Wednesday, March 4, 2020

दुस्वप्न


पीछे कुछ अनजाने लोग थे
उनके हाथों में थे हथियार

वो मुझे नहीं जानते थे
मैं भी उन्हें नहीं जानती थी
वो मुझे मारना चाहते थे
क्यों मारना चाहते थे
ये न वो जानते थे
न मैं जानती थी

यह बात तो कोई और ही जानता था

हथियारों से लैस उस भीड़ से बचकर भागते हुए
अचानक टकरा गई अपने प्रेमी से
सांस में आई राहत की सांस
छलक पड़ीं आँखें
पीड़ा और सुख दोनों से एक साथ
कि उसने कहा था
वो मुझे दुनिया के हर दुःख से बचाएगा
आंच नहीं आने देगा मुझ पर

छुप गयी उसके पीछे जाकर
भीड़ थमी
भीड़ के कुछ चेहरे मुस्कुराये
अचानक मेरा प्रेमी सामने से हटते हुए बोला
'ले जाओ इसे'

उस रोज पहली बार
प्रेमी का धर्म मालूम हुआ
इसके पहले तक प्रेम ही था
हम दोनों का धर्म

कत्ल होने से पहले मैंने महसूस किया
कि अब मुझे भीड़ के हाथों
कत्ल होने का दुःख नहीं
दुःख था प्रेम के धार्मिक हो जाने का

मुझे भीड़ ने नहीं प्रेम ने मारा
और हमारे बीच जो प्रेम था
उस प्रेम को किसने मारा...

2 comments:

yashoda Agrawal said...

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 05 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

ANHAD NAAD said...

भूल जाइए