Wednesday, September 29, 2021

बिना संवेदना की शिक्षा के क्या अर्थ


- प्रतिभा कटियार

पिछले दिनों मैंने एक फिल्म देखी ‘इन्सेप्शन’. फिल्म लगातार मेरे ज़ेहन में चल रही है. कैसे किसी के अवचेतन में चुपके से इंट्री लेकर कोई विचार रोपा जा सकता है. फिर वह व्यक्ति वही करेगा वही सोचेगा जो उसके अवचेतन में रोप दिया गया है. और उस करने और सोचने को लेकर जिद भी करेगा, उसके लिए लड़ेगा भी. क्योंकि चेतन में वो यही समझता है कि यह उसका ही विचार है, उसका ही व्यवहार.

फिल्म के निर्देशक क्रिस्टोफर नोलन ने क्या कमाल की फिल्म बनाई. जो बात मुझे हमेशा से लगती है कि हम नहीं जानते कि ‘हम नहीं जानते’ यह स्थिति सबसे मुश्किल होती है. क्योंकि इसमें बेहतर होने की, खुद को पलटकर देखने की संभावना कम से कमतर होती है. और जहाँ खुद को देखने की संभावना नहीं होती वहां बेहतर होने की, ग्रो करने की समझ को विकसित करने की संभावना भी कम ही होती है.

समाज की जो संरचना है उसमें इसके मजबूत तार हैं. फलां समुदाय ऐसा ही होता है. फलां वर्ग को ऐसा ही करना चाहिए. अच्छे बच्चे ऐसे होते हैं. अच्छे लोग वैसे होते हैं. नैतिकता, संस्कार, परम्पराएँ, मान्यताएं ये सब सदियों से हमारे अवचेतन में सेंध लगाकर हमारे व्यवहार को नियंत्रित कर रहे हैं. और हम ख़ुशी-ख़ुशी हो भी रहे हैं. क्योंकि हम जानते ही नहीं कि जिसे अपनी बात समझकर हम लड़ने-भिड़ने, हिंसक तक होने को व्याकुल हो उठ रहे हैं वो असल में हमारा है ही नहीं.

शिक्षा का यह काम होना था कि उसे इन बेवजह के लबादों से मुक्त होना सिखाना था. अपने खुद को खोजना शुरू करना सिखाना था. बने बनाये रास्तों पर चलना सिखाने की बजाय सिखाना था नए रास्ते खोजना. बताई हुई, सिखाई हुई बातों को सीधे-सीधे मान लेने की बजाय उन्हें खुद परखकर देखना सिखाना था. लेकिन हम हिंदी अंग्रेजी गणित सिखाने और सीखने की रेस में दौड़ पड़े. यह इसी रेस का नतीजा है शायद कि वाट्स्प यूनिवर्सिटी ने अच्छी-अच्छी यूनिवर्सिटी से अच्छे नम्बर लेकर पढ़े लोगों को अपनी गिरफ्त में ले लिया है. कैसे पढ़े-लिखे लोगों की भीड़ किसी निहत्थे, कमजोर व्यक्ति को घेरकर क्रूरता से मार देती है. फिर बहुत सारे पढ़े-लिखे लोग उस घटना को देखते हुए सुनते हुए उसे ठीक भी ठहराते हैं. यह हमारे दिमाग में घुसकर किसी खास वर्ग, समुदाय के प्रति रोपी गयी नफरत का नतीजा है. हमारे जन्म से पहले ही हमारा व्यवहार, हमारी प्रतिक्रियाएं, ख़ुशी, गुस्सा, नफरत तय करने वाला समाज हमें कठपुतली की तरह नचाता है, नचा रहा है और हम नाच रहे हैं.

कोई जज जब किसी खास वर्ग के प्रति अटपटे फैसले सुनाता है, कोई नेता जब बेहूदा हिंसक बयान देते हैं तब मूल सवाल शिक्षा पर उठता है. क्योंकि हैं तो ये सब शिक्षित ही. यानी शिक्षा ने वो किया ही नहीं जो उसका मूल उद्देश्य था. बेहतर संवेदनशील मनुष्य बनाना.

तो क्या शिक्षक समुदाय इस बात को समझ पाए? क्या वो खुद को तमाम पूर्वाग्रहों से मुक्त कर पाए? क्या वो खुद यह देख या समझ भी पाए कि उनके भी पूर्वाग्रह हैं कुछ. और अगर वो उन पूर्वाग्रहों के साथ कक्षा में जा रहे हैं, बच्चों से संवाद कर रहे हैं तो यकीनन वो सारे पूर्वाग्रह, मान्यताएं, व्यवहार बच्चों को सौंप रहे हैं. नतीजतन पीढ़ी दर पीढ़ी सामजिक विभेद, हिंसा, नफरत अवचेतन में ट्रांसफर हो रहे हैं. कक्षा में बच्चे गणित के सवाल ठीक से लगाना तो सीख ले रहे हैं लेकिन उनके मन में अपने गुरु जी को देखकर किसी खास समुदाय, वर्ग के प्रति उफनाती नफरत भी जगह बना रही है. यह घर में भी हो रहा है लेकिन स्कूल में ऐसा होना ज्यादा खतरनाक है. क्योंकि स्कूल वह जगह है जहाँ इन तमाम मान्यताओं की दीवार को ढह जाना होता है. समाज की हर समस्या की जड़ में शिक्षा ही नजर आती है. वह शिक्षा जो हमें एक-दूसरे के व्यवहार से मिलती है. अगर हम खुद संवेदनशील नहीं हैं तो अपने आसपास के तमाम लोगों को वैसा ही बनाने में किसी न किसी रूप में कोई न कोई भूमिका निभा ही रहे हैं.

शिक्षा के दस्तावेज (चाहे एनसीएफ़ 2005 हो या नयी शिक्षा नीति) तो मानवीय सरोकारों की पैरोकारी कर रहे हैं लेकिन उसे अभी स्कूलों में ठीक तरह से आना बाकी है. और सिर्फ प्रारम्भिक शिक्षा ही क्यों उच्च शिक्षा में भी इसका शामिल होना जरूरी है. लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी है व्यक्ति के तौर पर हमें शिक्षा के इस मूल मूल्य को समझना कि इसके बिना सब अधूरा ही है, अधूरा ही रहेगा. क्या होगा उन 100 में से 100 नम्बरों का जिसके सीने में अपने पड़ोसी की मुश्किल में आँख न नम हो, मदद को दौड़ पड़ने की व्याकुलता न हो. किसी भी समाज का मुख्य संस्कार है संवेदना. इन्सान को इन्सान समझना. वही नहीं तो क्या होगा डिग्रियों के ढेर से. अच्छी नौकरी तो मिल जाएगी. ऐशो आराम के साधन भी जुटा लेंगे लेकिन वो जो हर वक़्त डर-डर के जीना है, अपने बच्चों की सुरक्षा का सवाल है, बेटियों के वक़्त पर घर न लौटने पर बढ़ती हुई धड़कनें हैं, चारों तरफ से आती चीखो-पुकार है उसका क्या? अगर हमें एक शांत, खूबसूरत, सुरक्षित समाज चाहिए तो संवेदना के सूत्र को किसी मन्त्र की तरह आत्मसात करना होगा.

ये जो हमारे अवचेतन पर कब्जा करके हमारे सपनों को, हमारे व्यवहार तक को हाइजैक कर लिया गया है सदियों सदियों से उस चक्र से अब बाहर तो निकलना ही होगा. 

2 comments:

दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा 30.09.2021 को चर्चा मंच पर होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
धन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क

Onkar said...

बहुत सुन्दर