Saturday, May 15, 2021

उम्मीद के सुर और सूरजमुखी


जाने कौन देहरी पर उदास सुबहें छोड़ जाता है. जाने कौन है जो रातों की नींदों को दुनिया भर की चिंताओं से बदलकर चला गया है. जाने कौन है जिसने पूरे मौसम पर उदास चादर ओढ़ा दी है. यूँ कि दुनिया का कारोबार है चलना सो चल रहा है लेकिन जानती हूँ कुछ है जो एकदम ठहर गया है. किसी काम में मन नहीं लगता. उसी अनमने से मन के साथ घर भर में इधर से उधर, रसोई से बालकनी, एक किताब से दूसरी किताब, एक मीटिंग से दूसरी मीटिंग के बीच डोलती फिरती हूँ फिर देखती हूँ सूरज डूबने को हो आया है. तो एक और दिन बीता...यह ख्याल आने को होता ही है कि एक डर उस ख्याल को ओवरटेक करके सामने आ जाता है. नींद न आने का डर. करवटों में रात के गुजरने के इंतजार और फिर उदास सुबह के आने का डर. ये डर, ये उदासी कैसे जायेगी. कब जाएगी. जतन तो करती हूँ कि इस उदासी की बेड़ियों को काट सकूं, उदास सुबहों को जरा पीछे धकेल सकूं और एक नर्म नाज़ुक प्यारी मुस्कुराती सुबह के गले से लग जाऊं. लेकिन सब जतन अधूरे रह जाते हैं.

कल माँ ने पूछा,'लीचियां बड़ी हो गयी होंगी अब तो?' मैंने चौंककर कहा, 'नहीं, नहीं तो मैंने तो नहीं देखा.इस बार बौर भी आई थी क्या? लगता है इस बार बौर भी नहीं आई'. माँ ने प्यार से डपटते हुए कहा,' तुम्हारा ध्यान न गया होगा.बौर तो मेरे वहां रहते ही आ गयी थी.' मैं चुप रही. सचमुच मुझे कुछ याद नहीं. जैसे सब कुछ दिखना बंद हो गया है. इस बार कोयल की आवाज भी नहीं आती. सुबह की चाय भी किसी काम सी लगने लगी है.

यह मन की स्थिति है. किसी से कहने का कोई अर्थ नहीं. एक हजार नसीहतें मिल जाएँगी. लेकिन मेरा मन है मैं जानती हूँ. समय के माथे पर जो उदासी है उससे विलग कैसे रह सकता है कोई. सकारात्मक बातें भी जाने क्यों जबरन किया गया ऐसा प्रयास लगता है जिसे करने में घुटने, कोहनियाँ सब छिल जाते हैं. एक मुस्कुराहट की आस में लहूलुहान होने का सिलसिला जारी है.

दुनिया के तमाम शब्दकोषों को पलट रही हूँ. ढूंढ रही हूँ सद्भावना का वह एक शब्द जो फाहे की तरह रखा जा सके किसी के जख्मों पर. शब्द जिसके सीने से लगकर टूटती हिचकियों के संग जी भर के रोया जा सके. एक शब्द जिसे अपनों के चले जाने के दुःख में सूख चुकी आँखों के सामने रख दें तो गुम गया रुदन वापस लौट आये और कोई रो ही ले जी भर के. 

इन्सान पर जो दुःख टूटा है न उसके आगे दुनिया भर के शब्दकोष शर्मिंदा खड़े हैं. 'अपना ख्याल रखना' इन दिनों  बहुत अधूरा महसूस करता है बहुत निरीह. लेकिन सिवाय इसके चारा ही क्या है. यूँ तो इतरा कर कहा करते थे कभी कि, 'मैं क्यों रखूं अपना ख्याल, यह तो तुम्हारा काम है.अपना ख्याल भी खुद ही रखा तो क्या बात हुई. तुम रखना मेरा ख्याल, मैं तुम्हारा रखूंगी...' वो लड़कपन की बातें थीं. वक्त सयाना है. वक्त के आगे हम सब घुटने टेके बैठे हैं. उनके आगे भी जो वक्त की इस क्रूर मार से बचा सकते थे. वो क्या कभी आईना देखते होंगे? क्या उन्हें चैन से नींद आती होगी? क्या उन्हें किसी की कराहें, किसी का विलाप नींद से जगा न देता होगा? मेरे इस सवाल पर एक अट्टहास गूंजता सुनाई देता है. ये वही लोग हैं जिन्होंने रुदालियों की बुनियाद पर महलों की नींव रखी है.

ध्यान हटाने की कोशिश में तुम्हारा ख्याल आता है. सुना था प्रेम के पास हर मर्ज की दवा होती है. प्रेमी की एक बूँद आवाज मरहम होती है लेकिन दुख की इन बेड़ियों को काटने के लिए तुम्हें अभी और दरिया, और रेगिस्तान, और जंगल पार करने हैं शायद. 

मोहन ने बांसुरी का टुकड़ा भेजा है. बहुत मीठा बजाते हैं मोहन. मैं उदास सुबह को इन बेमतलब के शब्दों से खुरचने की कोशिश कर रही हूँ जिसमें मोहन की बांसुरी साथ दे रही है. ’बरसेगा सावन झूम झूम के...’ बांसुरी की मिठास चाय में घुलने लगी है...शायद सुबह में भी. कि आज ठीक से देख पा रही हूँ सामने खिले सूरजमुखी...छोटी लीचियां और मम्मी के लगाये करेले के नन्हे पौधे में (जो अब लम्बी चौड़ी बेल बन चुकी है) आये फूल...

उम्मीद के सुर से लगातार उँगलियाँ टकराती जाती हैं...

3 comments:

शिवम कुमार पाण्डेय said...

बहुत सुंदर।

PRAKRITI DARSHAN said...

ढूंढ रही हूँ सद्भावना का वह एक शब्द जो फाहे की तरह रखा जा सके किसी के जख्मों पर. शब्द जिसके सीने से लगकर टूटती हिचकियों के संग जी भर के रोया जा सके. एक शब्द जिसे अपनों के चले जाने के दुःख में सूख चुकी आँखों के सामने रख दें तो गुम गया रुदन वापस लौट आये और कोई रो ही ले जी भर के.
अहा कितना गहन लिखा है, हर शब्द जैसे मन में गूंथा गया है, हर शब्द जैसे अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है, बहुत सुंदर और भावपूर्ण लेखन के लिए बधाई।

Onkar said...

सुंदर प्रस्तुति