Tuesday, June 29, 2021

कामकाजी औरतें



कामकाजी औरतें हड़बड़ी में निकलती हैं रोज सुबह घर से
आधे रास्ते में याद आता है सिलेंडर नीचे से बंद किया ही नहीं
उलझन में पड़ जाता है दिमाग
कहीं गीजर खुला तो नहीं रह गया
जल्दी में आधा सैंडविच छूटा रह जाता है टेबल पर

कितनी ही जल्दी उठें और तेजी से निपटायें काम
ऑफिस पहुँचने में देर हो ही जाती है
खिसियाई हंसी के साथ बैठती हैं अपनी सीट पर
बॉस के बुलावे पर सिहर जाती हैं
सिहरन को मुस्कुराहट में छुपाकर
नाखूनों में फंसे आटे को निकालते हुए
अटेंड करती हैं मीटिंग
काम करती हैं पूरी लगन से

पूछना नहीं भूलतीं बच्चों का हाल
सास की दवाई के बारे में
उनके पास नहीं होता वक्त पान, सिगरेट या चाय के लिए
बाहर जाने का
उस वक्त में वे जल्दी-जल्दी निपटाती हैं काम
ताकि समय से काम खत्म करके घर के लिए निकल सकें.
दिमाग में चल रही होती सामान की लिस्ट
जो लेते हुए जाना है घर
दवाइयां, दूध, फल, राशन

ऑफिस से निकलने को होती ही हैं कि
तय हो जाती है कोई मीटिंग
जैसे देह से निचुड़ जाती है ऊर्जा
बच्चे की मनुहार जल्दी आने की
रुलाई बन फूटती है वाशरूम में
मुंह धोकर, लेकर गहरी सांस
शामिल होती है मीटिंग में
नजर लगातार होती है घड़ी पर
और ज़ेहन में होती है बच्चे की गुस्से वाली सूरत
साइलेंट मोड में पड़े फोन पर आती रहती हैं ढेर सारी कॉल्स
दिल कड़ा करके वो ध्यान लगाती हैं मीटिंग में

घर पहुंचती सामान से लदी-फंदी
देर होने के संकोच और अपराधबोध के साथ
शिकायतों का अम्बार खड़ा मिलता है घर पर
जल्दी-जल्दी फैले हुए घर को समेटते हुए
सबकी जरूरत का सामान देते हुए
करती हैं डैमेज कंट्रोल

मन घबराया हुआ होता है कि कैसे बतायेंगी घर पर
टूर पर जाने की बात
कैसे मनाएगी सबको
कैसे मैनेज होगा उनके बिना घर

ऑफिस में सोचती हैं कैसे मना करेगी कि नहीं जा सकेंगी इस बार
कितनी बार कहेंगी घर की समस्या की बात

कामकाजी औरतें सुबह ढेर सा काम करके जाती हैं घर से
कि शाम को आराम मिलेगा
रात को ढेर सारा काम करती हैं सोने से पहले
कि सुबह हड़बड़ी न हो

ऑफिस में तेजी से काम करती हैं कि घर समय पर पहुंचें 
घर पर तेजी से काम करती हैं कि ऑफिस समय से पहुंचें

हर जगह सिर्फ काम को जल्दी से निपटाने की हड़बड़ी में
एक रोज मुस्कुरा देती हैं आईने में झांकते सफ़ेद बालों को देख

किसी मशीन में तब्दील हो चुकी कामकाजी औरतों से
कहीं कोई खुश नहीं न घर में, न दफ्तर में न मोहल्ले में
वो खुद भी खुश नहीं होतीं खुद से

'मुझसे कुछ ठीक से नहीं होता के अपराध बोध से भरी कामकाजी औरतें
भरभराकर गिर पड़ती हैं किसी रोज़
और तब उनके साथी कहते हैं
'ऐसा भी क्या खास करती हो जो इतना ड्रामा कर रही हो.'

मशीन में बदल चुकी कामकाजी औरतें
एक रोज तमाम तोहमतों से बेज़ार होकर
जीना शुरूकर देती हैं
थोड़ा सा अपने लिए भी
और तब लड़खड़ाने लगते हैं तमाम
सामाजिक समीकरण.

4 comments:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 01-07-2021को चर्चा – 4,112 में दिया गया है।
आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क

Subodh Sinha said...

कामकाजी महिलाओं की परेशानियों का मार्मिक और बहुत हद तक यथार्थ को स्पर्श करते शब्द चित्र .. पर वैसे .. यूँ तो तथाकथित गृहणियों/House wife के भी कार्यभार कम नहीं होते .. शायद ...

"जीना शुरूकर देती हैं
थोड़ा सा अपने लिए भी
और तब लड़खड़ाने लगते हैं तमाम
सामाजिक समीकरण." - एक कटु सत्य ...

गिरिजा कुलश्रेष्ठ said...

आपने जैसे दुखती रग को छू लिया है प्रतिभा जी . एक एक शब्द चित्र हृदय में उतर गया वाह

सुमन कुमार सिंह said...

बहुत अच्छी कविता है। प्रकाशित रूप में मैंने इसे पहले हीं पढ़ा था । आज अचानक शिक्षकों के एक समूह में यही कविता कुछ बदलाव के साथ 'अध्यापिकाएँ' शीर्षक से पढ़ने को मिली तो मैं रचनाकार का नाम ढ़ूढने लगा। नहीं मिला। वस्तुत: मैं जो ढ़ूँढ़ रहा था , वह अभी ब्लाग पर मिला। तसल्ली हुई कि ये आपकी कविता है। एक अच्छी रचना की बधाई !