Sunday, October 13, 2019

स्काई इज़ पिंक



'अगर तुम्हारा स्काई पिंक है तो वो पिंक ही है. किसी के कहने से तुम अपने स्काई का कलर मत बदलना. जो टीचर कहती है कि तुमने स्काई का कलर गलत पेंट किया वो टीचर गलत है. समझे' गले तक भर आये आंसुओं के सैलाब को संतुलित आवाज में समेटते हुए अपने छोटे से बच्चे को उससे बहुत दिनों से बहुत दूर गयी माँ समझाती है. वो उसे नहीं समझाती वो हम सबको समझाती है कि गलत सही के खांचों से बाहर निकलकर हमें बच्चों की दुनिया में प्रवेश करना चाहिए.

'स्काई इज़ पिंक' ओह क्या तो राहत था इसे देखना. क्या तो सुख. कोई कुछ भी कहे लेकिन एक बात को बार-बार महसूस करती हूँ कि माँ होना माँ होकर ही जाना जा सकता है. हालाँकि इसी कन्ट्रास्ट को पोट्रे किया है प्रियंका ने. यह फिल्म है तो बेटी के बारे में लेकिन है एक माँ की फिल्म. प्रियंका चोपड़ा के अभिनय ने एक बार फिर दिल पर मुहर लगा दी है. अदिति (प्रियंका), निरेन (फरहान), ईशान (रोहित), आयशा (जायरा) एक परिवार है. दुःख और संघर्ष की डोर से बंधा परिवार उम्मीद का गुलाबी आसमान रचता नजर आता है.

एक माँ अपने बच्चे के लिए यमराज से भी लड़ जाती है कुछ ऐसी है यह कहानी. जिस बच्चे के जन्म के साथ ही उसके न जी पाने की बात (SCID नामक बीमारी) जुड़ी हो उसके जन्म पर कैसा एहसास हुआ होगा, कैसे उसकी परवरिश एक हर पल के युद्ध में तब्दील होती है. यही कहानी है.

फिल्म की कहानी का बेस दुःख है, संघर्ष है, पीड़ा है, आत्मसंघर्ष है लेकिन पर्दे पर निराशा नहीं उम्मीद दौड़ती है, मुस्कुराहटें गुनगुनाती हैं, आसमान में उड़ने के ख्वाब हैं. वो आसमान जिसका रंग नीला नहीं गुलाबी है, मुस्कुराहटों वाला गुलाबी. जिन्दगी के डिफरेंट शेड्स का कोलाज है फिल्म जो पूरे वक्त कलाई नहीं दिलों की धडकनों को थामकर रखती है.

आमतौर पर जब भी मैं और बेटू फिल्म देखने जाते हैं वो मुझे चिढाती है मम्मा रोना नहीं. जरा सा भी इमोशनल सीन मेरी हिचकियाँ बाँध देता है. इसे लेकर मुझमें कोई संकोच भी नहीं है. कि रोना कोई बुरी बात भी नहीं.

मेरे लिए इस फिल्म पर लिखते हुए फिल्म के बारे में लिख पाना बहुत मुश्किल है क्योंकि मैं इस फिल्म के जरिये अपनी जिन्दगी को ही जी रही थी. 1991 का वह भयंकर एक्सीडेंट. माँ-पापा शहर में थे नहीं. उन्हें दो खबरें मिलीं एक कि गुड़िया अब नहीं रही, दूसरी कि जल्दी पहुँचिये शायद आखिरी बार मिल सकें.
माँ रोई नहीं इस खबर पर. उन्होंने बस इतना कहा बस मुझे उसकी एक सांस मिल जाय फिर मैं सब ठीक कर लूंगी. उन्हें वो एक साँस मिल गयी और उस एक सांस को पकड़कर वो जूझ गयीं. बरसों उन्होंने रुई के फाहे में छुपाकर रखा. सांस-सांस सहेजा, लेकिन टूटी नहीं, हारी नहीं. नौकरी, घर, अस्पताल और एक-एक लम्हे को सिर्फ माँ पर आश्रित बच्ची की तीमारदारी. शायद माँ सोती नहीं थीं. वो थकती भी नहीं थीं. कभी किसी पर नाराज नहीं होती थीं. हमेशा उम्मीद से भरी. और आखिर उन्होंने मुझे खड़ा कर दिया. मुझे उस दौर में माँ की भावनात्मक मजबूती आकर्षित करती है. हालाँकि मैं उनके जैसी मजबूत नहीं हूँ. क्योंकि मेरी बच्काी च वैक्सीनेशन भी मेरे लिए बड़ा युद्ध रहा हमेशा. सो यह जिम्मा उसकी नानी और पापा को मिला. अपने कानों में अपने बच्चे की रोती हुई आवाज को सहेजना कितना मुश्किल होता है यह दिल ही जानता है.

फिल्म सिर्फ फिल्म नहीं थी. भावनात्मक यात्रा थी. परिवार की ताकत को महसूसना था. भाई किस तरह दोस्त बनकर सामने से हंसाता रहता है और चुपके-चुपके रोता है. पिता जो मजबूत दिखने का जिम्मा कन्धों पर उठाये हैं लेकिन टूटते हैं वो भी. यह मजबूती से जुड़े रहने और चुपके-चुपके टूटने की कहानी है.

'भाई मैं मरना नहीं चाहती' लंदन के मेट्रो स्टेशन पर फोन पर मरती हुई बहन से यह सुनना और उसे हल्के-फुल्के अंदाज में सहेज पाना कितना मुश्किल रहा होगा यह फोन कटने के बाद उसके एक्सप्रेशन से कन्वे होता है. जब छोटी बहन के लिए एक-एक सांस सहेजने में माँ-बाप जूझ रहे हों तब माँ से दूर इण्डिया में रह रहा ईशान भी तो बचपन के लिए जूझ रहा होगा लेकिन इसकी कोई शिकायत नहीं दर्ज होती समझ दर्ज होती है. बच्चों को खेलने, शैतानी करने और जिद करने की उम्र में समझदार होने की सजा बड़ी सजा होती है. मेरे जेहन में ईशान के उस बचपन के पन्ने खुलते हैं जो सेल्यूलाइड के पर्दे पर नहीं खुले.

अपने हाथों में सिर्फ 24 घंटे का जीवन लेकर आई रोती-बिलखती बच्ची को सहेजती प्रियंका की पीड़ा झकझोर देती है.आह. जीवन कितना क्रूर होता है, फिर भी कितना सुंदर कि पैसे की कमी इलाज के आड़े आने नहीं देते दुनिया भर के लोग सिर्फ एक रेडियो अपील के बाद.

सच कहूँ, अभी भी रो रही हूँ. हम माँ बेटी पहली बार पूरी फिल्म में चुप थे लेकिन यह दुःख की चुप्पी नहीं थी. वापस लौटते हुए बेटू ने एक बात कही, 'मम्मा दुःख की एक ख़ास बात होती है न, वो सबको कितना जोड़कर रखता है न ?'

हम एहसासों से भरे हुए साथ चल रहे थे...जैसे चलती है हरसिंगार की खुशबू उसके करीब दो पल बैठकर चलने के बाद.

शुक्रिया सोनाली बोस!

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (15-10-2019) को     "सूखे कलम-दवात"  (चर्चा अंक- 3489)   पर भी होगी। 
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

मन की वीणा said...

संवेदनाओं को प्रेसित करती अद्भुत प्रस्तुति।
आंखे नम कर गई।
ये सिनेमा जरूर देखूंगी।