मारीना जिस समय के उथल-पुथल के दौर की उपज थी वह रूसी क्रांति से पहले का समय था. जारशाही के समय उसके शासन के दौरान जो आन्दोलन चल रहे थे मारीना बचपन से ही उन आंदोलनों, उन हलचलों के बीच रही. यह एक बड़ी बात है कि कोई किताब जो जीवनी के रूप में आ तो गयी साथ ही ढेर सारी उलझन भी लायी. अगर आप विचार पध्धति से जुड़े हैं तो कोई किताब आपको झकझोर दे, आपको सोचने पर मजबूर करे तो यह मामूली बात नहीं है.
इस किताब में लेखिका की झिझक भी दिखती है. एक तरीका यह हो सकता था कि बहुत निर्णायक तरह से उस दौर को उकेरते हुए उस समूचे दौर को सवालों के घेरे में रखने का प्रयास किया जाता. लेकिन इस किताब में प्रतिभा स्वयं एक असमंजस से गुजरती हुई मालूम होती हैं. वो असमंजस प्रतिभा का असमंजस नहीं है वो असल में मारीना का असमंजस है. मारीना का पति अगर व्हाइट आर्मी के साथ जुड़ा हुआ है तो उससे निर्विकार कैसे रह सकती थी मारीना. मारीना खुद जार के समय था उसके शासन की पक्षधर नहीं है. इस बात को समझने के लिए पाठक खुद उस समय में खुद को ढाल पायें उस समय से खुद को जोड़कर देख पायें तो बात समझ में आती है कि परिवर्तन का, क्रांति का दौर ऐसा गुजर रहा है जो कि बहुत साफ़ नहीं है. उस दौर को उस दौर का बुध्धिजीवी फैसलाकुन तरह से समझ नहीं सकता है. जबकि एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है. ये लोग देश छोड़कर जा रहे हैं. चाहे चेकोस्लोवाकिया में हो, जर्मनी में हो, फ़्रांस में हो बड़ी संख्या में पलायन हो रहा है. तो एक ऐसा दौर मारीना की निर्मिति का दौर है. मारीना का वह निर्माण काल सिर्फ मारीना का ही नहीं है इसके बहाने उस पूरे दौर के असमंजस को, उहापोह को समझा जा सकता है. अच्छी बात यह है कि निर्णायक स्वर न देते हुए भी उस दौर की जो जटिलतायें हैं उन जटिलताओं को किताब में उजागर किया गया है. मुझे लगता है कि अब बेबाकी के साथ हमें सवालों से टकराना चाहिए. इस तरह की जो किताबें होती हैं वो हमसे ईमानदार आत्मावलोकन की मांग करती हैं. मुझे लगता है इस किताब के साथ उस आत्मावलोकन की शुरुआत हो सकती है. बहुत मुखर न हो, मौन ही हो लेकिन शुरुआत तो हो.
मारीना के प्रेम को लेकर भी बात होती है कि न जाने कितने लोग उसके जीवन में आये और उसने मुक्त प्रेम की युक्ति अपनाई. यह युक्ति एक व्यक्तित्व की निर्मिति थी और इस संदर्भ में प्रतिभा ने परिशिष्ट में जो लिखा है, ’मेरी समस्या यह है कि मैं ऐसे हर मिलने वाले के जीवन में अविलम्ब प्रवेश कर जाती हूँ जो किसी कारण मुझे अच्छा लगता है, मेरा मन उसकी सहायता करने को कहता है. मुझे उस पर दया आती है कि वह डर रहा है कि मैं उससे प्रेम करती हूँ या वह मुझसे प्रेम करने लगेगा और उसका पारिवारिक जीवन तहस-नहस हो जाएगा. यह बात कही नहीं जाती पर मैं यह चीखकर कहना चाहती हूँ कि महोदय, मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए, आप जा सकते हैं, फिर आ सकते हैं, फिर जा सकते हैं, फिर कभी नहीं भी लौट सकते हैं. मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. मैं समझ, सहजता और स्वछन्दता चाहती हूँ. किसी को पकड़कर नहीं रखना चाहती और न ही कोई मुझे पकड़कर रखे.'
मारीना प्रेम में पज़ेसिव नहीं है कि वो अपने प्रेमी को प्रेम में जकड़कर रखे. प्रेम का जो सूत्र उसके पास है उसे उसके इस कहे से समझा जा सकता है कि ‘मैं समझ, स्वतन्त्रता और स्वछंदता चाहती हूँ’ यह उसके प्रेम का सूत्र है. प्रेम की जो एक पारम्परिक तरह की अवधारणा है या प्लेटोनिक प्रेम की जो अवधारणा है मुझे लगता है प्रेम की उन अवधारणाओं से अलग यह एक नया आयाम है. मारीना को समझने के लिए जो हमारे बने-बनाये ढाँचे हैं उन्हें तोड़ना होगा. उन ढांचों को भारतीय परिस्थितियों को समझना आसान नहीं है. उस समय का जो यूरोपीय समाज है उसके मद्देनजर देखना होगा.
यह देखिये कि उसका जीवन कितना त्रासद है. उसकी त्रासदी उसके जीवन की व्यक्तिगत त्रासदी नहीं है वो उस दौर के सामाजिक, राजनैतिक जीवन की उपज है. सवाल यह है कि अगर इतनी बड़ी बौध्धिक स्त्री, कवयित्री अगर एक जोड़ी जूते मांग रही है, कि वो उन जूतों के अभाव में कहीं जा नहीं पा रही है तो यह राजनीति से परे बात नहीं है. भले ही वह खुद को अराजनैतिक कहती है लेकिन वो है नहीं अराजनैतिक. कोई हो भी नहीं सकता है. बुकमार्क में लेखिका ने इस बात को बहुत अच्छे ढंग से उठाया है. असल में मारीना राजनीति का शिकार है. कितना त्रासद है यह सब. इस किताब को पढ़ते हुए हम अवसादग्रस्त होते जाते हैं. उसका पति जासूसी के आरोप में फंसता है, वो भी जेल जाता है, बेटी भी जेल जाती है. बेटा भी उत्पीड़ित है. यह सब उस दौर की राजनीति के कारण ही तो हो रहा है.
यह किताब उस दौर की राजनीति के बारे में निस्पृहता से विचार करने के लिए हमें प्रेरणा देती है. वो दौर उथल-पुथल का दौर था. स्टालिन ने 1935 में पेरिस में होने वाली कांफ्रेस में भाग लेने के लिए पास्तेरनाक को भेजा. जिस पास्तेरनाक को एंटी फासिस्ट कांफ्रेंस में भाग लेने के लिए भेजा यानी पास्तेरनाक पर उसे भरोसा था वही पास्तेरनाक बाद में उसी राजनीति के विक्टिम बने.
गोर्की बड़े नायक थे. उस समय की राजनीति की जो संरचना थी उसके अंतर्गत गोर्की भी मारीना की सहायता उस तरह से नहीं करते हैं. त्रासदी मरीना के हिस्से ज्यादा ही आई. तो सवाल यह है कि क्या नजरिया अपनाया जाय कि जो उस दौर में बहुत से साम्राज्यवाद के समर्थन का नजरिया अपना रहे थे या पूरी वैचारिक राजनीति में उथल-पुथल थी. एक कवियित्री की जीवनी के माध्यम से कितने रग-रेशे खुल रहे हैं. इसका दायित्व के साथ निर्वहन करना आसान नहीं था. यह काम बहुत परिपक्वता की मांग करता है और प्रतिभा ने उस परिपक्वता का परिचय दिया.
मारीना प्रेम में पज़ेसिव नहीं है कि वो अपने प्रेमी को प्रेम में जकड़कर रखे. प्रेम का जो सूत्र उसके पास है उसे उसके इस कहे से समझा जा सकता है कि ‘मैं समझ, स्वतन्त्रता और स्वछंदता चाहती हूँ’ यह उसके प्रेम का सूत्र है. प्रेम की जो एक पारम्परिक तरह की अवधारणा है या प्लेटोनिक प्रेम की जो अवधारणा है मुझे लगता है प्रेम की उन अवधारणाओं से अलग यह एक नया आयाम है. मारीना को समझने के लिए जो हमारे बने-बनाये ढाँचे हैं उन्हें तोड़ना होगा. उन ढांचों को भारतीय परिस्थितियों को समझना आसान नहीं है. उस समय का जो यूरोपीय समाज है उसके मद्देनजर देखना होगा.
यह देखिये कि उसका जीवन कितना त्रासद है. उसकी त्रासदी उसके जीवन की व्यक्तिगत त्रासदी नहीं है वो उस दौर के सामाजिक, राजनैतिक जीवन की उपज है. सवाल यह है कि अगर इतनी बड़ी बौध्धिक स्त्री, कवयित्री अगर एक जोड़ी जूते मांग रही है, कि वो उन जूतों के अभाव में कहीं जा नहीं पा रही है तो यह राजनीति से परे बात नहीं है. भले ही वह खुद को अराजनैतिक कहती है लेकिन वो है नहीं अराजनैतिक. कोई हो भी नहीं सकता है. बुकमार्क में लेखिका ने इस बात को बहुत अच्छे ढंग से उठाया है. असल में मारीना राजनीति का शिकार है. कितना त्रासद है यह सब. इस किताब को पढ़ते हुए हम अवसादग्रस्त होते जाते हैं. उसका पति जासूसी के आरोप में फंसता है, वो भी जेल जाता है, बेटी भी जेल जाती है. बेटा भी उत्पीड़ित है. यह सब उस दौर की राजनीति के कारण ही तो हो रहा है.
यह किताब उस दौर की राजनीति के बारे में निस्पृहता से विचार करने के लिए हमें प्रेरणा देती है. वो दौर उथल-पुथल का दौर था. स्टालिन ने 1935 में पेरिस में होने वाली कांफ्रेस में भाग लेने के लिए पास्तेरनाक को भेजा. जिस पास्तेरनाक को एंटी फासिस्ट कांफ्रेंस में भाग लेने के लिए भेजा यानी पास्तेरनाक पर उसे भरोसा था वही पास्तेरनाक बाद में उसी राजनीति के विक्टिम बने.
गोर्की बड़े नायक थे. उस समय की राजनीति की जो संरचना थी उसके अंतर्गत गोर्की भी मारीना की सहायता उस तरह से नहीं करते हैं. त्रासदी मरीना के हिस्से ज्यादा ही आई. तो सवाल यह है कि क्या नजरिया अपनाया जाय कि जो उस दौर में बहुत से साम्राज्यवाद के समर्थन का नजरिया अपना रहे थे या पूरी वैचारिक राजनीति में उथल-पुथल थी. एक कवियित्री की जीवनी के माध्यम से कितने रग-रेशे खुल रहे हैं. इसका दायित्व के साथ निर्वहन करना आसान नहीं था. यह काम बहुत परिपक्वता की मांग करता है और प्रतिभा ने उस परिपक्वता का परिचय दिया.
कितनी बड़ी त्रासदी है की मारीना ने आत्महत्या की लेकिन आत्महत्या के बाद उसे कहाँ दफन किया गया यह कोई नहीं जानता. उसकी कब्र कहाँ है आज तक किसी को नहीं पता. लोग ढूँढने गये लेकिन किसी को कोई ख़बर नहीं मिली. उस समय के लोग परिवार, लेखक समाज किसी ने उसे चिन्हित नहीं किया. किसी को नहीं पता वो कहाँ दफन है. कोई बताने वाला नहीं. इससे भी आप देखेंगे कि हालात कैसे थे और वो किस कदर उपेक्षित थी. मरीना का बेटा जो अपनी माँ की आत्महत्या को सही ठहराता है वो कहता है जिन हालात में माँ थी उन हालात में उसके पास कोई चारा नहीं था आत्महत्या के सिवा. वो कहता है ‘मेरी माँ ने सही किया.’ वो गवाह है उन स्थितियों का. वो सब देख रहा था. वो कहता है कि माँ ने जो किया यही उचित था किया जाना. कितनी बड़ी त्रासदी है कि बेटा माँ की आत्महत्या में ही उसकी मुक्ति देख रहा है. इन सारी परिस्थितियों का जो ताना-बाना बहुत उलझा हुआ है और उसमें उलझा है मारीना का जीवन.
रिल्के, पास्तेरनाक, अन्ना अख्मातोवा आदि के नाम हैं उस दौर में लेकिन मैं ईमानदारी से कहूँगा की मारीना मेरी स्मृति में नहीं थी. मैंने उस समय के कुछ सोवियत कलेक्शन निकाले उसमें मारीना को ढूँढा. वर्ल्ड सोशलिस्ट पोयट्री का एक बहुत अच्छा पोयट्री कलेक्शन है और वो करीब 30 साल पहले का है पेंग्विन ने उसे प्रकाशित किया था जिसमें दुनिया भर के कवि हैं जिसमें पाब्लो नेरुदा भी हैं उसमें भी मारीना कहीं नहीं मिली. एक सोवियत पोयट्री का बहुत अच्छा कलेक्शन है उसमें भी मरीना को तलाशा मैंने उसमें स्टालिनवाद के समय के सब लोग हैं उसमें येसेनिन भी हैं मायकोवस्की भी हैं लेकिन यह नाम वहां भी नहीं है. प्रतिभा ने उस लिहाज से मारीना को उपस्थित भी किया है. हिंदी के पाठको के लिए तो यह है ही कि क्योंकि किताब हिंदी में है लेकिन इसके माध्यम से चर्चा आगे भी जा सकती है क्योंकि यह एक जीवनी भर नहीं है, एक खोज है. प्रतिभा ने इसको खोजा, इसको इस रूप में प्रस्तुत किया. यह आगे जाने वाला काम है. टिकने वाला काम है. जब भी इस तरह की कोई चर्चा होगी तब मारीना को खोजा जाएगा. इस काम को दूर तक जाना चाहिए.
रिल्के, पास्तेरनाक, अन्ना अख्मातोवा आदि के नाम हैं उस दौर में लेकिन मैं ईमानदारी से कहूँगा की मारीना मेरी स्मृति में नहीं थी. मैंने उस समय के कुछ सोवियत कलेक्शन निकाले उसमें मारीना को ढूँढा. वर्ल्ड सोशलिस्ट पोयट्री का एक बहुत अच्छा पोयट्री कलेक्शन है और वो करीब 30 साल पहले का है पेंग्विन ने उसे प्रकाशित किया था जिसमें दुनिया भर के कवि हैं जिसमें पाब्लो नेरुदा भी हैं उसमें भी मारीना कहीं नहीं मिली. एक सोवियत पोयट्री का बहुत अच्छा कलेक्शन है उसमें भी मरीना को तलाशा मैंने उसमें स्टालिनवाद के समय के सब लोग हैं उसमें येसेनिन भी हैं मायकोवस्की भी हैं लेकिन यह नाम वहां भी नहीं है. प्रतिभा ने उस लिहाज से मारीना को उपस्थित भी किया है. हिंदी के पाठको के लिए तो यह है ही कि क्योंकि किताब हिंदी में है लेकिन इसके माध्यम से चर्चा आगे भी जा सकती है क्योंकि यह एक जीवनी भर नहीं है, एक खोज है. प्रतिभा ने इसको खोजा, इसको इस रूप में प्रस्तुत किया. यह आगे जाने वाला काम है. टिकने वाला काम है. जब भी इस तरह की कोई चर्चा होगी तब मारीना को खोजा जाएगा. इस काम को दूर तक जाना चाहिए.
(जनवरी 2021 में लखनऊ में हुए एक कार्य्रकम में दिया गया वक्तव्य)
पुस्तक- मारीना (जीवनी)
लेखिका- प्रतिभा कटियार
मूल्य- 300 रूपये
प्रकाशक- संवाद प्रकाशन,
पुस्तक- मारीना (जीवनी)
लेखिका- प्रतिभा कटियार
मूल्य- 300 रूपये
प्रकाशक- संवाद प्रकाशन,
पुस्तक अमेजन पर भी उपलब्ध है. अमेजन का लिंक- https://www.amazon.in/-/hi/Pratibha-Katiyar/dp/8194436206/ref=sr_1_1?dchild=1&keywords=pratibha+katiyar&qid=1631940830&sr=8-1
6 comments:
सादर नमस्कार ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19-9-21) को "खेतों में झुकी हैं डालियाँ" (चर्चा अंक-4192) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
यकीनन इस काम को दूर दूर तक जाना चाहिए। बेहतरीन।
यकीनन इस काम को दूर दूर तक जाना चाहिए। बेहतरीन।
सार्थक लेख
Ji शानदार किताब की असरदार समीक्षा।
वाह बड़ा ही सूंदर लेख लिखा है आपने। इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद। Zee Talwara
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