Sunday, March 29, 2020

ये लोग देश हैं, देशद्रोही नहीं हैं


यह नफरत का समय नहीं है, ये सरकार को कोसने का समय नहीं है, ये लेफ्ट राईट के खांचों में बंटने का समय नहीं है. ये समय अपने घरों में बैठे हुए बेघर होने का दर्द महसूस करने का है. अपने पांवों में लगातार चलने से होने वाले दर्द को महसूस करने का. कई कईं दिन की भूख को महसूस करने का. और जितना संभव हो किसी की भूख को खाने से बदल पाने का. ज्यादा और ज्यादा मनुष्य होने का.

ये समय है किसी भी तरह पैदल, भटकते देश के साथ खड़े होने का. वो लोग जो पैदल चले जा रहे हैं वो न हिन्दू हैं, न मुसलमान. न स्त्री, न पुरुष. वो इन्सान हैं. उन्हें आप पर आस्था थी. भरोसा था. जिनके पास थालियाँ थीं उन्होंने थालियाँ बजाई होंगी, आपके गाल बजाने से ज्यादा बजाई होंगी जिनके पास थालियाँ नहीं रही होंगी उन्होंने तालियाँ बजायी होंगी. उन्होंने प्रधानमन्त्री जी की बात को हमेशा गौर से सुना, उनकी बात मानी भी. उन्हें वोट भी दिए. लॉकडाउन हुआ तो भी उन्होंने बात मानी. उदास हुए लेकिन जहाँ थे वहीं रुक गए.

फिर क्या हुआ...जहाँ वो थे वहां से उन्हें खदेड़ा जाने लगा. काम से, बसेरे से. भूखे, बेघर जेब से खाली लोग सड़क पर आ गये. सडक पर आये तो पीटे जाने लगे.

वो पिकनिक मनाने नहीं जा रहे हैं. वो भी हमारी, आपकी तरह घर में रहना चाहते हैं, सैनीटाइज़र से हाथ साफ़ करते, रामायण देखते, खाने की फोटू लगाते फेसबुक पर लेकिन उनके पास नहीं है ये सुविधा. उनके पास एक देह है, भूख है, असुरक्षा है इसलिए वो चल रहे हैं.

सदियों से जो एक सी सामजिक, आर्थिक स्थिति में ठहरे हुए हैं आज वो चल रहे हैं. तब उनके ठहरे हुए जीवन पर हमारी नजर नहीं गयी कि क्यों पीढ़ी दर पीढ़ी ये वहीं के वहीं ठहरे हुए हैं. जीडीपी के आंकड़ों में ये कहीं भी क्यों नहीं हैं. ये सदियों से भूखे हैं, इनका कोई सम्मान नहीं. इनके बच्चे दुखी नहीं होते अपने माँ बाप को पिटते देख. इनके माँ बाप का दिल रोता नहीं जब बच्चा रोटी (पिज़्ज़ा या चाऊमीन नहीं ) मांगता है तो ये एक चमाट मार देते हैं. इनके बच्चे बनती हुई भव्य इमारतों के बीच कहीं कोने में पड़े-पड़े बड़े हो जाते हैं. वही भव्य इमारतें जिनके बन जाने के बाद ये उसमें घुस भी नहीं सकते.

ये दीवारों के पीछे छुपाये जाते लोग हैं. इन्हें हर हाल में मौत से लड़ना होता है, हर दिन. ये देश हैं, देशद्रोही नहीं हैं. इनके प्रति आपके मन में इतना आक्रोश क्यों है आखिर? कहाँ से आया? और खुद को संवेदनशील कहते हैं आप?

नफरत मिटाकर हाथ बढ़ाने का वक्त है इंसानियत की तरफ. जितनी संभव हो जरूरतमंदों की मदद करने का. परिवार के साथ रामायण देखते हुए थोड़ा सा रो लेने का. कोरोना से नहीं नफरत के वायरस से भी लड़ने का वक्त है ये.

(लॉकडाउन डेज़)

6 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सार्थक आलेख

Onkar said...

सही कहा

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

सार्थक आलेख।

'एकलव्य' said...

आदरणीया/आदरणीय आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर( 'लोकतंत्र संवाद' मंच साहित्यिक पुस्तक-पुरस्कार योजना भाग-२ हेतु नामित की गयी है। )

'बुधवार' ०१ अप्रैल २०२० को साप्ताहिक 'बुधवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य"

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Sudha Devrani said...

सही कहा ये समय मनुष्य के मनुष्य होने का है
दूसरों की तकलीफ को महसूस करने का समय है आत्ममंथन और आत्मचिंतन का समय है
बहुत शानदार लेख।

मन की वीणा said...

शानदार लेख है! यथार्थ पर सार्थक चितंन देता मर्म स्पर्शी लेख।