते हुए सुबह की चाय बनाते हुए कलाई का दर्द किसी तोहफे सा लगा...न कोई फ्रैक्चर नहीं था बस जरा सा दर्द था कुछ दिन साथ रहा और फिर चला गया जैसे भेजने आया हो मुझे मेरे शहर तक। 

Tuesday, May 7, 2024

उसके चेहरे में कई चेहरे थे...


'जिंदा रहना क्यों जरूरी होता है?' कॉफी पीते-पीते मिताली के होंठों से ये शब्द अनायास ही निकले हों जैसे। जिन्हें खुद सुनने पर वो झेंप गयी। शायद यह सोचकर कि भीतर चलने वाली बात बाहर कैसे आ गयी। जबकि सामने कोई अजनबी यानि मैं थी। उसकी झेंप समझ गयी थी इसलिए यूं जताया मानो कुछ सुना ही नहीं मैंने। उसकी आँखों में बादल डब-डब कर रहे थे। वो उठकर छत के किनारे पर टहलने लगी थी।

क्या हुआ होगा कि इस खूबसूरत प्रवास की पहली सुबह में ऐसे सुंदर लम्हों में इस लड़की की उदासी को ज़िंदगी को यूं कटघरे में खड़ा करना पड़ा होगा। अभी इस देश में लड़कियों का अकेले ट्रैवेल पर निकलना बहुत सहज तो नहीं है। 

मिताली की कहानी जानने की इच्छा हो रही थी लेकिन उसकी प्राइवेसी में किसी सवाल को कैसे भेज देती सो चुप रही। कोई पंछी डाल पर बैठा अपने पंख खुजा रहा था, जैसे वक़्त का पंछी हो, खुद में खुद को खँगालता। एक ठंडी आह निकली मन से लड़कियों का अकेले यात्राओं पर निकलना लड़कों के अकेले यात्राओं पर निकलने से काफी अलग होता है। 

इस बीच एक कहानी स्क्रीन के आसपास मंडराने लगी थी। विक्टर और शैलवी की कहानी। उस कहानी की गलियों में घूमना अच्छा लग रहा था। 

दिन रंग बदल रहा था। बदली और धूप का खेल जारी था। मिताली छत पर लगे झूले पर सो गयी थी। बड़ी प्यारी लग रही थी। जी चाहा उसका माथा सहला दूँ फिर देखा मौसम ने ये जिम्मा ले रखा है। वो दे रहा है थपकियाँ और सहला रहा है माथा। उसे सोता छोड़कर कमरे में आ गयी। 

शाम की वाक पर विक्टर और शैलवी साथ थे। उनमें किसी बात को लेकर झगड़ा हो गया था। विक्टर रूठी हुई शैलवी को मनाने की बजाय खुद ही रूठकर बैठा था...ये लड़के भी कमबख्त। इन्हें बिगाड़ना तो आता है, संभालना जाने कब सीखेंगे। अरे, पास जाकर गले से लगा ले या माथा ही चूम ले...बस मान जाएगी वो। लेकिन दुनिया जहान की बातें कर लेंगे बस मना नहीं पाएंगे। शैलवी की बड़ी-बड़ी आँखें विक्टर की बाहों में समा जाने को किस कदर बेताब हैं ये सारे जमाने को दिख जाएगा सिवाय विक्टर के। मैं उनके रूठने मनाने के खेल को देखकर मुस्कुरा दी। 

ऐसी खूबसूरत शाम, ऐसे हसीन रास्ते और ऐसा सूनापन...सड़क के सीने से लगकर पसर जाने का जी किया। इन रास्तों पर घंटों बाद ही कभी कोई गुजरता है सो मैं सड़क पर पसर गयी। 


कुछ देर लेटी ही रही तभी कुछ खिलखिलाहटों का रेला सा आता सुनाई दिया। 4 महिलाएं पैदल गप्प लगाती, हँसती खिलखिलाती चली आ रही थीं। ये कितनी दूर से पैदल आ रही होंगी, कितनी दूर जाएंगी इसका कोई हिसाब नहीं...लेकिन वो सब खुश दिख रही थीं। मुझे सड़क पर पसरे देख वे ठिठक गईं, लेकिन मेरी मुस्कान ने उन्हें सहज किया। मैंने उठते हुए पूछ लिया आप लोग इसी गाँव से हैं? उन्होंने हाँ कहा। उनमें से दो शिक्षिकाएँ थीं। एक युवा लड़की थी जो बार-बार फोन में सिग्नल तलाश रही थी। 

तभी मुझे मिताली आती दिखाई दी...ऐसा लगा कोई अपना आता दिखाई दिया हो। वो भी उसी अपनेपन से मुस्कुरा दी। जाती हुई शाम को हम दोनों ने मुठ्ठियों में बंद कर लिया और एक नए रास्ते पर चल पड़े...मिताली का चेहरा अब थोड़ा रिलेक्स लग रहा था। इन पहाड़ों ने अपना काम कर दिया था। 

शाम मैं और मिताली देर तक साथ बैठे रहे। उसका दिल खुलने को व्याकुल था और मैं भी लंबी चुप्पी से उकता चुकी थी। मिताली की कहानी साझा करना उसके निज की चोरी करने जैसा होगा इसलिए वो बात तो नहीं कर सकती सिवाय इसके कि ज़िंदगी की सताई यह लड़की इन पहाड़ों पर राहत लेने आई है। ऐसा लगता है दुनिया भर की औरतों को ऐसी राहतों की जरूरत है, कुछ को इसका एहसास है, कुछ को नहीं है। लेकिन वो औरतें जो पहाड़ों पर ही रहती हैं उनका क्या। उन्हें भी तो कभी राहत की दरकार होती होगी। 


मिताली की ओर देखकर मैं सोचने लगी, इसका चेहरा तो मेरे जैसा ही है एकदम...इसके चेहरे में न जाने कितनी औरतों के चेहरे हैं जो अपने-अपने जीवन युद्ध में जूझ रही हैं। 

अगले दिन वापसी थी...और नींद दरवाजे पर खड़ी थी...मिताली ने जाते-जाते सिरहाने पानी रखा और नींद को दरवाजे से बुलाकर मेरे पास बैठा दिया। 

(जारी)

Saturday, May 4, 2024

अच्छा लगने की उम्र कम क्यों होती है....



बचपन में ड्राइंग बनाते थे। एक पहाड़, एक नदी, एक घर, घर के आगे पेड़ और पहाड़ के पीछे सूरज हुआ करता था। सूरज की किरणें साइकिल की तीली जैसी नुकीली होतीं और पहाड़ समोसे जैसे तिकोने। ड्राइंग की कॉपी में हमने जैसे भी सूरज, नदी, पहाड़ बनाए हों लेकिन उस ड्राइंग ने जीवन में पहाड़, सूरज, नदी, जंगल सब शामिल कर दिये थे। जैसे ड्राइंग का वो पन्ना ज़िंदगी का बढ़ा हुआ हाथ हो...जिसे थामकर आज इन विशाल पहाड़ों  के सम्मुख बाहें फैलाये खड़ी हूँ। ड्राइंग में बनाई वो टेढ़ी-मेढ़ी नदी कब आकर आँखों में बस गयी पता नहीं। पता तब चला जब वो जब-तब छलकने को व्याकुल होने लगी। ये नदी सुख में ज्यादा लहराती है। इस नदी का बहना जैसे टूटती साँसों को संभाल लेना।

गालों पर बहती इस नदी पर सूरज की किरणों का पड़ना कितना सुंदर होता होगा नहीं जानती थी। चायल के उस नगाली गाँव की मुट्ठी में जो सुबह छुपी थी उसके पास हुनर थे तमाम उधड़ी रातों को रफू करने के। ठंडी हवा और मध्धम धूप मिलकर बालों से खेल रहे थे। ऐसी बेफिक्र सुबहें कितनी कम आती हैं। कम क्यों आती हैं भला ये सवाल पूरी दुनिया के लिए है।

कुछ देर सूरज को ताकने के बाद नई पगडंडी पर कदम रखे। यह पगडंडी गाँव के भीतर उतर रही थी। सुबह का जीवन अंगड़ाई ले रहा था। मवेशियों की जुगाली, बच्चों का स्कूल के लिए तैयार होना, औरतों का जल्दी-जल्दी घर के काम निपटाना...बरतन माँजती सुशीला जी के करीब बैठकर चुपचाप उनका गुनगुनाना सुनती रही। वो मुस्कुराकर मुझे देख रही थीं। मैंने हाथ के इशारे से उन्हें गाते रहने का इसरार किया जिसे उन्होंने मान लिया। गाना बर्तन साफ होने से पहले खत्म हुआ और उन्होंने मुझसे हँसकर कहा, 'आपको समझ तो न आया होगा'? मैंने कहा, 'हाँ, समझ तो नहीं आया लेकिन सुंदर था। आप इतनी खुश दिख रही थीं गाते हुए'। उन्होंने बताया कि इस गीत में हिमाचल की खूबसूरती के बारे में बताया गया है। मुझे अपने नरेंद्र सिंह नेगी जी याद आ गए और उनका गाना...'ठंडो रे ठंडो मेरे पहाड़ का पानी ठंडो हवा ठंडी...'.

पेट में भूख की कुलबुलाहट शुरू हुई तो घड़ी पर नज़र पड़ी। ओह दस बज गए। 4 घंटे हो गए यूं आवारगी करते हुए। वापस लौटी तो आर्यन ने पूछा नाश्ते में क्या खाएँगी? मैं अकेली ही रुकी थी यहाँ तो जो मैं बोलती थी वही बन जाता था। इस जो बोलती हूँ बन जाने में कद्दू भी शामिल है।

मैंने कहा, 'क्या बना सकते हो जल्दी से, तेज़ भूख लगी है।' उसने हँसते हुए कहा, 'जो आप कहें।
वैसे छोले पूड़ी बनी है अगर आप खाना चाहें'। उसने सूचना भी जोड़ दी। तेल मसाले के खाने से बहुत दूर रहती हूँ मैं इसलिए छोले पूड़ी का नाम सुनते ही सिहरन सी हो गयी। फिर सोचा चलो कोई बात नहीं आज ये भी सही। उसे कहा 'ठीक है जो बना है वही ले आओ अलग से क्यों बनाना'।
वो खुश हो गया।

जब वो छोले पूड़ी का नाश्ता बालकनी में टेबल पर रख रहा था तब उसने बताया एक और मैडम आई हैं कल रात। उन्होंने ही रात ही बोल दिया था छोले पूड़ी के लिए। वैसे आपको अच्छा लगेगा। मैंने मुस्कुराकर उसके गाल थपथपा दिये। सत्रह बरस का वो किशोर शरमा गया।

छोले सच में अच्छे बने थे हालांकि पूड़ी की साइज़ ने डरा दिया। लेकिन भूख और शायद लगातार चलते रहने के कारण मैं जिन दो पूरियों को देखकर घबरा रही थी आराम से डकार गयी। नाश्ते के बाद वहीं लुढ़क गयी...हाथ में थी 'धुंध से उठती धुन....'साहित्य हमें पानी नहीं देता, वह सिर्फ हमें अपनी प्यास का बोध कराता है। जब तुम स्वप्न में पानी पीते हो तो जागने का सहसा एहसास होता है कि तुम सचमुच कितने प्यासे हो।'

निर्मल को पढ़ना जैसे अपने ही खोये हुए मन को पा लेना। जब सफर के लिए घर से निकली थी तो लोर्का और निर्मल वर्मा साथ हो लिए थे। आज नगाली गाँव के इस कोने में देवदारों की छाया में गुनगुनी धूप में लेटे हुए न जाने कितनी बार पढ़ी हुई इन लाइनों को फिर से पढ़ना सुख दे रहा था। पढ़ते-पढ़ते आँख लग गयी। बालकनी में झुक आई शाखें लगातार पंखा झल रही थीं।
 
मौसम बदला, बदली घिरी और ठंडी हवा ने गुदगुदाया। भीतर जाकर रज़ाई में धंस जाना आह, कैसा तो सुख था। हालांकि नींद जा चुकी थी लेकिन यूं लेटे रहना अच्छा लग रहा था। ऐसा बेफिक्र समय कितना कीमती होता है। कबसे तो चाहती थी कि काश! बस चंद लम्हों को तमाम जिम्मेदारियों से, दुश्वारियों से आज़ाद हो सकूँ।
चाय पीने की इच्छा हुई लेकिन बनाने की नहीं हुई...

घड़ी में सिर्फ 12 बजे थे। एक पूरा दिन सामने था और मैं थी। चाय बनाई और बाहर छाई बदलियों को देख मुस्कुरा दी। स्वाति की आवाज़ में 'कहाँ से आये बदरा...' बजा लिया। फुर्सत तलाशती तो रहती हूँ लेकिन फुर्सत से बनती नहीं है मेरी। वर्कोहलिक का टैग बहुत पहले ही लग चुका है। कमरे से लेकर देह तक रेंगती फुर्सत में स्मृतियों का पानी घुलने लगा। लिखने का सुर तो जाने कबसे रूठा हुआ है लेकिन उस रोज कुछ लिखने का दिल चाहा। लैपटॉप लेकर छत पर चली गई। लिखने का दिल चाहना, लैपटॉप खोलने का अर्थ यह बिलकुल नहीं कि लिख ही पाऊँगी ये जानती हूँ क्योंकि यह खेल अब पुराना हो चला है। खाली स्क्रीन को ताकते रहना, वाक्यों को लिखना मिटाना और हारकर आसमान देखने लगना।

छत बहुत सुंदर थी। कुछ देर तक छत पर टहलती रही फिर लैपटॉप में कुछ तलाशने लगी। तभी किसी के आने की आहट हुई। एक साँवली सी दरमियाना कद की दुबली सी लड़की आई। आँखों से हमने एक-दूसरे को हैलो कहा और मैं लिखने का नाटक करने लगी। अब मैंने खुद पर लिख रही हूँ का लेवल चिपका लिया था और ये किसी ने देख लिया था इसलिए कुछ देर तो यह नाटक चलाना ही था। चेहरे पर बेमतलब के गंभीर भाव ओढ़े मैं शब्दों की जुगाली करने में लगी थी। जाने क्यों लग रहा था वो मुझे ही देख रही होगी। चोर नज़रों से मैंने उसे देखा वो तो मेरी तरफ पीठ करके किसी से फोन पर बात कर रही थी।

लिख रही हूँ के ढोंग से जरा राहत मिली। हंसी भी आई कि कितने आवरण बेवजह ओढ़ने के आदी हम अनजाने ही ऐसा व्यवहार करते हैं जिसकी हमें खुद से भी उम्मीद नहीं होती।

ज़ेहन में कितना कुछ चलता है लिखने बैठो तो एक शब्द पर टिकने का मन न करे...कैसी तो धुंध होती है ये। न लिख पाने की पीड़ा को सहना जबरन लिखने की कोशिश से बेहतर हमेशा ही पाया है। कोशिश करके कभी एक वाक्य न लिख पायी हूँ। हालांकि न लिख पाने की पीड़ा की किरचों की चुभन को खूब सहा है।

'आप कॉफी पिएंगी?' इस वाक्य ने मुझे बेकार के सोच-विचार के दलदल से बाहर खींच लिया। मुझे यह वाक्य बड़ा मीठा लगा इस वक़्त। कॉफी पीने की इच्छा न होने के बावजूद मैंने हाँ कह दिया। इस हाँ में उस लड़की से संवाद के द्वार जो खुलते नज़र आ रहे थे। आर्यन ने अच्छी कॉफी बनाई थी। कॉफी पीते हुए उस लड़की ने अपना नाम बताया, 'मेरा नाम मिताली है। कल रात ही आई हूँ'।

मैंने अपना नाम बताया और उसके चेहरे पर आँखें गड़ा दीं। उस साँवले चेहरे पर उदासी की लकीरें साफ नज़र आ रही थी...उन लकीरों में कई कहानियाँ छुपी थीं...

(जारी...)

Wednesday, May 1, 2024

विदाई का नेग बारिश...



सा...गा...म...ध...नी....स...
ध....नी...स...म...ग...म...ग...स
स...म..म...ग...म...ग ...स....

जाने कितने बरसों बाद राग मालकोश मेरे होंठों पर खुद-ब-खुद चला आया था...उस नन्ही बुदबुदाहट में अजब सा सुकून था। वो दिन याद आए जब सितार सीखा करती थी और पड़ोस में चल रही गायन की कक्षा के बाहर खड़े होकर एक सुर में गाती लड़कियों को देखा, सुना करती थी।  खुद भी गा सकती हूँ का भरोसा जाने कभी क्यों न आया लेकिन उस कक्षा के बाहर से सुने हुए को अकेले कमरे में गुनगुनाया कई बार। शायद तभी से वृंदावनी सारंग और मालकोश प्रिय राग हो गए। 

ये देवदार के जंगलों का जादू है या स्मृति के सन्दूक से निकल भागी कोई याद....कि अनायास आज मेरी देह पर मालकोश झर रहा था। 'नव कलियन पर गूंजत भँवरा....' इस लम्हे में घुटनों तक की आसमानी स्कर्ट, सफ़ेद शर्ट में दो चोटी वाली लड़की ज्यादा थी। उस लड़की की ओर हाथ बढ़ाया, उसने मुझे अजनबी नज़रों से देखा। मैंने उसे गले लगा लिया। कुदरत आलाप ले रही थी और मैं उस लड़की को सीने से लगाए हुलस रही थी। 


अजनबी चेहरों में कई बार बहुत सारा भरोसा, अपनापन छुपा होता है, ठीक वैसे ही जैसे अनजानी राहों में सुंदर दृश्यों की भरमार। जोखिम भी होते हैं लेकिन इन जोखिमों के होने की आशंका से तो पार पाना ही पड़ेगा। ऐसी ही एक अजनबी पगडंडी पर चलते हुए इस छोटी लड़की से मुलाक़ात हो गयी। हम दोनों देर तक एक पेड़ के नीचे बैठे रहे। कितनी लंबी यात्रा...वहाँ से यहाँ तक। उस लड़की को देखती...उसकी भोली आँखों में आत्मविश्वास का 'आ' भी नहीं दिख रहा था...न सपना कोई। देर तक उसका हाथ थाम जंगल में घूमती रही। मैं उसके लिए अनजानी थी, वो मेरे लिए नहीं। हम दोनों बिछुड़ी सखियाँ थीं, असल में हम दो थीं भी कहाँ... 

चायल पैलेस में यह मेरा आखिरी दिन था। चलते-चलते फिर एक और चक्कर लगाने निकल पड़ी इस प्यारी सी लड़की का हाथ थाम। सामान पैक था। कैब का इंतज़ार था। कमरे के बाहर इन अमृत वनों को जी भर के आँखों में अकोर लेना चाहती थी। हथेलियाँ फैलाईं और उस पर बूंदें आ बैठीं। ओह बारिश....मन थिरक उठा उस एक बूंद के स्पर्श से। मानो चायल पैलेस ने चलते-चलते हथेलियों पर विदाई का नेग रख दिया हो। नन्ही बूंदों को देवदार की पत्तियों पर झरते देखना चलते वक़्त लिपटकर रो लेने जैसा था। कैब आ गयी थी औरआगे की यात्रा शुरू हो चुकी थी।

मैं चायल से नहीं जा रही थी, चायल पैलेस से जा रही थी। चायल में ही अगला ठिकाना था यहाँ से 40 किलोमीटर दूर एक गाँव में जिसका नाम था नगाली। 

नागली में तीन दिन रहना था। यह टूरिस्ट सीजन नहीं था इसलिए मुझे तो चायल भी शांत ही मिला और यह नगाली गाँव। यहाँ तो कई घंटे बाद कोई इंसान नज़र आता था। कोई बाइक, कोई कार शायद दिन में एक या दो बार गुजरते होंगे और कभी-कभार कोई पैदल जाता दिख जाता। 

जिस होम स्टे में रुकी थी वहाँ भी आवाज़ लगाने पर  सिर्फ केयर टेकर आर्यन नज़र आता वरना लगता है यह सारा संसार मेरा ही है, यहाँ सिर्फ मैं ही हूँ। बालकनी से जो खूबसूरत दृश्य दिखा उसके बाद लगा ये दिन सुंदर होने वाले हैं। सबसे पहले कमरे के सोफ़े को बालकनी में रखवाया और एक छोटी टेबल भी। बस फिर जम गया आसन मेरा और मेरी तनहाई का....

पहुँचते ही तेज़ भूख ने धावा बोला और इच्छा बुदबुदाई, 'दाल चावल'। इतना स्वादिष्ट दाल चावल आर्यन ने खिलाया कि मन खुश हो गया। थकन, सुकून और खाने की तृप्ति ने मिलकर नींद के समंदर में धकेल दिया। 


आँख खुली तो शाम हो चुकी थी। सामने दिख रही वादियों में उतर जाने की ख़्वाहिश हिलोरें लेने लगी। सामने जितनी राहें थीं सब अनजानी थीं। किसी भी राह पर कदम रखा जा सकता था...सो रख दिया एक राह पर। रास्तों की खामोशी कानों में मिसरी घोल रही थी। 

जीवन साथ चल रहा था। मैंने उसे मुस्कुराकर देखा तो उसने पलकें झपका दीं। मैं मन ही मन हंस दी। यह जो जीवन है न इतना दुष्ट है कि क्या कहें। हमेशा हमारी बनाई हुई योजनाओं की धज्जियां उड़ाने की फिराक में रहता है। इसकी मनमानी के आगे किसी की नहीं चलती। लेकिन इसके पास हमारे लिए कुछ और ही योजनाएँ होती हैं जिनका हमें पता नहीं होता। अब जीवन से लड़ती नहीं बस उसकी मुट्ठी खुलने का इंतज़ार करती हूँ कि देखूँ क्या है इसमें मेरे लिए। 



देवदार के घने जंगलों के बीच उस सर्पीली सी राह पर जीवन के साथ चलते-चलते वक़्त का कुछ पता ही नहीं चला। रात करीब सरक आई थी और चाँद भी अब हमारे साथ हो लिया था। घड़ी देखी तो कमबख्त वक़्त काफी दूर निकल चुका था। आज मुझे वक़्त की परवाह नहीं थी लेकिन बेखयाली में मैं कितनी दूर आ गयी हूँ अपने ठीहे से यह पता नहीं था सो लौटना जरूरी था। 

देर रात तक बालकनी में पड़े सोफ़े पर पसरे हुए सुनती रही जीवन राग...रात कब गयी पता नहीं, सुबह के आने की ख़बर परिंदों ने दी। 
(जारी)