Wednesday, August 28, 2019

वो प्रेम की लहरों में सिमटते जाना

समन्दर फिर सामने था, इस बार हम दोनों के चेहरे तसल्ली वाली मुस्कराहट थी. समन्दर ने पलकें झपकाकर पूछा, ‘आ गयीं?’ मैंने भी नजरें मिलाकर जवाब दिया,’बिलकुल’ अजय जी अब तक मेरे और समन्दर के रिश्ते से वाकिफ हो चुके थे उन्होंने मुझे चिढाते हुए कहा, ‘लो तुम्हारी ससुराल आ गयी’. वो मेरे बचपने पर हंसते हुए कहने लगे, ‘यह तुम जो कहती हो कि समन्दर तुम्हारा प्रेमी है यह तो तुम्हारा मानना है न कभी समन्दर बेचारे से भी पूछा है’ उनकी इस चिढाने वाली बात के बीच ही एक बड़ी सी लहर ने हमें घेर लिया. मैंने कहा, ‘मिल गया जवाब.’ वो हंस दिए. बोले ‘पागल हो तुम एकदम.’

समन्दर के किनारे वो जो लगी होती हैं न बड़ी बड़ी छतरियां और उनके नीचे लेटने को सिंहासन नुमा बेंच. फिल्मों में इन्ह्ने खूब देखा था, फिर सामने से भी देखा समन्दर के किनारे जब भी गये यह दीखते रहे लेकिन कभी इस सिंहासन पर विराजने की हिम्मत न हुई. लेकिन अजय जी ने पहुँचते ही इसी सिंहासन पर धावा बोल दिया. अगर आप इन सिंहासन पर विराजना चाहते हैं तो आपको रेस्टोरेंट से कुछ ऑर्डर करना होगा या फिर अलग से इस पर विराजने का चार्ज देना होगा. मैं यह सुबह पता कर चुकी थी. सुबह रेस्तरां वाले जिस लडके ने मुझे एक मिनट के लिए बैठकर फोटो तक खींचने नहीं दी थी अब वो हमारी सेवा में था. मुझे इत्ता मजा आ रहा था. टोपी वोपी लगाकर फिल्मों में देखे सारे पोज मारने की कोशिश मैं कर रही थी. गंवार अल्हड़ किशोरी उस सपने को जी रही थी जो उसने देखे तक नहीं थे. खुद पर ही हंसी भी आ रही थी और मजा भी आ रहा था. कोई नहीं था जो मुझे यूँ अजीबोगरीब हरकतें करते देख मुंह बनाये या मजाक उडाये मेरा. बल्कि मेरे इस पागलपन को अजय जी फोटो खींचकर बढ़ा ही रहे थे. सबकुछ बहुत रोमांचक लग रहा था.


दोपहर का समन्दर सुबह के समन्दर से अलग होता है. कुछ अलसाया सा, कुछ सुस्त सा. जैसे-जैसे शाम ढलती जाती है समन्दर का मिजाज़ बदलता जाता है और रात होते-होते वह उच्छश्रृंखल प्रेमी बन जाता है. दिन में जिस जगह हम आराम से एक रंगीन छतरी के नीचे पसरकर आलू चिप्स खाते हुए गाने सुन रहे थे शाम होते होते वह जगह पानी के हवाले थी.

मैं समन्दर के प्रेम में थी. लहरों के संग खेल रही थी. लहरें खींच कर भीतर ले जातीं. मैं वापस लौट आती फिर तैयार खींचकर भीतर ले जाए जाने के लिए. लहरों के बीचोबीच पालथी लगाकर बैठ गयी थी डूबते सूरज को देखने को. यह वही गोवा था जहाँ पिछली बार सनसेट छूट गया था हमसे. हम अग्वादा फोर्ट से भागते हुए यहाँ पहुंचे थे लेकिन सूरज डूब चुका था. इस बार ढलते सूरज के सामने धूनी लगा ली थी मैंने. उसकी हर अदा को जी भरके देख रही थी.
लहरों का जादू ऐसा होता है कि जितना भी वक़्त इनके साथ बिताओ कम ही लगता है. घंटों समन्दर में पड़े-पड़े त्वचा फूलने लगती है फिर भी मन बाहर आने का करता ही नहीं. भूख, प्यास मानो सब स्थगित. जब रात काफी हो गयी और सिक्योरिटी अलर्ट के चलते बाहर आने को बोला जाने लगा तब कोई चारा नहीं था. लेकिन डिनर वहीँ समन्दर के किनारे ही किया ताकि नजर से ओझल न हो पल भर समन्दर. 
खूब संतुष्टि, अपार सुख लिए हम लौटे तो सामने फिर वही सवाल था वापस कैसे जायेंगे. इतनी दूर पैदल जाने की तो ताकत बची नहीं थी. कम से कम मेरी तो नहीं. लेकिन कोई चारा भी नहीं था. 

यह पैदल चलकर पहुंचना अच्छा ही हुआ हमने उस छोटे से गाँव में क्रिसमस की रौनक देखी. शायद गाडी से जाते तो यह न देख पाते. नाचते, गाते, खाते पीते झूमते लोग. इतना सुंदर क्रिसमस मैंने तो नहीं मनाया था पहले.


4 comments:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29.8.2019 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3442 में दिया जाएगा

धन्यवाद

Anuradha chauhan said...

बहुत सुंदर प्रस्तुति

Subodh Sinha said...

गोवा के समुंद्रों की नमी और खारेपन में भींगा हुआ संस्मरण ... याद ताजा कराता हुआ ...

ANHAD NAAD said...

ऐसी यात्राएं आपके जीवन में हर वर्ष आती रहें। पता नही, ये यात्राएं खूबसूरती से आती हैं आपके पास, या आप बना लेती हैं इन्हें खूबसूरत।