सोनम हिन्दू नहीं है, मुलसमान है वो. बहुत डरी हुई है वो. हिन्दू घरों में काम करती है और वही बोलती है जो उन्हें सुनना अच्छा लगेगा. यही सोचकर वो मुझसे भी वह सब बोलती है जो काम करने के लिए, जीने के लिए रटकर घर से निकलती है. मैं उसकी तकलीफ समझ सकती हूँ. अभी भी वो मुझ पर पूरा यकीन नहीं कर पायी है हालाँकि उसे एक राहत है कि अब उसे मेरे घर में अपनी पहचान को लेकर झूठ नहीं बोलना पड़ता.
उसने किसे वोट दिया यह उसका अधिकार है, उसका चुनाव लेकिन वो अपना सच बता नहीं सकती. उसे सिर्फ लहर के मुताबिक बात करनी है. मुसलमानों को बुरा भला कहना है और किसी तरह अपनी रोजी रोटी कमानी है. एक रोज उसने कहा, दीदी आपकी बात और है, लेकिन सब लोग यही सुनना चाहते हैं कि मुसलमान ख़राब होते हैं तो हम वही बोलते हैं.
मैं उसके भीतर के डर का सामना नहीं कर पाती. सोनम अकेली नहीं है. बहुत से लोग हैं आसपास. जो चुप हैं. जो इस शोर में, उन्माद में आपके ठहाकों में आपके साथ ही नजर आते हैं लेकिन उनकी आँखों में जो डर है, पीड़ा है उसे देखने की फुर्सत किसी को नहीं. न सरकार को न नागरिकों को. उनके इस डर को अपना बनाना कैसे कहा जा सकता है?
जहाँ धारा 370नहीं है वहां क्या किया है सिवाय नफरत बोने के कि कश्मीर को अपना बनाने का यह तरीका निकाला गया है. इस तरह तो किसी को अपना बनाया नहीं जाता. कश्मीर सिर्फ जमीन नहीं है दिल है वहां के लोगों के उस दिल में क्या इस तरह जगह बना पायेंगे हम? क्या सोनम को अपनी पहचान न छुपानी पड़े यह हमारी चिंता है, हमारे दोस्तों को अपने मन की बात कहते-कहते रुक न जाना पड़े, या उनकी पलकें न भीग उठे, आवाज रुंध न जाए यह हमारी चिंता है. कश्मीर तो हमारा ही था पहले भी, उससे प्यार तब भी था,अब भी है.
अभी-अभी दोस्ती दिवस मनाया है और अब इस बात पर खुश हैं? कितना अच्छा होता कि यह होता लेकिन डर के साए में नहीं मोहब्बत के साए में होता. वो खुद शामिल होते इस फैसले में ख़ुशी से.
#standforpeaceandlove
1 comment:
इस तरह की उम्दा लेखनी को पढकर कोई भी जान और समझ सकता है कि हमारे देश की साम्प्रदायिक सद्भावना की हालत क्या है.
अच्छा साहित्य हमेशा समाज का दर्पण होता है. आपका साहित्य सृजन भी उसी का भाग हैं.
पधारें -- कायाकल्प
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