जैसा हम सोचते हैं, योजना बनाते हैं वैसा हमेशा कहाँ होता है. इसी तर्ज पर 6 जुलाई की सुबह की शुरुआत हुई. ठीक साढ़े नौ बजे प्राथमिक विद्यालय करनपुर पहुंची और पहुँचते ही एहसास हुआ कि जिस उद्देश्य से आई हूँ वह तो संभव नहीं क्योंकि आभा भटनागर मैम छुट्टी पर थीं और गीता कौशिक मैडम एक ही कक्षा में सभी क्लास के बच्चों को बिठाकर कुछ काम कर रही थीं. जिस वक़्त मैं वहां पहुंची गीता जी कुछ अभिभावकों से बात कर रही थीं. इस बीच मैंने बच्चों से बातचीत शुरू की. शुरुआत का सिरा था गर्मी की छुट्टियों वाला.
‘गर्मी की छुट्टियाँ कैसी रहीं?’ सवाल के साथ सभी बच्चे एक सुर में बंध गए.
‘बहुत अच्छी.’ बच्चों ने उत्साह से जवाब दिया.
‘छुट्टियों में क्या-क्या किया?’
‘घूमने गए, खेले, पढाई की.’
‘कहाँ-कहाँ घूमने गए?’
‘हरिद्वार, ऋषिकेश, मसूरी, नानी के घर, सहस्त्रधारा’.
‘अच्छा, घूमने गए तो क्या-क्या देखा?’
‘डोरिमान देखा पार्क में, नदी देखी, जंगल देखे, सड़क देखी, खूब मजे किये.’
‘नानी-दादी के घर क्या-क्या किया?’
‘हलवा खाया, पूड़ी खाई, मिठाई खाई.’ कुछ बच्चों ने जोड़ा ‘डांट भी खाई.’ जिसके बाद सारे बच्चे हंस दिए.
अब तक गीता मैम वापस आ गयी थीं. वो भी अब बातचीत में शामिल हो गयीं.
‘अच्छा कितने बच्चों ने छुट्टियों में खाना बनाया?’
करीब आधे बच्चों ने हाथ उठाया. जिन्होंने नहीं उठाया वो उम्र में बहुत छोटे थे. हाथ उठाने वाले बच्चों में लड़के और लड़कियां दोनों शामिल थे. रोहित ने बताया कि उसने हलवा बनाया, मीट बनाया. प्रियंका ने बताया उसने कढ़ी बनानी सीखी. और भी बच्चों ने इसमें चीजें जोड़ीं.
‘अच्छा रोहित ने हलवा बनाया. सूजी का हलवा. कितने लोगों को हलवा पसंद है?’
‘हमको’ पूरी कक्षा के हाथ उठ गये.
‘अरे वाह, अच्छा यह बताओ कि हलवा कितनी चीज़ों से बनता है?’
‘गाजर से, सूजी से, लौकी से’
‘आलू का हलवा, शकरकंद का हलवा किसने खाया है?’
किसी का हाथ नहीं उठा.
अच्छा गीता मैडम से पूछो उनको आता है क्या आलू और शकरकंद का हलवा बनाना.
बच्चों ने पूछा तो मैडम ने कहा कि ‘हाँ मुझे बनाना आता है और यह बहुत स्वादिष्ट होता है.’ बच्चों ने मैडम से आलू का हलवा बनाने की विधि पूछी जिसे मैडम ने ख़ुशी से विस्तार से बताया. विधि में ड्राई फ्रूट आने पर बच्चों ने उसके बारे में अलग से पूछा.
इसके बाद कौन सा फल, कौन सी सब्जी कहाँ होती है इसे पर फटाफट सवाल जवाब वाला खेल हुआ.
भुट्टा, सिंघाड़ा, जामुन, आम, चुकन्दर, आड़ू, बैंगन, भिन्डी, राजमा, लोबिया, आदि कहाँ पैदा होते हैं. पानी में, जड़ में या पेड़ पर. इस जल्दी-जल्दी बताना था. बच्चों में बताने का उत्साह भी खूबी था. इस जल्दबाजी में कभी कढ़ी पेड़ पर लग गयी और कभी हलवा जमीन में उग गया. इसके बाद जो मजेदार दृश्य बना वह देखने लायक था. सब पेट पकडकर हंस रहे थे. इस पूरे संवाद में गीता मैडम को बड़ा अच्छा लग रहा था. उनकी नजर उन बच्चों पर थी जो अक्सर चुप रहते हैं. वो चुप अब भी थे लेकिन उनके चेहरे बोल रहे थे. इसके बाद बातचीत का रुख थोड़ा बदला.
‘बड़े होकर कौन क्या क्या बनना चाहता है?’
प्रतिमा, दिव्यांशु, कोमल, मोहन ने डाक्टर बनने की इच्छा जताई, कुछ बच्चों ने पुलिस बनने की इच्छा जताई, कुछ ने किसान बनने की, कुछ ने कहा वो हवाई जहाज चलाएंगे.
कक्षा में काफी जोश आ चुका था. बच्चे बहुत खुश थे और अपने भविष्य के सपनों के बारे में बात कर रहे थे. कक्षा दो में पढने वाले दिव्यांशु को बार-बार बोलने का मन हो रहा था लेकिन अपनी बारी आने पर वो शरमा जा रहा था. हमने एक छोटी सी स्किट आनन-फानन में की. प्रियंक से कहा कि दिव्यांशु डाक्टर है तुम जाओ मरीज बनकर. एक बच्चा (नाम याद नहीं) प्रियंक के साथ गया.
प्रियल- डाक्टर साहब डाक्टर साहब बहुत तेज बुखार है.
शर्माते हुए अंगूठा मुंह में डालता है
प्रियल(प्रियल कक्षा 4 के हैं)- अरे डाक्टर साहब शरमाओ नहीं मेरा इलाज करो.
दिव्यांशु और शरमाने लगता है. कक्षा के बाकी बच्चों को बहुत मजा आ रहा है.
प्रियल- दवाई दे दो डाक्टर साब लेकिन सुई मत लगाना.
यह बात डाक्टर दिव्यांशु को जंच गयी. वो प्रियंक को सुई लगाने का अभिनय करने लगा. प्रियंक भागा, दिव्यांशु पीछे-पीछे भागा. गीता मैडम समेत सभी बच्चों की हंसी रुक ही नहीं रही थी.
एक छोटा सा ब्रेक बच्चों को देना चाहा कि बातचीत करते हुए काफी देर हो चुकी थी लेकिन बच्चों को कोई ब्रेक नहीं चाहिए था.
अब बात शुरू की सपनों की. कौन-कौन सपने देखता है, तुम्हारा क्या सपना है? बड़े होकर पुलिस या डाक्टर बनने वाले सपने में और सोते हुए जंगल में खो जाने वाले सपने में क्या फर्क होता है. सारे बच्चे अपने सपनों के बारे में बताने को बेचैन हो उठे जिसे घर से लिखकर लाने और मैडम को देने की बात तय हुई. सब बच्चे अपने सपनों के बारे में लिखेंगे यह तय हुआ. इसके बाद उनके सामने एक नया सवाल आया.
‘यह जो तुम्हारे सपने हैं, ये तुम्हें किसने बताये?’
‘यह तो हमने खुद सोचा.’ बच्चों ने कहा.
‘ओह. यह सोचना क्या होता है? यह कैसे होता है?’
सोचना मतलब कुछ सोचना. नन्हे आदि ने कहा. मतलब अपने आप से कुछ सोचना, कुछ ऐसा जो किसी ने हमें बताया न हो, कुछ ऐसा जो हमको करने का मन हो. नन्ही कोमल ने कहा, जैसे सोचना कि शाम को खाने में क्या मिलेगा. अब बात बढ़ने लगी थी. सोचना कि स्कूल से जाकर क्या-क्या करेंगे, बड़े होकर क्या बनेंगे. अब सोचने पर खूब बात होने लगी.
‘अब सोचते-सोचते थक गए न हम, चलो कुछ और करें.’ जैसे ही मैंने यह कहा, बच्चे खुश हो गए. बाल लेखन कैम्प के दौरान धोरण स्कूल की शिक्षिका अंजलि गुप्ता ने एक बार एक कविता कराई थी वो मुझे बहुत पसंद आई थी. यह कविता कक्षा 2 की गणित की (एनसीईआरटी) पुस्तक में है भी. मैंने सोचा था आज यही कविता बच्चों के साथ करते हुए इस पर बात करेंगे. इत्तिफाक था कि आज ही सुबह गीता मैम ने यह कविता बच्चों को सिखाई थी. अब बारी बच्चों की थी मुझसे कविता करवाने की. बच्चे कविता बोल रहे थे और मुझे एक्शन करने थे.
धीरे-धीरे मेरे साथ एक्शन में और बच्चे भी शामिल होते गए. कविता कुछ इस तरह थी
एक बुढिया ने बोया दाना
गाजर का था पौध लगाना
गाजर हाथोंहाथ बढ़ी
खूब बढ़ी भई खूब बढ़ी...
कविता लम्बी है और भाषाई सौन्दर्य के साथ गणित की अवधारणाओं से भी जुडती है. लेकिन अभी हम सिर्फ कविता का आनंद ले रहे थे. गाजर को खेत से उखाड़ने में एक-एक कर लोगों का जुटते जाना कविता का आकर्षण था और अंत में गाजर का उखड़ना, उसको धोना और हलवा बनाना बच्चों को आनंदित कर रहा था. वैसे भी आज हलवे की बात काफी हो भी चुकी थी. कविता खत्म हुई.
‘किसको-किसको स्वाद आया हलवे का?’
खूब हाथ उठे.
‘किसको किसको स्वाद आया?’ इस पर थोड़े कम लेकिन कुछ उठे. जो हाथ उठे उन्होंने कहा, ‘मैडम जी खूब मीठा है हलवा.’
अपनी कल्पना के संसार में कैसे हम कुछ भी पा सकते हैं, कुछ भी महसूस कर सकते हैं यही बात अब उनके सामने थी. इस पर बात करते हुए बच्चों से कहा चलो कल्पना का एक खेल खेलते हैं. सब लोग अपनी आँखें बंद करते हैं. एकदम चुपचाप. सोचो कि हम गाजर के खेत में हैं. बच्चे बोले ‘हाँ, मैडम जी हरे-हरे खेत में. चारों ओर हरा ही हरा.’ नन्ही मुस्कान आधी आँख खोलकर दूसरों को देखने की कोशिश कर रही थी. बाकी बच्चे खेत में थे. ‘हवा चल रही है. धीरे-धीरे.’ मैंने कहा. बच्चों ने जोड़ा. ‘गाजर की पत्तियां हिल रही हैं.’ अभिनव ने हाथ को लहराकर पत्तियों के हिलने का संकेत दिया.
‘हवा अब तेज़ चलने लगी है,’ मैंने कहा. बच्चों ने आगे जोड़ा, ‘अब गाजर की पत्तियां जोर-जोर से हिल रही हैं...ठंडी हवा है मैडम जी.’
‘चिड़िया उड़ रही हैं मैडम जी.’ गीता मैडम यह सब देखते हुए मुस्कुरा रही थीं.
‘चलो अब आँखें खोलते हैं.’ गाजर का खेत कैसा था?
‘बहुत मजा आया मैडम जी. अगली बार हलवाई की दुकान में ले जाना वहां गाजर का हलवा भी मिल जाएगा.’ वैभव ने मुस्कुरा कर कहा.
‘कविता कैसी लगी?’
‘बहुत अच्छी’
‘खेत की सैर कैसी थी?’
‘बहुत मजेदार.’
‘अच्छा बताओ कविता या कहानी कैसे बनती होगी?’ मेरे मन में इस बातचीत का अंत बच्चों के द्वारा बनाई एक कविता से ही कराने की योजना थी.
बच्चों ने सोचना शुरू किया. गीता मैडम ने जोड़ा कि वो कविता कहानी बनवाती हैं बच्चों से. कुछ शब्द देकर उनसे कविता या कहानी बनाने को कहती हैं. कुछ बच्चे बहुत अच्छी कवितायेँ कहानियां बनाते हैं. लेकिन सब नहीं बना पाते. मैं उनकी बात को ध्यान से सुनते हुए बच्चों से बातचीत भी करती जा रही थी. बच्चों ने जवाब देना शुरू किया.
‘कविता या कहानी शब्द से बनती है’
‘वाक्य से बनती है.’
‘कलम से बनती है’
‘किसी बात से बनती है’
‘मैडम जो शब्द देती हैं उससे बनती है’
‘और अगर मैडम कोई शब्द न दें तो?’
‘तो कैसे बनेगी कविता, नहीं बनेगी’ बच्चों ने कहा.
एक बच्चे ने कहा, ‘बनेगी तब भी क्योंकि तब हम सोचकर बनायेंगे.’ यही मेरा केंद्र बिंदु था कि कहानी या कविता सोचने से बनती है.
मैंने कहा आज हम सब मिलकर अपनी खुद की कविता बनायेंगे. बच्चों ने कहा कविता नहीं, कहानी. कविता तो आज हो गयी. घडी की सुई का इशारा था कि वक़्त ज्यादा नहीं है. 30 बच्चों के साथ कहानी बनने में वक़्त लगेगा लेकिन आखिर मुझे बच्चों की इच्छा के अनुरूप कहानी की ओर ही मुड़ना पड़ा.
यह कहानी सबकी कहानी होगी. इस कहानी में वो होगा जो हम चाहेंगे. वैसे होगा जैसे हम चाहेंगे. बच्चे यह सुनकर काफी खुश हुए. उनके चेहरों की चमक लगातार बढती जा रही थी. अब बारी थी सबको अपने अपने किरदारों के बारे में सोचना की. किसकी कहानी में कौन होगा, एक किरदार के बारे में सोचना था. राजा रानी, हाथी, शेर, मोर, जंगल, खरगोश, किसान, राजकुमारी, चुड़ैल, डायनासोर, कौआ और बहुत सारे किरदार उस क्लास में अब दाखिल हो चुके थे. अब मौसम आने लगे थे, कहीं हवा चलने लगी, तो कहीं बारिश होने लगी. बच्चों की कल्पना के घोड़े भागते ही जा रहे थे. घडी बता रही थी कि छुट्टी होने का वक़्त करीब है और कहानी अभी शुरू भी नहीं हुई बनना.
आखिर मोहित ने कहानी शुरू की. जिसे एक-एक करके बच्चे बढ़ाते गए और कहानी में अपने किरदारों को, अपनी कल्पनाओं को जोड़ते गए. आइये कहानी की ओर चलते हैं...
'एक राजा और रानी थे, जो अपने बड़े से महल में आराम से रहते थे. उनकी एक छोटी सी प्यारी सी बेटी थी. एक दिन राजा रानी महल में झूले में बैठे थे, खूब ठंडी हवा चल रही थी. वहीँ पास में उनकी बेटी यानि राजकुमारी खिलौनों से खेल रही थी. पास में एक प्यारा सा मोर नाच रहा था और राजकुमारी उसे देखकर खुश हो रही थी. तभी वहां एक शेर आ गया. राजकुमारी शेर को देखकर और भी खुश हो गयी. उसने शेर से दोस्ती कर ली. लेकिन जैसे ही वहां से खरगोश गुजरा राजकुमारी खरगोश के पीछे भागने लगी. मोर और शेर राजकुमारी को खेलते देखकर खुश हो रहे थे. तभी महल में एक किसान आया. किसान बहुत थका हुआ था, वो एक बड़ा सा जंगल पार करके राजा से मिलने आया था. राजा ने किसान से कहा तुम अभी आराम करो अभी हम राजकुमारी के लिए खिलौने लेने मॉल जा रहे हैं. राजकुमारी बहुत दिन से नए खिलौने मांग रही है, लौटकर आकर मैं तुम्हारी बात सुनूंगा. इधर राजा राजकुमारी के लिए खिलौने लेने गया, तभी वहां महल में एक चुड़ैल आ गयी और वो राजकुमारी को अपने साथ लेकर चली गयी. लेकिन यह अच्छी चुड़ैल थी. उस चुड़ैल के कोई दोस्त नही थे इसलिए वो राजकुमारी को अपना दोस्त बनाना चाहती थी, इसलिए उसे अपने घर ले आई थी. चुड़ैल ने राजकुमारी को खिलौने दिए, नयी ड्रेस दी और उसे मैगी बनाकर खिलाई. चुड़ैल ने उसे खोये की बर्फी भी खिलाई. उधर राजा रानी जब महल में लौटे और राजकुमारी को नहीं देखा तो बहुत रोये. तब किसान ने कहा, महाराज, आप रोयें नहीं मैं राजकुमारी को ढूंढकर लाऊँगा. किसान राजकुमारी को ढूँढने निकला तो एक कौआ किसान के साथ हो लिया. उसने देखा था चुड़ैल को राजकुमारी को ले जाते हुए. कौए की मदद से किसान चुड़ैल के घर पहुँच गया. उसने देखा राजकुमारी तो चुड़ैल के पास खूब खुश है. किसान ने चुड़ैल से कहा, राजकुमारी के मम्मी पापा बहुत रो रहे हैं, हमें राजकुमारी को वापस महल ले जाना चाहिए. चुड़ैल ने कहा कि ठीक है, लेकिन मैं भी राजकुमारी के साथ चलूंगी. ये मेरी बेस्ट फ्रेंड है. किसान मान गया. एक झाडू पर सबसे आगे चुड़ैल बैठी फिर राजकुमारी और सबसे पीछे किसान. झाड़ू उड़ते हुए महल में पहुंची. राजा रानी राजकुमारी को देखकर बहुत खुश हुए. शेर, मोर, हाथी, खरगोश भी बहुत खुश हुए. राजा ने चुडैल को थैंक यू कहा और उसे महल में ही रहने को कहा. और किसान को बहुत सारा ईनाम दिया.'
कहानी पूरी हो चुकी थी, इसके बनने में सारे बच्चे शामिल थे, वो बच्चे भी जो शर्मीले थे, चुप रहते थे. उन्हें साथ लेकर, उनकी कल्पना को बाहर निकालने में उनकी थोड़ी मदद की और वो कान में आकर बता गये कहानी की बढ़त को. इस कहानी की हर लाइन में बच्चे के मन की दुनिया छुपी नज़र आ रही थी मुझे, चाहे वो खिलौने हों, खोये की बर्फी या मैगी या झाड़ू पर बैठकर उड़ने का सुख. सबने अपनी कहानी पर अपने लिए तालियाँ बजाईं. छुट्टी का वक़्त हो गया था लेकिन बच्चे क्लास से जाने को तैयार नहीं थे. वो कहानी के बारे में बात करना चाहते थे. सबको उस कहानी में अपना हिस्सा अपना किरदार सबसे अच्छा लग रहा था. प्रमोद ने पीठ पर बस्ता चढाते हुए कहा, ‘देखा मेरे किसान ने बचा लिया न राजकुमारी को.’ तभी मुस्कान ने शरमाते हुए कहा, ‘और मेरी चुड़ैल कितनी अच्छी थी’. दिव्यांशु ने कहा, ‘और मेरा मोर भी तो सुंदर था.’ तभी आदि ने कहा ‘मेरा डायनासोर तो आया ही नहीं...’ अरे हाँ, डायनासोर तो रह ही गया, हम सबने सोचा. चक्कर में पड गए कि इस कहानी में डायनासोर कहाँ और कैसे फिट होगा. तभी कोमल ने कहा, ’राजा और रानी डायनासोर वाला खिलौना लेने ही तो मॉल गये थे.’ और इस तरह कोमल ने समस्या सुलझा दी.
कहानी बन चुकी थी, छुट्टी हो चुकी थी, लेकिन कहानी बच्चों के साथ ही घर जा रही थी. गीता मैम खुश थीं कि कई बच्चों ने पहली बार कहानी बनने में अपनी भूमिका निभाई.
मैंने बच्चों से विदा ली तो उन्होंने जल्दी फिर से आने का वादा करने को कहा. ‘पक्का प्रॉमिस मैम, जल्दी आओगी न’ मुस्कान ने कहा. मैंने कहा ‘हाँ’. मेरी वापसी के कदमों में सुख था कि कितना कुछ सीख सकी हूँ आज.
1 comment:
अच्छा है।
बस अंत में प्रवेश के समय जो बच्चों का आकलन मन में था, और जा पाया, उसे भी रेखांकित करें तो बढि़या हो जाएगा।
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