Wednesday, February 16, 2022

न पूछ परीज़ादों से



कल रात 12 बजे के करीब ‘परिज़ाद’ का आखिरी एपिसोड देखा. मैंने खुद को ख़ुशी के आंसुओं में तर इस कदर कब कुछ देखते हुए पाया था याद किया तो जल्दी से कुछ याद नहीं आया.

इस सीरीज का अंतिम सिरा जब रात के 12 बजे हाथ से छूटता है तो लगता है कितना हल्का महसूस कर रही हूँ. दो दिन पहले बीते वैलेंटाइन डे को मुंह चिढ़ाती एक अलग सी कहानी. प्रेम क्या है आखिर, कैसा होता है, कैसे निभाया जाता है, बिना सम्मान के भला कौन सा प्रेम...जैसे तमाम सवाल ढुलक जाते हैं. परिज़ाद से प्यार हो जाता है. दुनिया ने जिसे खोटा सिक्का कहकर हमेशा नकारा, जो गुरबत की गलियों में पला बढ़ा. ख़्वाब देखने से पहले पलकें झुका लेने वाला, बेहद अंडर कांफिडेंट परिज़ाद भीतर से इतना खूबसूरत, भोला और भला इंसान है कौन न प्यार कर बैठे उसे. सारी दुनिया उसके गहरे रंग, सादा से रूप के आगे उसकी काबिलियत उसके हुनर को दुत्कारती रही लेकिन उसने किन्ही भी हालात में भीतर की नदी को सूखने नहीं दिया, अपने भीतर की अच्छाई को खुद से दूर जाने नहीं दिया. ऐसा करने के लिए उसने कुछ प्रयास नहीं किया क्योंकि वो तो ऐसा ही था उसे वैसा ही होना आता था. मुझे कुछ पसंद आ जाए तो मैं बिंज वाच करती हूँ. परिज़ाद इन दिनों सोते-जागते साथ रहा. उसकी आँखे, उसकी चाल उसकी आवाज़, उसकी पोयट्री सब साथ चलते हैं. उसके संघर्ष नहीं रुलाते, प्यार रुलाता है. सच में किसी ख़्वाब सा लगता है परिज़ाद का होना. ऐसे ख़्वाब बचाए जाने चाहिए, हमें बहुत सारे परिज़ाद चाहिए. परिज़ाद को पसंद करना ज़िन्दगी को, पोयट्री को, इंसानियत को प्यार करना है.
 
परिज़ाद देखने का सुझाव करीब तीन दिन पहले डा अनुराग आर्या ने दिया था. डा अनुराग के सुझाव से पहले जब भी कुछ देखा है मन खुश-खुश सा हुआ है. शुक्रिया डा अनुराग. आगे भी ऐसे ही सजेस्ट करते रहियेगा.
परिज़ाद एक पाकिस्तानी सीरीज है जो यूट्यूब पर उपलब्ध है.


Saturday, February 12, 2022

अब पहुंची हो तुम




आखिर मुझ तक भी पहुँच ही गयी 'अब पहुंची हो तुम'.
एक सप्ताह से छुट्टियों की राह ताक रही हैं 7 किताबें. आज सब पैकेट खुले हैं. धूप खिली है. सुबह की पहली चाय के साथ महेश पुनेठा जी की कविताओं का साथ रहा. महेश जी को पहले से पढ़ती रही हूँ लेकिन इस तरह संग्रह में पढ़ने का सुख अलग है. ये कवितायें सखा भाव से बिना किसी हो हल्ले के करीब आकर बैठ जाती हैं. इन्हें पढ़ते हुए महसूस होता है कि ऐसा ही तो हम भी सोच रहे थे. अरे, यह तो मेरी ही बात है. मेरे तईं बड़ी रचना वो है जो अपने पाठकों का हाथ थाम ले, उनके दिल में जगह बना ले. पाठकों के भीतर हलचल पैदा करे उन्हें परिमार्जित भी करे. और यह सब इतना अनायास हो कि पाठक समझ भी न पाए कि कब उसके भीतर की गिरहों को कोई खोल गया है.
ये कवितायें जीवन के नन्हे नन्हे लम्हों को सहेजती हैं. सहजता से बड़ी बात करती हैं. कवि भी वही जीवन जीता है जो जीते हैं बाकी सब, वही सब देखता सुनता है जो देखते सुनते हैं बाकी सब. कवि की संवेदना और उसका व्यापक नजरिया उसी देखे सुने को सहेज कर सुभीते से सामने रख देता है. वो रसोई की खदबदाहट को जिस तरह सुनते हैं वह आसान नहीं. वह गहन संवेदना की मांग करता है. स्त्रियाँ, पहाड़, राजनीति, नदी, जंगल, गोरु सब उनकी कविताओं में मिलते हैं. उनकी कविताओं में लोक की खुशबू है, अपनापन है, देश समाज की चिंताएं हैं. महेश जी की कवितायें सरलता से बड़ी बात करने वाली कवितायें हैं. मुझे यकीन है ये कवितायें आम पाठकों से लेकर कविता के सुधी परिमार्जित पाठकों तक का प्यार पायेंगी.
कुछ कविता अंश-
वह सुख लिखने लगी
सोचती रही
सोचती रही
सोचती रह गयी
फिर
वह दुःख लिखने लगी
लिखती रही
लिखती रही
लिखती ही रह गयी.
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सड़क
अब पहुंची हो तुम गाँव
जब पूरा गाँव शहर जा चुका है.
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लम्बा अरसा गुजर गया है
सब्जी की टोकरीऔर दाल के डिब्बे
सीधे मुंह बात नहीं करते मुझसे
और खाली जेब मैं भी
उनसे कहाँ आँख मिला पाता हूँ.
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पिछली बार उन्होंने घोषणा की थी
हम तुम्हारा भला चाहते हैं
कुछ सालों में ही
हमारे खेतों से
हमारे अपने बीज गायब हो गए
हमारे अपने कीटनाशक गायब हो गये
हमारी अपनी खाद गायब हो गयी
बस बाख गयी केवल किसानी
अबकी वो फिर बोले हैं
हम तुम्हारा भला चाहते हैं.
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देखता हूँ
जहाँ जले हैं
सबसे अधिक दिए
मोमबत्तियां
विद्युत् मालाएं और बल्ब
पाता हूँ
वहीँ छुपा है
सबसे अधिक अँधेरा.
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सत्ताएँ
डरती रही हैं
सत्य से
अहिंसा से
और सबसे अधिक
प्रेम से.
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कुछ लोग किताबों को
ऐसे पढ़ते हैं
जैसे किसान अपने बीजों को
बोने से पहले
भिगो लेते हैं पानी में
उन्हें ही डालते हाँ खेतों में
जो बैठ जाते हैं तले में
तैरने वालों को
खिला देते हैं जानवरों को
उनके जीवन में किताबें
फसलों की तरह लहलहाती रहती हैं.
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गांवों को जोड़ती हैं
लड़खड़ाती पगडंडियाँ
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लोकतंत्र के लोहे पर
आन्दोलन देते हैं धार
सत्ता पर कुंडली मारे
उन पर करते नित वार हैं
लोकतंत्र उनकी मजबूरी है
इसलिए कहते
धार गैर जरूरी है.
किताब समय साक्ष्य प्रकाशन से प्रकाशित हुई है.


Monday, February 7, 2022

कहानी- थैंक यू


पिंक साड़ी पहनूं या ब्लैक? या फिर ग्रीन वाली? साड़ी में आंटी जी तो नहीं लगने लगूंगी मैं? जींस कुर्ता पहन लूं स्मार्ट लगेगा. नहीं वो काफी कैजुअल हो जायेगा. मैं दिखना स्पेशल चाहती हूँ लेकिन लगूं कैजुअल सी. यानी कैजुअल स्मार्ट. क्या करूँ...क्या करूँ....पूरे बिस्तर पर साड़ियाँ कुरते दुप्पट्टे बिखरे हुए थे. पूरी ड्रेसिंग टेबल पर झुमके, चूड़ियाँ, कड़े अंगूठियों की नुमाइश लगी थी. रेवती को कुछ समझ ही नहीं आ रहा था वो कैसे तैयार हो, क्या पहने. घर के बाहर लगी मधुमालती रेवती की हैरानी पर मुस्कुराये जा रही थी. उस पर बैठी चिड़िया देर से जाने कहाँ देख रही थी. चिड़ियों की भी उलझनें होती होंगी क्या? चिड़िया उलझन में होती होगी तो क्या करती होगी? पता नहीं. लेकिन चिड़िया की उलझन रेवती की उलझन जैसी तो नहीं होती होगी. माने क्या पहने.

यूँ तो यह राग हमेशा का है. जैसे ही कोई फंक्शन या कोई कार्यक्रम का इनवाइट आता है सबसे पहला सवाल क्या पहने? पिछले कुछ बरसों में यह सवाल लगातार बड़ा होता जा रहा है. जबकि कॉलेज के दिनों में यही रेवती बिंदास घूमती थी. जो मिल गया पहन लिया, बालों को उमेठ के जूडा बना लिया और कॉलेज पहुँच गयी. एक बार तो स्लीपर में ही पहुँच गयी थी कॉलेज. अलका ने जब ध्यान दिलाया तब रेवती को होश आया. रेवती के बाल बहुत लम्बे और घने थे, अब भी हैं, कॉलेज के ज़माने में तो गजब ही थे. लेकिन मजाल है उसने उन बालों को सलीके से सहेजा हो कभी, कसी चोटी या जूडा वो भी लापरवाही से बनाया हुआ बस इतना ही. जैसे यह भी बोझ हो.

शादी के बाद सजना-संवरना शुरू हुआ लेकिन मन कभी नहीं लगा उसका इस सबमें. बस जरूरत की तरह करती गयी. बिटिया अनु जब बड़ी होने लगी तो याद दिलाने लगी ‘क्या मम्मा आप ठीक से तैयार ही नहीं होती. कितनी सुंदर हो आप और ठीक से तैयार ही नहीं होतीं.’ रेवती को हंसी आ जाती. फिर उसने पैरेंट टीचर मीटिंग में जाने के लिए तैयार होना शुरू किया. लेकिन पिछले एक बरस से उसका सजने-सँवरने को लेकर रुझान बढ़ गया है. हालाँकि यह कोई नहीं जानता कि पिछले एक बरस में उसकी उदासी भी बढ़ रही है.

लेकिन अभी समस्या यह है कि आज जिससे मिलने जाना है वो कोई मामूली शख्स तो है नहीं वो है पिया की सहेली. कितना फ़िल्मी लग रहा है रेवती यह सोचकर मन ही मन मुस्कुराई. इस मुस्कराहट में न जाने कितनी उदासी थी कि पलकों में आने से छुप न सकी. क्या करे ऐसा, क्या कहे वो मानसी को कि फ़िल्मी न लगे. हाँ यही नाम है उसका. रेवती ने खुद मानसी को बुलाया है. आज शाम 4 बजे उससे इंडियन कॉफ़ी हाउस में मुलाकात तय हुई है. अभी बज रहा है 12. पहले वाला समय होता तो वो कहती पूरे चार घंटे हैं अभी जाने में तब तक एक नींद सो लेती हूँ लेकिन अब उसे लग रहा है कि सिर्फ 4 घंटे हैं. तैयार होने का इतना दबाव उसने अपने ऊपर कभी महसूस नहीं किया. क्यों वो एक स्त्री के कांपटीशन में खुद को धकेल रही है उसने खुद से पूछा. पिछले एक बरस से खुद को इसी कांपटीशन में ही पा रही है वो. थक गयी है अनजानी रेस में दौड़ते-दौड़ते. क्यों स्त्रियाँ एक-दूसरे से प्रतियोगिता में ईर्ष्या में द्वेष में उतर जाती हैं प्रेमिका और पत्नी के रूप में आमने-सामने होते ही. कोई असुरक्षा ही होती है जो यह सब करवाती है. उस पुरुष को खोने की असुरक्षा जो दोनों की ज़िन्दगी में महत्व पाने लगा है. देवता तब तक ही तो देवता है जब तक भक्त हैं. सोचते-सोचते मुस्कुरा दी रेवती.

मानसी और प्रशांत एक ही दफ्तर में काम करते हैं. दोनों की अच्छी दोस्ती थी. इस दोस्ती के बारे में रेवती को भी खूब पता था. लेकिन उस दोस्ती के बीच प्रेम ने कब जगह बना ली यह सबसे बाद में पता चला रेवती को. पत्नी को पति के अफेयर के बारे में पता चले तो है तो यह एक विस्फोटक घटना लेकिन घटी सामान्य तरह से ही. रेवती ने बिलकुल रिएक्ट नहीं किया. घर परिवार रिश्ता सब सामने चलता रहा. इतना सामान्य कि प्रशांत को हैरत होने लगी. रेवती इस रिश्ते के बारे में जानते ही आत्मविश्लेष्ण में चली गयी. क्यों हुआ होगा ऐसा? क्यों प्रशांत किसी और स्त्री की ओर गया. प्यार तो वो बहुत करता था उसे. वो भी प्रेम करती थी. फिर क्या हो गया बीच में. इस घटना के बाद रेवती ने खुद पर ध्यान देना शुरू किया, सजना-संवरना शुरू किया.

इकोनोमिक्स में टॉपर रही रेवती सक्सेना ब्यूटी पार्लर के चक्कर लगाने लगी. प्रशान्त उसे हैरत से देखता और खुश होता. रेवती खुश होती कि प्रशांत अब भी उस पर ध्यान दे रहा है वरना किसी और के प्रेम में डूबा व्यक्ति कहाँ देखता है अपनी पत्नी की ओर. इस बात को शुभ संकेत मान वो प्रशांत को वापस लौटा लाने की रेस में और तेज़ और तेज़ दौड़ने लगी. घर प्रशांत के पसंद के पकवानों की खुशबू से और ज्यादा महकने लगा. वो खुद प्रशांत की पसंद के रंगों से सजने लगी. अनु कहती कहती ‘पापा मम्मा इज सो चेंज्ड न?’ प्रशांत हंसकर कहता, ‘हाँ चलो अब आई तो अक्ल तेरी माँ को.’

सजने-संवरने की इस प्रक्रिया में उसने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों में पहली बार झाँक कर देखा. नहीं पहली बार नहीं शादी के बाद पहली बार. वहां उसे कोई सपना नहीं मिला. एक भी नहीं. वो सपने कहाँ गए सारे के सारे जो आँखों में इस कदर भरे थे कि छलकते रहते थे. कॉलेज के टाइम तो न जाने कितने सपने थे इन आँखों में. ये सपनों वाला राजकुमार राजकुमारी के सपने क्यों चुरा लेता है? वो उन सपनों का क्या करता है. रेवती अपनी सपनों से खाली आँखों में डूबने उतराने लगी.

कैसे दौड़ती भागती-फिरती थी वो. कॉलेज की कोई इवेंट रेवती सक्सेना और अलका मिश्रा के बिना संभव ही नहीं होती थी. दोनों पक्की सहेलियां और दोनों एक दूसरे की सबसे बड़ी कांपटीटर भी. डिबेट हो, डांस, स्पोर्ट्स हो या थियेटर इन दोनों के नाम का डंका बजता था. सारी एक्टिविटी में जोर-शोर से शामिल होने वाली ये राजकुमारियां इम्तिहानों में भी बाजी मार लेतीं.

लेकिन जरूरी नहीं कि हर जगह से गोल्ड मैडल बटोरने वालों के पास ज़िन्दगी को समझने की भी समझ हो. कॉलेज के बाद कॉम्पटीशन दिए. पीसीएस के कुछ प्रीलिम कुछ मेंस निकाले तभी एक ‘अच्छा रिश्ता’ आ गया. लड़के ने पीसीएस क्लियर किया हुआ था. रेवती को पहली ही मुलाकात में प्रशांत अच्छा लगा. उसकी खुली सोच, विचारों में स्पष्टता और दकियानूसी रिवाजों से उसकी नाराज़गी ने रेवती को काफी इम्प्रेस किया. प्रशांत को भी रेवती का स्वाभाविक होना बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहना और उसकी सादगी पसंद आई. ‘अच्छा रिश्ता’ पक्का हो गया और मिस रेवती हो गयीं मिसेज रेवती प्रशांत. आजकल यह भी एक ट्रेंड है प्रेम में अपने पति का नाम अपने नाम के साथ लगाना और अपने सरनेम को न छोड़ना. अजब सा प्रोग्रेसिव होना है ये कि पति का सरनेम या तो अपने सरनेम के साथ चिपक जाता है या पति का नाम चिपक जाता है या दो दो सरनेम लगाने लगी हैं लडकियां. रेवती ने कहा वो दोनों में से किसी सरनेम को नहीं लगाएगी. प्रशांत का नाम लगाएगी. क्योंकि प्रेम तो वो प्रशांत से करती है उसके सरनेम से तो नहीं. यह भी उसका छद्म प्रगतिशील होना ही था यह बात उसे काफी बाद में समझ में आई. क्योंकि प्रेम नाम या सरनेम अपने नाम से चिपकाना है ही नहीं. और अगर है तो इसका अर्थ यह हुआ कि पुरुष प्यार करते ही नहीं स्त्रियों को क्योंकि न तो वो पत्नी का नाम अपने नाम से जोड़ते हैं न सरनेम. सब कुछ जानते बूझते भी शादी के बाद का उबालें खाता प्रेम और शोबिज़ का नशा ज्यादा सिन्दूर लगाने और पति के नाम को अपनी पहचान से जोड़ना अच्छा लगता है की परिभाषा गढ़ लेता. तो रेवती भी उस उफनते प्रेम में क्यों न डूबती भला.

अच्छा हनीमून बीता, उसके बाद अच्छा जीवन बीतने लगा. रेवती को शादी के बाद लगा उसके पंख कटे नहीं हैं, और खुल गए हैं. इस घर में तो माँ की रोक-टोक भी नहीं थी. प्रशांत केयरिंग था. अब भी है. रेवती ने शादी के बाद भी काम्पटीशन देने की धुन को कुछ दिन जिन्दा रखा लेकिन बहुत जल्दी वह धुन नयी-नयी शादी के नशे में पिघल गयी. जैसे ही वो रात को किताबें खोलती प्रशांत उसे बाहों में खींच लेता. दिन घर की देख रेख में निकल जाता. असल बात यह थी कि उसका मन भी नहीं लग रहा था किताबों में.

सब ठीक चलते-चलते ‘कुछ’ हो जाता है जिसे हम कहते हैं कि ठीक नहीं है. वो क्या होता है. ‘ठीक’ को जब वो ठीक होता है हम सम्भाल क्यों नहीं पाते. या हमें पता नहीं चलता कि वो जो ‘ठीक’ लग रहा था वो ‘ठीक’ है ही नहीं. असल ठीक तो यह है जिसे अब दुनिया गलत कह रही है.

रेवती को जबसे प्रशांत और मानसी के बारे में पता चला है वो ऐसे ही सवालों को घुमा-घुमा कर देखती रहती है. जवाब की आशा में नहीं एक ऐसे सवाल की आशा में जो उसे इस उलझन से निकाल ले.

एक बरस से वो जानती है इस रिश्ते के बारे में लेकिन कभी रिएक्ट नहीं किया. वो जानती है कि रिएक्ट करने से कुछ नहीं होगा. रेवती ने खुद को सजाने-सँवारने और प्रशांत का ध्यान फिर से अपनी ओर खींचने की कोशिश तो शुरू कर दी लेकिन उसने महसूस किया कि उसे कुछ ख़ास दुःख नहीं हुआ उनके रिश्ते के बारे में जानकर. वो खुद को बार-बार टटोलती कि आखिर गड़बड़ कहाँ है. ऐसे मौकों पर फिल्मों और धारावाहिकों में पत्नियाँ जिस तरह तड़प-तड़प के जान देने पर उतारू हो जाती हैं ऐसा उसके साथ कुछ नहीं हो रहा है. न ही मानसी को ऊट-पटांग बोलने का उससे सौतिया डाह महसूस करने जैसा कुछ हो रहा है. रेवती जो सजने-संवरने और पति को वापस लाने की जंग में उतर गयी थी उसमें भी उसकी इच्छा नहीं धारावाहिकों का असर ही ज्यादा था.

साड़ियों और गहनों के बीच पसरे हुए रेवती के मन में न जाने कितने ख्याल उतरा रहे थे. लेकिन किसी भी ख्याल में न दुःख था न ईर्ष्या हाँ एक उदासी थी. लेकिन लोग तो कहते हैं कि ईर्ष्या तो प्रेम की पहचान होती है तो क्या उसे प्रेम ही नहीं था प्रशांत से? यानी इतने सालों से जिसके साथ प्रेम है सोचकर जीती आ रही थी उससे प्रेम ही नहीं था. कुछ तो गड़बड़ है. या तो उसे प्रेम नहीं था या प्रेम को नापने वाला समाज का थर्मामीटर गलत है. क्योंकि प्रेम जिसे कहता है जमाना वो तो था, सेक्स, घूमना फिरना, सरप्राइज गिफ्ट, आउटिंग और भी बहुत कुछ. लेकिन ये सब होने पर प्रेम भी होगा ही इसकी कोई गारंटी है क्या?

उसने गुलाबी साड़ी को परे धकेलते हुए खुद से कहा, ‘क्या हो गया है मुझे? ये मैं तो नहीं. मैं किस रेस में दौड़ रही हूँ. बाहर धूप चटख होती जा रही थी भीतर रेवती के भीतर मंथन चल रहा था. शादी मन से की, शादी के बाद जो भी किया मन से किया फिर भी उसे सुकून क्यों नहीं. कहीं उसे अपने मन को समझने में गलती तो नहीं हुई.

मानसी से क्या कहेगी वो ‘मेरे पति को छोड़ दे कुलच्छिनी..’ ऐसा कुछ. उसे जोर से हंसी आ गयी. ज़िन्दगी कितनी फ़िल्मी है यार. और हर मौके पर कोई फ़िल्मी डायलॉग भी टिका देती है. अचानक उसे लगा कि उसे क्यों मिलना चाहिए से मानसी से? लेकिन अब तो मुलाकात तय हो गयी है, जाना तो पड़ेगा. उसने बिखरी हुई साड़ियों, ज्वेलरी की ओर देखा. क्यों वो मानसी के काम्पटीशन में है? पिछले साल भर से वो कर क्या रही है. खुद को आईने मेकअप और ब्यूटी पार्लर को झोंक दिया. क्या इस तरह वो प्रशांत को वापस पाना चाहती है? पहले कभी पाया था क्या? क्या इसमें प्रशांत की गलती है? मानसी की? या रेवती की? सेल्फ ब्लेमिंग हिन्दुस्तानी औरतों का पहला रिएक्श्न होता है इसके बाद दूसरा रिएक्श्न होता है दूसरों पर आरोप मढ़ना. और ये दूसरा अगर कोई स्त्री है तब तो काम बहुत आसान हो जाता है मढ़ने का. ये पहला दूसरा आपस में अदलता-बदलता रहता है. रेवती ने भी सेल्फ ब्लेमिंग को सेल्फ ग्रूमिंग में बदलना शुरू किया.

‘मैं किसी रेस में नहीं हूँ....’ रेवती बडबडाई. उसने खुद को जो कहते हुए सुना उसे वह सुनने की कबसे इच्छा थी. उसकी आँखें बह निकलीं. दो बजने को हो आये थे. अनु के स्कूल से आने का वक़्त हो गया था. उसने फटाफट जींस और कुर्ता चढ़ाया. गर्मी इतनी थी कि बालों का जूडा ही उसे सूझा. अब वो किसी रेस में नहीं थी. लेकिन अपनी खूबसूरत आँखों और लम्बे घने बालों का वो कुछ नहीं कर सकती थी. उसने आई लाइनर उठाकर किनारे रख दिया. लिपस्टिक भी उसने होठों से बस छूकर रख दी. अनु स्कूल से आई तो उसने चेंज कराकर उसे खाना दिया और कमरा समेटने लगी. अनु ने मम्मा को तैयार देखकर कहा, ‘मम्मा आप कहीं जा रही हो?’ ‘मैं नहीं जा रही बेटा हम जा रहे हैं. मुझे एक आंटी से मिलना है तो आपको नानी के घर छोडकर मैं वहां जाऊंगी. फिर शाम को तुम्हें वहां से ले लूंगी. तुम नानू को आज चेस में हराना तब तक’ ‘हाँ खूब मजा आएगा’ अनु ने खुश होकर कहा.

अनु का कुछ सामान गाड़ी की पीछे वाली सीट पर डालकर रेवती माँ के घर को निकल पड़ी. माँ के घर पर अनु को ड्रॉप करके रेवती ने गाड़ी कॉफ़ी हाउस की तरफ मोड़ दी.

क्या मानसी के दिमाग में भी ऐसा ही कुछ चल रहा होगा? क्या वो ख़ास तरह से तैयार हुई होगी? क्या वो नर्वस हो रही होगी? लेकिन वो क्यों नर्वस होगी वो तो प्रेम में है, नर्वस तो मुझे होना चाहिए. प्रेमिका और पत्नी...कैसे खांचे हैं न? अगर मैं जा रही होती राहुल से मिलने...राहुल अचानक कैसे नाम याद आ गया. कॉलेज के ज़माने का उसका धुआंधार प्रेमी. रेवती के चेहरे पर सड़क के दोनों किनारों पर खिले कचनार के फूलों सी मुस्कान तैर गयी. जैसा वो राहुल के साथ फील करती थी वैसा प्रशांत के साथ कभी उसे महसूस नहीं हुआ. हालाँकि कभी कोई कमी भी महसूस नहीं हुई. ये होने और न होने के बीच क्या होता है जो जीवन बदल के रख देता है. जिसका कोई नाम नहीं है. जिसे कोई पहचानता भी नहीं.

क्या मानसी को वो ‘कुछ’ मिल गया है. क्या वो ‘कुछ’ रेवती से खो गया है. क्या वो रेवती के हाथ से फिसलकर मानसी के पास चला गया है. अगर ऐसा है तो उसे कुछ महसूस क्यों नहीं हो रहा है कि ‘कुछ’ चला गया है. ऐसे मौकों पर पत्नियां सामान्य तौर पर बहुत आहत होती हैं. उन आहत पत्नियों के पास क्या वो ‘कुछ’ रहा होता है. और यह कुछ सिर्फ स्त्रियों के हिस्से से ही फिसल जाता है क्या? वो जो आहत होता है वो पत्नी होने का अहंकार होता है या प्रेम? क्या पुरुषों के हिस्से से नहीं फिसलता वो ‘कुछ’. क्या प्रशांत को मानसी के संग वो ‘कुछ’ महसूस हुआ होगा जो रेवती के पास नहीं हुआ. पता नहीं. लेकिन रेवती को इतना पता है कि न तो ईर्ष्या हुई मानसी से न उस पर गुस्सा आया. क्या प्रेमिकाओं को पत्नियों पर भी गुस्सा आता होगा? यही सब सोचते हुए रेवती की कार कॉफ़ी हाउस की पार्किंग में आ गयी. किसी ने गाड़ियाँ उलटी सीधी लगायी हुई थीं. देर तक हार्न बजने के बाद गार्ड आया तो रेवती गार्ड को कार की चाबी देकर आगे निकल गयी यह कहकर कि गाड़ी लगवाकर चाबी रिसेप्शन पर छोड़ दे.

जैसे ही रेवती अंदर पहुंची उसे साइड वाली टेबल पर मानसी बैठी दिखी. सांवली सी इकहरे बदन की लड़की. उसे देख बिलकुल नहीं लग रहा था कि उसने इस मुलाकात के लिए खुद को विशेष तौर पर तैयार किया हो. रेवती के चेहरे पर आत्मविश्वास था जो मानसी के चेहरे पर जरा कम था. यह रिश्तों में बन गयी जगहों का अंतर भर था. इन हालात में अगर प्रशांत होता तो उसके चेहरे पर क्या होता. अगर मानसी सामने है तब और अगर राहुल सामने होता तब? रेवती को हंसी आ गयी.

‘हैलो, मुझे ज्यादा देर तो नहीं हुई न?’ रेवती ने सामने वाली कुर्सी पर बैठते हुए कहा.

‘हाय, एकदम देर नहीं हुई आपको. दरअसल, आप टाइम पर हैं मैं ही थोड़ा जल्दी आ गयी थी.’ मानसी बोली.

‘गर्मी काफी हो रही है. एसी बेअसर हो गए लगते हैं’ रेवती ने कहा. जब बात का कोई सिरा नहीं मिलता तब मौसम की बात करना हमेशा मदद करता है. कोई भी मौसम हो उसके बारे में बात की जा सकती है.

‘जी आप कुछ कहना चाहती थीं?’ मानसी ने सीधे मुद्दे पर आने की कोशिश की.

‘कुछ ख़ास नहीं. बस मिलना चाहती थी.’ रेवती ने सहजता से जवाब दिया.

‘कॉफ़ी और्डर कर लें? कौन सी पियोगी?’ रेवती ने पूछा.
‘वैसे मैं एक कॉफ़ी पी चुकी हूँ लेकिन दोबारा पी सकती हूँ बहुत अच्छी होती है यहाँ की फिल्टर कॉफ़ी.’ मानसी ने भरसक कोशिश करते हुए संयत आवाज़ में कहा.
‘हाँ, फिल्टर कॉफ़ी गजब होती है यहाँ की. कॉफ़ी बीन्स की जो ख़ुशबू होती है वो कहीं और नहीं मिलती.’ रेवती ने मानसी की बात में अपनी सहमति मिलाते हुए कहा.
‘वाह! हमारी पसंद तो मिलती है.’ मानसी ने कहा. उसके मुंह से निकल तो गया लेकिन समझ में आ गया कि गड़बड़ बात निकल गयी है. वो संकोच में एकदम से धंस गयी.
रेवती ने हँसते हुए उसे सहज किया. ‘हाँ पसंद तो मिलती है तभी तो हम यहाँ हैं एक साथ फिल्टर कॉफ़ी पीने.’
‘सॉरी...वो...’ मानसी ने झेंपते हुए कहा.
‘भैया दो फिल्टर कॉफ़ी ला दीजिये और एक पानी की बाटल. थोड़ी ठंडी.’ रेवती ने कॉफ़ी ऑर्डर की अब बात शुरू की जा सकती थी. हालाँकि दोनों में से किसी को पता नहीं था कि क्या बात करनी है.
‘इस मौसम की सबसे सुंदर बात जानती हो क्या है? दहकते गुलमोहर, अमलतास. ऐसा लगता है मौसम से टक्कर ले रहे हों, या कह रहे हों कि तुमसे प्यार है.’ रेवती ने फिर से मौसम का सिरा उठाया बात के लिए.
‘जी’ मानसी का मन मुख्य बात पर लगा हुआ था. उसे लग रहा था ‘कब शुरू होंगी ये आखिर तो इन्हें गालियाँ ही देनी हैं, मुझे ऊट-पटांग ही बोलना है. पता नहीं मैं कितना सह पाऊंगी. कोशिश करूंगी कि उन्हें हर्ट न करूँ, जवाब न दूं लेकिन बहुत बोला तो सह नहीं पाऊंगी.’ मानसी मन ही मन सोच रही थी. प्रशांत ने भी उसे चुपचाप सब सुन लेने को कहा था. उसे गुस्सा आया था इस बात पर. क्या उन्होंने अपनी पत्नी को बोला होगा चुपचाप सब सुनने को. मुझे क्यों बोला. मैं प्रेमिका हूँ तो मेरा सम्मान कम है, वो पत्नी हैं तो उनका सम्मान ज्यादा है. क्यों? मानसी के मन की उथल-पुथल उसके चेहरे से ज़ाहिर होने लगी थी.
‘इतना मत सोचो. मैं बता देती हूँ मैंने तुम्हें क्यों बुलाया है.’ रेवती ने मुस्कुराते हुए मानसी की मन ही मन चलने वाली उलझन को सुलझाने की पहल की. मानसी की मानो चोरी पकड़ी गयी.
‘आप तो मन के भीतर का भी पढ़ लेती हैं?’ मानसी ने संकोच से भरते हुए कहा.
रेवती हंस दी. ‘मैंने तुम्हें थैंक यू कहने के लिए बुलाया है.’ रेवती ने कहा और एक गहरी सांस ली. वेटर ठंडे पानी की बोतल रख गया था उसने गटगट पानी पिया.
‘क्या?’ मानसी ये सुनने को एकदम तैयार नहीं थी. उसने चौंकते हुए कहा.
‘हाँ, सच्ची वाला थैंक यू मानसी. डायरेक्ट दिल से. तुम्हें पता है मैं एक लम्बी गहरी नींद में थी सालों से. तुमने मुझे जगाया. अब समझ में आया कि यह नींद कुछ ज्यादा ही लम्बी हो गयी. तो तुम्हारा थैंक यू तो बनता है न.’ रेवती ने जो कुछ भी कहा वह उसने सोचा नहीं था. वह खुद को यह कहते हुए सुन रही थी और उसे अच्छा लग रहा था.
‘लेकिन...’ मानसी अभी भी अटकी हुई थी. मतलब ऐसा कौन कहता है.
लेकिन रेवती की मुस्कान बता रही थी कि वो जो कह रही है उसमें सच्चाई है. मानसी को राहत से ज्यादा हैरत हुई. कॉफ़ी आ गयी. दोनों चुपचाप कॉफ़ी पीने लगीं.
‘तो क्या आप प्रशांत को छोड़ देंगी?’ मानसी जानना चाहती थी कि रेवती के मन में चल क्या रहा है.
रेवती जोर से हंस पड़ी. रेवती हँसते हुए इतनी खूबसूरत लगती है कि कोई भी उस पर मुग्ध हो सकता है. प्रशांत कहता तुम्हारी हंसी मोगरे के फूलों सी है सुंदर और महकती हुई. आज वही मोगरे सी हंसी मानसी को घेरे थी.
‘छोड़ दूँगी? किसे? प्रशांत को? मैंने उसे पकड़ा ही कब है? छोड़ना क्या होता है मानसी. पकड़ना क्या होता है.
मैं तो बस इतना जानती हूँ कि तुमने मुझे एक गहरी लम्बी नींद से जगा दिया. खुद से बहुत दूर चली गयी थी मैं...और मुझे पता भी नहीं चला.’

कॉफ़ी खत्म होने को थी. बिल दिया जा चुका था. मानसी कॉफ़ी हाउस की दीवार पर टंगी नीले रंग की पेंटिंग को देख रही थी जिसमें एक स्त्री बुहार रही थी. उसी नीले रंग से नीला लिए बैठी थी सामने एक स्त्री जो जीवन में आये छिछले सुखों को बुहार रही थी.

रेवती काफी हल्का महसूस कर रही थी और मानसी को पता नहीं वो कैसा महसूस कर रही थी. रेवती ने मानसी की तरफ बाहें फैलायीं तो मानसी उनमें हिचकते हुए समा गयी.
‘आपसे किसे प्यार न हो जाए भला’ मानसी ने अपनी भीगी पलकें पोंछते हुए कहा.

रेवती मुस्कुरा दी. उसने रिसेप्शन से अपनी कार की चाभी ली और कॉफ़ी हाउस से बाहर निकली तो बाहर का मौसम बदल चुका था. धूप कहीं छुप गयी थी. हवाओं में ठंडक उतर आई थी. गार्ड को चाबी देकर उसने कहा गाड़ी निकलवा दे और वो बाहर खड़ी होकर इंतज़ार करने लगी. उसने इंतज़ार करते हुए खुद को बहुत हल्का महसूस किया जैसे वो फिर से कॉलेज वाली रेवती होने लगी थी. उसने हवा के झोंकों से टूटकर गिरते कचनार अपनी हथेलियों में भर लिए. उसने देखा एक फूल उसके कंधे पर भी आ बैठा है. रेवती की मुस्कुराहट बढ़ गयी. वो घर आई तो अनु एकदम तैयार थी चलने के लिए. माँ ने चाय पीने को कहा तो उसने अनु के सर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘आज चाय नहीं माँ आज मैं और अनु पार्टी करेंगे आइसक्रीम खायेंगे.’
‘येहे हे हे....’ अनु एकदम से बहुत खुश हो गयी.

Sunday, February 6, 2022

एक प्यारी सी पाती

पाठकीय प्रतिक्रियाओं को मैं सार्वजनिक नहीं करती, उनके नेह में भीग लेती हूँ, दिल में सहेज लेती हूँ. लेकिन कहानी 'बकरियां जात नहीं पूछतीं' कहानी पर मिली यह प्रतिक्रिया चूंकि सार्वजनिक मंच पर मिली तो इसे यहाँ सहेज रही हूँ. दिल प्रेम से भरा है. पाठक ही बताते हैं कि हम लिखने के तौर पर सही रास्ते पर जा भी रहे हैं या नहीं. सुंदर चूंकि शिक्षक भी हैं इसलिए उनकी प्रतिक्रिया और भी महत्वपूर्ण हो जाती है इसलिए कि वो इस कहानी के मर्म के ज्यादा करीब पहुँच पाए. शुक्रिया सुंदर भाई!

Tuesday, February 1, 2022

धूप से गुनगुनाते प्रेम पत्र




-जयंती रंगनाथन 
मैं उसी की तरह, उसी जैसा बन कर कुछ कहना चाहती हूं:
मैं धूप हूं
तुम्हारे हिस्से की,
अपने हिस्से की भी
और उस बुलबुल के हिस्से की भी
जो इन दिनों रोज आती है
मेरी छत पर बने वर्टिकल गार्डन में
वो गाना गाती है
मुझे झूले पर बैठा देख, रुक जाती है
कहना चाहती है
तुम मेरे हिस्से का धूप जी रही हो
और जिंदगी भी…
तो प्रतिभा, क्या तुम्हारे कठिन दिनों के प्रेम पत्र, वह चिड़िया क्या गाती होगी, पढ़ने के बाद मैं तुम्हारी तरह कुछ बन सकी?
इन दिनों मौसम भी कुछ वैसा सा है, जैसा प्रतिभा चाहती होंगी। इसी मौसम में लिखे गए अपनों के लिए अपने से प्रेम पत्र और कविताएं कितना सुकून दे रही हैं, कैसे कहूं…
ये वो सबकुछ है, जो आप कहना चाहते हैं, किसी बेहद अपने से। कह नहीं पाए। बानगी देखिए: देखो, खुशबू उगी है। तुम बो गए थे इंतजार के जो बीज वो खिल रहे हैं। महक रहे हैं। यह खुशबू मुझसे हर वक्त बात करती है। हर वक्त मैं इस खुशबू को ओढ़े फिरती हूं। कल एक चिड़िया खिड़की पर आई, देर तक मुझे देखती रही। मैं उससे पूछा, क्या देख रही हो। वो हंस कर उड़ गई।
2
जब याद आती है
तब सिर्फ याद आती है…
3
अच्छा लगना, कितना अच्छा होता है?
4
एक सड़क मिली मुझे
जो कहीं नहीं जाती थी
एक मौसम मिला
जो अपने तमाम वैभव के बावजूद
मुस्कराहट गुमा आया था कहीं
तो ये है संवेदनाओं से भरपूर, प्यारी और बेहद संजीदा प्रतिभा कटियार। मैं उसे पता नहीं कितने बरस से जानती हूं। उसकी बातों में अजब सी धूप है, वो कुछ कहती है, फिर देर तक याद आती रहती है। उससे पिछले दिनों इंदौर लिट फिस्ट में मिली थी। हम शायद पहली बार मिले थे, पर ये जो धूप का रिश्ता था, वो अड़ गया। हम वही थे, जो हमारी बातों में थे। उस लड़की की यह किताब सच में बहुत निराली है। ना कहानी है ना किस्से हैं, बस यादों से पगे, उलझे-सुलझे से लॉकडाउन के दौरान उपजे नामालूम से खत हैं, जो कभी कहीं नहीं पहुंचे।
मैंने पढ़ लिया प्रतिभा और मन में बिठा भी लिया। अब तुमसे बात करूंगी। बहुत प्यार इन शब्दों और संवेदनाओं के लिए, जो मुझे लग रहा है मेरे लिए लिखे गए हैं।

किताब: वह चिड़िया क्या गाती होगी: कठिन दिनों के प्रेम-पत्र
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन
कीमत: 150 रुपए
किताब खरीदने का लिंक- https://www.amazon.in/CHIDIYA-GAATI-HOGI-KATHIN-PATRA/dp/B09PJB1PR2/ref=sr_1_1?crid=6EL89QIKBIG8&keywords=pratibha+katiyar&qid=1643724814&sprefix=pratibha+katiyar%2Caps%2C509&sr=8-1