Saturday, April 21, 2018

पढ़ती हूँ उनकी चुप

पढ़ती हूँ उनकी चुप जो रहते हैं आस पास
दीखते हैं अक्सर हँसते हुए सहज से
कभी-कभार चुप हो जाते हैं
फिर लौट आते हैं सहजता ओढ़कर

पढ़ती हूँ उनके भीतर की उथल-पुथल
जिसे भीतर दबाये वो जुटे हैं
इस देश, इस समाज को बेहतर बनाने में

वो देश जो अब उन्हें अपना मानने से इंकार करने लगा है
वो देश जिससे उन्हें भी है उतना ही प्यार
जितना है हम सबको
लेकिन उनका देश प्रेम संदिग्ध हो गया है अचानक
उन्हें प्रमाण देना होता है पल-पल
अपनी देशभक्ति का
उन्हें पाकिस्तान के खिलाफ नारे लगाने को मजबूर किया जाता है
जबकि वो असल में नहीं लगाना चाहते
किसी भी देश या व्यक्ति के खिलाफ नारे
कि नफरत से नफरत को कैसे जीत सकता है कोई

गलती से भी पाकिस्तानी गायक, खिलाड़ी या साहित्य
की तारीफ़ से उन्हें सायास बचना होता है
उन्हें किराये के मकान आसानी से नहीं मिलते
यात्राओं में उनकी जांच ज्यादा मुस्तैदी से की जाती है

वो फेसबुक, ट्विटर पर कुछ लिखने से बचते हैं
बच्चों को जल्दी से सुला देते हैं
बीवी की आँख में छाए डर का सामना नहीं कर पाते
किसी किताब में गड़ा देते हैं आँखें

गुझिया और सिंवई का स्वाद साथ में लेते हुए
बड़े हुए थे जिन दोस्तों के साथ
उनके हाथ अब कंधे पर महसूस नहीं होते

पढ़ती हूँ उनके भीतर का संसार
जिसे वो लिख नहीं पायेंगे कभी
जिसे छुपाने के लिए वो मुस्कुराते रहेंगे आसपास ही.

2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

सटीक और सुन्दर।

radha tiwari( radhegopal) said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (23-04-2018) को ) "भूखी गइया कचरा चरती" (चर्चा अंक-2949) पर होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी