-प्रतिभा कटियार
अगर किसी व्यक्ति या चीज़ या काम के बारे में कोई राय बन गयी तो उस राय का बदलना आसान नहीं होता. जब हमने (अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन) एक टीम के तौर पर वैक्सीनेशन की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए स्वास्थ्य कर्मियों के साथ मिलकर उनका साथ देना शुरू किया तो उस दौरान ऐसी ही पूर्व निर्मित धारणाओं से सामना हुआ. जैसे कुछ सामाजिक मान्यताएं पहले से पकड़ बनाये हुए मिलीं. ‘फलाने लोग तो होते ही ऐसे हैं. उन लोगों से बात करने का कोई फायदा नहीं. फलां जाति के लोग वैक्सीन लगाने के लिए राजी ही नहीं होते. फलां समुदाय के लोग तो ऐसे ही हैं, उन्हें कितना भी समझा लो सुनते ही नहीं.’
भारतीय समाज में कुछ समुदायों, जातियों, लोगों के प्रति इस तरह की धारणाओं का होना कोई नयी बात नहीं है. इन्हीं धारणाओं के बीच हम पले-बढ़े हैं. जाने-अनजाने इन्हीं धारणाओं की गिरफ्त में जकड़े हुए भी हैं. यह भी सच है कि जब हम पूर्वनिर्मित किसी धारणा के साथ कोई काम करते हैं तब नतीजे ज्यादातर धारणाओं को पोषित करने वाले आ सकते हैं. क्योंकि वो फलां व्यक्ति या समुदाय भी जानता है कि उसके बारे में कौन क्या सोचता है और वो अपने बारे में बनी धारणाओं को लेकर बेपरवाह और कभी-कभी गुस्सैल भी होने लगता है.
लेकिन अगर सच में इन फलां समुदायों, जातियों, व्यक्तियों के बारे में जानना है तो सिर्फ दो काम करने की जरूरत है. सबसे पहले अपनी पूर्व निर्मित और जड़ जमाए हुई मान्यताओं को तोड़ना होगा. दूसरा उन लोगों, समुदायों, व्यक्तियों के साथ समय बिताना होगा जिनके बारे में मान्यताएं फैली हुई हैं. यक़ीन मानिए इसके अलावा तीसरा कोई तरीका है ही नहीं हक़ीकत तक पहुँचने का.
वैक्सीनेशन के दौरान जब हमने स्वास्थ्य कर्मियों के साथ मिलकर काम करना शुरू किया तो ऐसी जड़ पकड़ी हुई मान्यताओं से टकराने का अवसर भी मिला. पहली दूसरी और तीसरी मुलाकातों में हमें यह यकीन दिला दिया गया था कि ये जो कुछ जातियां, समुदाय, लोग हैं ये बहुत पिछड़े हुए हैं, गुस्सैल हैं, और किसी भी तरह वैक्सीनेशन के लिए राजी नहीं हो रहे. हमने जब बिना किसी पूर्व धारणा या मान्यता पर ध्यान दिए उन फलां जातियों, समुदायों और व्यक्तियों से मिलना शुरू किया तो हक़ीकत को सामने आते जरा भी देर नहीं लगी. देहरादून की जिन बस्तियों, गांवों में हमने लोगों से मुलाकातें कीं उनमें शायद ही कोई ऐसा मिला हो जो वैक्सीन न लगवाना चाहता हो. जो लोग वैक्सीन लगवाने से हिचक रहे थे उनके कुछ कारण थे जो वैक्सीन को लेकर बनी भ्रांतियों के चलते थे जिस पर उनसे बात करने की जरूरत थी. हमने महसूस किया कि जब लोग आप पर भरोसा करते हैं तब वो आपकी बात मानने को भी तैयार हो जाते हैं.
इस दौरान कुछ एक ऐसी बस्तियों और गांवों में जाना हुआ जहाँ के बारे में सुना था कि पूरा गाँव ही वैक्सीन लगाने का विरोध करता है. और ये लोग काफी गुस्सैल हैं, मारपीट भी कर सकते हैं. वो लगातार गिरती बारिश वाला दिन था. हम जब उस गाँव में जा रहे थे. हमारे साथ पीएचसी के डाक्टर भी थे और आशा भी थीं. उन्होंने बताया कि एक बार यहाँ वैक्सीन लगाने के बाद एक व्यक्ति की तबियत ख़राब हो गयी थी इसलिए अब पूरी बस्ती वैक्सीन नहीं लगवाना चाहती.
हम सब तेज बारिश में अपने अपने छातों में खुद को बचाते हुए टपकते छप्पर के भीतर से झांकते एक बुजुर्ग से मिले. उन्होंने सच में वैक्सीन लगाने से मना कर दिया और कहा कि उनकी तबियत खराब है. उन्होंने दवाइयों का थैला दिखाते हुए कहा, ‘ये देखो ये दवाइयां खा रहा हूँ. ये हार्ट अटैक की दवाई है.’ फिर उनसे कुछ देर बात होती रही. घर परिवार की, सेहत की. उन्हें यक़ीन दिलाया कि यह वैक्सीन लगाने से कोरोना से बचाव होगा न कि तबियत खराब होगी. वो ना-नुकुर करते रहे लेकिन उनकी ‘न’ पिघल रही थी यह हमने महसूस किया. आखिर उन्होंने मुस्कुराकर कहा, ‘अच्छा लो, लगा लो.’ उनकी इस सहमति का असर यह हुआ कि उस समुदाय के अन्य लोगों ने भी धीरे-धीरे वैक्सीन को लेकर जो डर था उसे पीछे छोड़ा. निश्चित तौर पर इस सबमें हमारी आशा वर्कर्स की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है.
एक और अनुभव याद आता है जब एक समुदाय की महिला ने यह कहकर वैक्सीन लगाने से मना किया, ‘कि वो दूध पिलाती है’ हमारी साथी ने अपना उदाहरण देकर जब कहा ‘मैं भी तो पिलाती हूँ बच्चे को दूध और मैंने तो लगाया है वैक्सीन.’ तो उस महिला ने आश्चर्य और भरोसे वाली मिलीजुली नजर से उसे देखा और वैक्सीन लगाने को तैयार हो गयी. एक और बस्ती के बारे में हमें बताया गया था कि वहां के लोग एकदम तैयार नहीं वैक्सीन लगाने को लेकिन जब हमने वहां घर-घर में जाकर लोगों से बात की तो हक़ीकत कुछ और थी. या तो उन्हें पता नहीं चल पाता कि वैक्सीन कब लग रही है, कौन सी डोज़ लग रही है या वो काम पर गए हुए थे, या वैक्सीन लगने के समय वो बाहर गये थे लेकिन अब अपनी बारी आने का इंतजार कर रहे हैं.
जमीनी सच्चाई यह है कि वैक्सीन लगाने को लेकर लोगों के मन में नकारात्मकता नहीं है. अगर कहीं है बहुत छोटे हिस्से में तो उसके उनके पास कुछ कारण हैं. जो संवाद के जरिये दूर हो सकते हैं. हमारे सवास्थकर्मी बहुत मेहनत और प्रतिबद्धता के साथ वैक्सीनेशन के काम में जुटे हुए हैं. लेकिन कुछ काम हमारे हिस्से भी है. वैक्सीनेशन को लेकर सकारात्मक संवाद बनाने का काम. आसपास जो भी लोग हैं, खासकर छोटे कामगार लोग, घर में काम करने वाली हेल्पर हों, ड्राइवर हों, सब्जी बेचने वाले, दूध बेचने वाले, फेरीवाले उनसे जरूर पूछें कि वैक्सीन लगी या नहीं. और अगर उनके मन में कोई वहम है, कोई हिचक है तो उसे दूर करें, उन्हें मार्गदर्शन दें कि वो कब और कहाँ वैक्सीन लगा सकते हैं. और हाँ, अगर उन्हें एक दो दिन की छुट्टी लेनी पड़े बुखार आदि आने के कारण तो भी उनकी मदद करें.
यह राष्ट्रव्यापी काम है जिसमें सबके सहयोग की जरूरत है. बस अपने हिस्से की भूमिका तलाशने भर की देर है.