शुभा जी और अनीश जी खूब भले लोग हैं. शुभा जी ने हमसे हमारे बारे में पूछा और बताया कि किस तरह उन्होंने इस प्ले लिस्ट के लिए तमाम कविताओं की तलाश की और उसी तलाश में उन्हें ‘ओ अच्छी लड़कियो’ मिली. उन्हें और उनकी पूरी टीम को कविता बहुत अच्छी लगी. किस तरह इस कविता की बाबत मुझे सम्पर्क किया. मैंने उन्हें बताया कि किस तरह पिया तोरा कैसा अभिमान, अली मोरे अंगना और, पिया हाजी अली मैं रिपीट में सुना करती थी. उन्हें अजय जी से यह जानकर कि वो फिल्मों के लिए गाने लिखते हैं और उनका लिखा एक गीत लता जी गा चुकी हैं वो बहुत खुश हुईं. अनीश जी ने बताया कि वो हिंदी कविताओं पर कुछ काम करना चाहते थे. उनके मन में काफी दिनों से यह सब चल रहा था. सिरिंडपिटी आर्ट फेस्टिवल के लिए मेवरिक प्ले लिस्ट बनाने का अवसर उनकी उस इच्छा को साकार करने का जरिया बना. उन्होंने ओमकार जिसने इस कविता को आवाज दी थी के बारे में भी बताया कि किस तरह वो कविता पढकर एक-एक शब्द में डूब गया था. उसका वह डूबना उसकी कल की परफौर्मेंस में दिख रहा था. मैं सोच रही थी कि यही होती है शब्दों की ताकत, विचारों की ताकत जो दुनिया एक कोने में बैठे व्यक्ति को दूसरे कोने में बैठे व्यक्ति से जोड़ देती है. लिखने वाला पढने वाले से पीछे छूट जाता है और इस बात का उसे सुख होता है. इस वक़्त मैं उसी सुख में थी. सब उस कविता में डूबे हुए लोग थे और मैं उन्हें देखने के महसूस करने के सुख में. जब यह कविता लिखी थी तब सिर्फ इतना था मन में कि यह बात मैं ज्यादा से ज्यादा लोगों तक काश पहुंचा सकूँ कि लड़कियों को अच्छे होने के बोझ से मुक्त करो अब. और यह बात दूर तक पहुँच रही थी. यह बात जीकर जानी थी कि अच्छा होने का बोझ अनजाने चुपचाप हमें भीतर ही भीतर खोखला करता रहता है, बांधता रहता है. एक किस्म की सोशल कंडिशनिंग है यह जो बहुत गहरी है. पीढ़ियों से स्त्रियाँ इसकी शिकार भी हैं और जानती भी नहीं कि वो शिकार हैं.
नाश्ते की टेबल पर शुभा जी के कुमाऊनी घर की स्मृति भी खुली. मैंने उनसे पूछा आपका मन नहीं करता कि आप कुछ पहाड़ी लोक गीत गायें. उन्होंने मुस्कुराकर कहा, बहुत मन करता है लेकिन बहुत मुश्किल है इसमें. जैसे ही मैं पहाड़ का राजस्थान का कोई लोकगीत गाना चाहती हूँ यह बात होने लगती है कि हम लोक का इस्तेमाल तो कर रहे हैं लेकिन लोक के लिए कुछ कर नहीं रहे. मैं गायिका हूँ, संगीत दे सकती हूँ आवाज दे सकती हूँ मेरी भी सीमा है. मैं कोई विवाद नहीं चाहती, शांति से जीना चाहती हूँ. इसलिए किसी भी ऐसे काम को नहीं करती जिसमें कोई भी द्वंद्व हो. उन्होंने बताया कि उन्हें विद्यापति पसंद हैं. रेनकोट के समय विद्यापति को पढ़ना शुरू किया तो पढ़ती ही गयी. मीरा बहुत पसंद है, पलटूदास उन्हें पसंद हैं. केदारनाथ सिंह, दुष्यंत, साहिर, फैज़ आदि को पढ़ा है उन्होंने.
एक मजेदार बात उन्होंने बताई, हर साल दिसम्बर में वो पणजी में म्यूजिकल फेरी चलाती हैं. खुले आसमान के नीचे और समन्दर के बीचोबीच संगीत. यह पूर्णिमा के आसपास होता है. सुनकर ही सुख हो रहा था. हमारी बातें खत्म ही नहीं हो रही थीं. लेकिन वक़्त है न मुस्तैद पहरेदार उसने याद दिलाया कि ब्रेकफास्ट को लंच तक नहीं ले जा सकते. आखिर हमने एक मुक्कमल, भरपूर मुलाकात के बाद विदा ली.
अब सामने था पंजिम और एक नन्हा सा उन्मुक्त मन.
जारी...
1 comment:
बहुत सुन्दर
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