Saturday, February 12, 2022

अब पहुंची हो तुम




आखिर मुझ तक भी पहुँच ही गयी 'अब पहुंची हो तुम'.
एक सप्ताह से छुट्टियों की राह ताक रही हैं 7 किताबें. आज सब पैकेट खुले हैं. धूप खिली है. सुबह की पहली चाय के साथ महेश पुनेठा जी की कविताओं का साथ रहा. महेश जी को पहले से पढ़ती रही हूँ लेकिन इस तरह संग्रह में पढ़ने का सुख अलग है. ये कवितायें सखा भाव से बिना किसी हो हल्ले के करीब आकर बैठ जाती हैं. इन्हें पढ़ते हुए महसूस होता है कि ऐसा ही तो हम भी सोच रहे थे. अरे, यह तो मेरी ही बात है. मेरे तईं बड़ी रचना वो है जो अपने पाठकों का हाथ थाम ले, उनके दिल में जगह बना ले. पाठकों के भीतर हलचल पैदा करे उन्हें परिमार्जित भी करे. और यह सब इतना अनायास हो कि पाठक समझ भी न पाए कि कब उसके भीतर की गिरहों को कोई खोल गया है.
ये कवितायें जीवन के नन्हे नन्हे लम्हों को सहेजती हैं. सहजता से बड़ी बात करती हैं. कवि भी वही जीवन जीता है जो जीते हैं बाकी सब, वही सब देखता सुनता है जो देखते सुनते हैं बाकी सब. कवि की संवेदना और उसका व्यापक नजरिया उसी देखे सुने को सहेज कर सुभीते से सामने रख देता है. वो रसोई की खदबदाहट को जिस तरह सुनते हैं वह आसान नहीं. वह गहन संवेदना की मांग करता है. स्त्रियाँ, पहाड़, राजनीति, नदी, जंगल, गोरु सब उनकी कविताओं में मिलते हैं. उनकी कविताओं में लोक की खुशबू है, अपनापन है, देश समाज की चिंताएं हैं. महेश जी की कवितायें सरलता से बड़ी बात करने वाली कवितायें हैं. मुझे यकीन है ये कवितायें आम पाठकों से लेकर कविता के सुधी परिमार्जित पाठकों तक का प्यार पायेंगी.
कुछ कविता अंश-
वह सुख लिखने लगी
सोचती रही
सोचती रही
सोचती रह गयी
फिर
वह दुःख लिखने लगी
लिखती रही
लिखती रही
लिखती ही रह गयी.
----
सड़क
अब पहुंची हो तुम गाँव
जब पूरा गाँव शहर जा चुका है.
----
लम्बा अरसा गुजर गया है
सब्जी की टोकरीऔर दाल के डिब्बे
सीधे मुंह बात नहीं करते मुझसे
और खाली जेब मैं भी
उनसे कहाँ आँख मिला पाता हूँ.
----
पिछली बार उन्होंने घोषणा की थी
हम तुम्हारा भला चाहते हैं
कुछ सालों में ही
हमारे खेतों से
हमारे अपने बीज गायब हो गए
हमारे अपने कीटनाशक गायब हो गये
हमारी अपनी खाद गायब हो गयी
बस बाख गयी केवल किसानी
अबकी वो फिर बोले हैं
हम तुम्हारा भला चाहते हैं.
---
देखता हूँ
जहाँ जले हैं
सबसे अधिक दिए
मोमबत्तियां
विद्युत् मालाएं और बल्ब
पाता हूँ
वहीँ छुपा है
सबसे अधिक अँधेरा.
---
सत्ताएँ
डरती रही हैं
सत्य से
अहिंसा से
और सबसे अधिक
प्रेम से.
----
कुछ लोग किताबों को
ऐसे पढ़ते हैं
जैसे किसान अपने बीजों को
बोने से पहले
भिगो लेते हैं पानी में
उन्हें ही डालते हाँ खेतों में
जो बैठ जाते हैं तले में
तैरने वालों को
खिला देते हैं जानवरों को
उनके जीवन में किताबें
फसलों की तरह लहलहाती रहती हैं.
---
गांवों को जोड़ती हैं
लड़खड़ाती पगडंडियाँ
---
लोकतंत्र के लोहे पर
आन्दोलन देते हैं धार
सत्ता पर कुंडली मारे
उन पर करते नित वार हैं
लोकतंत्र उनकी मजबूरी है
इसलिए कहते
धार गैर जरूरी है.
किताब समय साक्ष्य प्रकाशन से प्रकाशित हुई है.


No comments: