Sunday, February 23, 2020

कथन-अमानुषिकता से जूझती दुनिया

कथन का नया अंक है इन दिनों साथ. कथन सजाकर रखने, उलट-पुलटकर देखने और रख देने वाली पत्रिका नहीं है. इसमें डूबना होता है, आप पढकर निकल जाएँ ऐसा इस पत्रिका की सामग्री होने नहीं देती. यह पिछले इतवार की बात है जब कथन की पैकिंग खोली और इत्मिनान वाली धूप में कवितायेँ पढ़ीं. मलखान सिंह की कविताएँ झकझोर देने वाली कवितायें हैं. सभ्य कहे जाने वाले समाज को आईना दिखाती कवितायेँ. लीलाधर मंडलोई,मुस्तफा खान, विमल चन्द्र पांडे, श्रुति कुशवाहा,आत्मा रंजन और विहाग वैभव की कवितायेँ पुनर्पाठ मांगती हैं जैसे हर अच्छी कविता मांगती है. बीते इतवार पढ़ी गयी ये कवितायेँ पूरे सप्ताह जेहन में खदबदाती रहीं. अनुज लुगुन की कविताओं को राजेश जोशी जी की टिप्पणी के साथ पढा. एक कविता के कितने पाठ हो सकते हैं, कितने अर्थ.


आज जब फिर इतवार मिला तो फिर इन कविताओं को पढ़ा. कविताओं के अतिरिक्त अभी दो कहानियां और एक साक्षात्कार पढ़ सकी हूँ. कहानियां सीमा आजाद और प्रियदर्शन जी की. सीमा आज़ाद की कहानी फेसबुक लाइव जहाँ इंटरनेट की दुनिया की हकीकत खंगालती है वहीँ प्रियदर्शन जी की कहानी 'सडक पर औरत' एक रिश्ता बुनती है हर स्त्री का दूसरी स्त्री से. चेतना से उपजा यह रिश्ता संवेदना के तल पर मजबूत होता है.
लाल बहादुर वर्मा जी से संज्ञा की बातचीत संभालकर रखने लायक है. अमानुषिकरण की समस्या पर यह विस्तृत बातचीत है जिसमें जितने मंझे हुए सवाल हैं उतने ही उदार और मुक्त जवाब जिसमें अमानुषीकरण की समस्या के समाधान पर चर्चा तो है लेकिन वर्मा जी पहले समस्या को ठीक से समझने पर जोर देते हैं और कारणों की पड़ताल करते हैं.अभी जो पढ़ना शेष रह गया है उसमें गौहर रजा जी का लेख गांधी के रास्ते पर लौटना ही होगा और राजीव भार्गव का लेख 'ब्रह्मणवाद के विरोध का वास्तविक अर्थ' पहली फुर्सत में पढ़ना है.

बढती अमानुषिकता से जूझती दुनिया इस अंक की थीम है. कथन का यह अंक हम सबके पास होना चाहिए. पढने के लिए दोस्तों को बांटने के लिए और इसमें दी गयी सामग्री पर बातचीत करने के लिए.
मलखान सिंह की एक कविता-

महज इत्तेफाक नहीं है यह
कि सदियों से वे
साढ़े तीन हाथ लम्बी नाक लिए
अवतरित होते हैं
हम पैदा होते हैं नकटे ही
नकटे ही मर जाते हैं.

कि हमारी धोती
घुटने नहीं ढंक पाती हमारे
उनकी धोती अंगूठा चूमती है पैर का
तर्जनी में घूमती है.

कि हल की मूठ भी
पकड़ना नही जानते थे
कहलाते नम्बरदार
हम पूरी उम्र
बैल बन हाँफते हैं
हरामखोर कहलाते हैं.

कि हमारी बस्ती में उगा पौधा
दरख्त होने से पहले ही
सूख जाता है
उनके आंगन का बूढा पेड़ भी
हाथी सा झूमता है.

कि हमारे सर नंगे हैं
हमारे पैर नंगे हैं
वे रोज जूता बदलते हैं
सर पर मुडासा बाँध
चौधराहट पेलते हैं.

कि लम्पट हैं वे
लफंगई करते हैं
हवेलियों में रहते हैं
आँखों के अंधे हम
उम्र भर लददू बने
छत को तरसते हैं.

कि उनकी हर सुबह
सतरंगे पंख लगाये उगती है
हमारी रात है ससुरी
सिमटने का नाम ही नहीं लेती.

तभी तो आज
आज़ादी की आधी सदी बाद
हमारे पेट खाली हैं
हमारे हाथ खाली हैं
हम बिकने जाते हैं चौराहों पर
नहीं बिक पाते जिस रोज
चूल्हा भी नहीं जल पाता है.

1 comment:

Onkar said...

प्रभावशाली रचना