सब भागता जा रहा है, बहुत तेज़ी से. उस तेज़ी की लय में मेरी भी कोई गति है शायद हालाँकि मैं कहीं ठहरी ही हुई हूँ. मुस्कुराहटों के ढेर के भीतर बमुश्किल अपनी उदासी को सहेजते हुए. वो उदासी मुझे प्रिय है, उसमें कोई बनावट नहीं, वो दिल के करीब है. ये गति मेरी जानी पहचानी नहीं, ये शोर अजनबी सा लगता है.
लम्हे उलझे हुए हैं, सुलझाने का वक़्त नहीं. वक़्त कहीं गुम गया लगता है. मैं भी कहीं गुम गयी हूँ शायद. वो जो भागती फिरती है सर्रर्र से वो कोई और है, वो जो मुस्कुराती है, खिलखिलाती है वो कोई और है, मैं उसे नहीं जानती, मैं शोर के दूसरे सिरे पर खड़ी उदासी को जानती हूँ.
अपने चेहरे में खुद को तलाशती हूँ, अपनी आवाज में अपनी आवाज को, अपने होने में अपने होने को. सब गड्डमगड्ड है. सिर्फ एक उदास शाम है जो बीतते शरद की टहनी से बस किसी भी वक़्त झरने को है कि वो शाम जो चौथ के चाँद से आँख लगाये बैठी है...
2 comments:
एक उदास शाम भी जरूरी है अगली शाम के इन्तजार के लिये । सुन्दर।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-12-2017) को "गालिब के नाम" (चर्चा अंक-2832) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
क्रिसमस हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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