बरस बरस के हांफ गये हैं बादल, जरा देर को ब्रेक लिया हो जैसे. और इस जरा से ब्रेक में ही परिंदों ने उड़ान भरी है. बरस के रुके हुए मौसम में एक अजब किस्म का ठहराव होता है. प्रकृति का समूचा हरा अपनी तिलस्मी स्निग्धता के संग मुस्कुराता नजर आता है. पत्तों पर अटकी हुई बूँदें किसी जादू से मालूम होती हैं.
दोपहर के साढ़े बारह बजे हैं और मैं अभी तक सिर्फ एक कप चाय पीकर बारिश की संगत पर एकांत का सुर लगाने की कोशिश कर रही हूँ. यह सुर लग नहीं रहा अरसे से. कि जिस एकांत की कभी खोज रहा करती थी वही अब काटता क्यों है, भयभीत करता है. फिर यह भी है कि इसके खो जाने का भय भी है. अजीब कश्मकश है. जो है उससे ऊब भी है, भय भी और उसी से मोह भी. जब कभी सुर लग जाता है तब एकांत महक उठता है और जब सुर नहीं लगता इसी एकांत को तोड़ देने के एक से एक नायाब तरीके जेहन में आते रहते हैं.
असल मसला उस सवाल का है जो भीतर है और अरसे से अनुत्तरित है. हम जिन्दगी से क्या चाहते हैं? अगर इस सवाल का जवाब ठीक ठीक पता होता है तो वह मिलते ही हम संतुष्ट हो जाते हैं, खुश हो जाते हैं. लेकिन उस सवाल के उत्तर में अगर घालमेल है तो गडबड होती रहेगी.
मुझे हमेशा लगता है जवाब को छोड़ दें अगर हम पहले सही सवालों तक पहुँच जाएँ तो यह भी काफी है. शायद वहीँ से कोई राह खुले.
खिली हुई जूही बारिश में भीग कर इतरा रही है. मौसम में सोंधेपन का इत्र है. भीतर की उदासी बाहर के मौसम से टकराकर टूट नहीं रही फिर भी टकराना अच्छा लग रहा है.
एक परिंदा खिड़की पर आ बैठा. मेरी तरफ देखते हुए वो नहीं जानता कि अब वो इस पार इंट्री ले चुका है. सोचती हूँ एक बार चाय और पी जाए. कल शाम एक फिल्म की बाबत एक दोस्त ने बताया है, एक आधी पढ़ी किताब है इन्हें जमापूँजी सा सहेजे हूँ. फिल्म देख लूंगी, कितबा पूरी पढ़ लूंगी तो पूँजी खत्म हो जायेगी...इसलिए थोड़ा ठहरना जरूरी है.