क्लासरूम में किताबें खुलती थीं तो जैसे कोई उकताहट खुलती थी. होमवर्क, असाइनमेंट और प्रोजेक्ट के इर्द-गिर्द घूमता स्कूल कॉलेजों का संसार. साहित्य का वही टुकड़ा जब स्कूल और सेलेबस से बाहर मिलता था तो उसके आगे सर झुकाकर घंटों बैठी रहती, शब्द-शब्द महसूसती रहती लेकिन जब वही कविता क्लासरूम में टेक्स्ट बुक में खुलती और संदर्भ सहित व्याख्या किये जाने के दबाव के साथ उससे गुजरना होता तो लगता गले में कोई फ़ांस अटकी हो.
स्कूल कॉलेजों के दिनों को याद करती हूँ तो कुछ दोस्त, कुछ सांस्कृतिक संध्याएँ ही याद आती हैं जिनमें एक जैसी लिपस्टिक और पाउडर पोतकर एक जैसे हाव भाव करने वाले सांस्कृतिक उत्सव शामिल नहीं हैं. उन दिनों ज्यादा कुछ समझ में नहीं आता था (हालाँकि अब भी ज्यादा समझ में आता है ऐसा कोई भ्रम भी नहीं है )लेकिन यह जरूर लगता है कि अगर स्कूली शिक्षा ने कला, संस्कृति, साहित्य से दोस्ती की होती तो शायद यह आनंद और ऊब के बीच के फासले मिट गए होते. बाद में पता चला कि ऐसा ही कुछ शिक्षा की नीतियां बनाने वालों ने भी महसूस किया और इसी के चलते साहित्य, संस्कृति, कलाओं को, लोक की बोली भाषा को कक्षाओं से जोड़ने की पुरजोर वकालत की.
स्कूलों का माहौल बदलने लगा. कक्षाओं में अब ब्लैक बोर्ड, चाक और डस्टर के साथ ढोलक, ढफली की भी जगह बनने लगी. लाइब्रेरी स्कूल में होना आवश्यक हो गया. पढ़ाने के तरीकों में बदलाव होने लगे. शिक्षक महान गुरु की पदवी छोड़ दोस्त हों इसकी जरूरत महसूस की जाने लगी, कुछ हद तक कवायद भी शुरू हुई लेकिन अभी भी एक लम्बा रास्ता तय किया जाना बाकी है. यह जरूर महसूस होता है कि औपचारिक शिक्षा को अनौपचारिक शिक्षा के तमाम माध्यमों का हाथ थामना जरूरी है. सिर्फ स्कूल, कॉलेजों में जाकर, किताबें रटकर, रिपोर्टकार्ड में ढेर नम्बर भरकर बात नहीं बनेगी. विषय विशेषज्ञों की फ़ौज स्कूलों से, कॉलेजों से निकलते कई बरस हो गए लेकिन इन विशेषज्ञों के भीतर एक दूसरे के लिये धडकने वाला दिल कहाँ नदारद हो गया, किसी और के पाँव में चुभे कांटे की तकलीफ को महसूस करने वाली संवेदना कहाँ हैं, कहाँ है इन्सान को उसकी जाति, धर्म, लिंग, और आर्थिक अलगाव से परे देख पाने की ताकत. जो अब तक औपचारिक शिक्षा यह कर पाने में समर्थ हुई होती तो आंकड़ों में शिक्षा की दर बढ़ने के बावजूद यह समाज इस कदर हिंसा की चपेट में क्यों होता. इतनी नफरत कहाँ से लाते लोग कि राह चलते हर पल असुरक्षा का बोध होता. क्यों दर्द और आंसुओं का किसी खास मजहब से रिश्ता होता?
ऐसा लगता है कि हमें अब तरक्की के लिए आंकड़ों का मुंह देखना बंद करना चाहिए और अपने आसपास देखना शुरू करना चाहिए. तरक्की के हमारे मॉडल क्या हों इस पर सोचने की जरूरत है. शिक्षा के अपने मॉडल को भी फिर से टटोलने की जरूरत लगती है. शिक्षा यानी टीचर, स्कूल, कॉलेज, फीस, यूनिफॉर्म, रिपोर्ट कार्ड इस चक्र में उलझने से बचना भी ज़रूरी लगता है.
यह मामला सिर्फ स्कूलों, कॉलेजों के मत्थे मढने का नहीं है, स्कूल भेजकर अपनी जिम्मेदारी पूरी करने का एहसास झूठा एहसास है, क्लासरूम में अपना सेलेबस पूरा कराने और बच्चों की याद करके इम्तिहान में जस का तस उगल देने की क्षमताओं का निर्माण शिक्षक की भूमिका नहीं है. अभिभावक के तौर पर, शिक्षक के तौर पर, शिक्षक शिक्षण के तौर पर भी सोचने का वक़्त है. कोई भी विषय अपनी संवेदना खोकर अधूरा ज्ञान निर्माण कर रहा है. मानवीय मूल्यों के बगैर जमा डिग्रियों का कोई मोल बाज़ार में तो हो सकता है लेकिन एक खूबसूरत भेदभाव रहित दुनिया के ख़्वाब की राह में वह बाधा ही है.
फिर से ओस झरती शामों का मौसम है. पुस्तक मेलों, थियेटर, पेंटिंग प्रदर्शनी, संगीत संध्याओं का मौसम है, हो सकता है इन कलाओं और संस्कृतियों पर भी बाज़ार की नजर हो, लेकिन इनमें जो नमी है, जो संवेदना है, जो किसी भी शिक्षा का पहला प्राप्य है उसे हम हासिल कर सकते हैं. हम किसी ढोलकी की थाप पर कबीरी धुन पर नाच सकते हैं, बच्चों के हाथों से बनी आड़ी टेढ़ी रेखाओं में आने वाले कल का सुंदर सपना देख सकते हैं. कला, साहित्य और संस्कृतियों के मिलन के अभाव में न कोई शिक्षा पूरी होगी न मानवीय संवेदनाओं पर आधारित दुनिया का सपना देखा जा सकता है.
कलाओं का, साहित्य का, संगीत का कोई मजहब नहीं, कोई देश नहीं कि वो दिल से दिल की राह तय करती हैं. कोर्स की किताबों में कुछ चैप्टर साहित्य या संस्कृति के टांक लेने से बात नहीं बनेगी. हम सबको इस ओर बढ़ना होगा एक साथ. शादी ब्याह, जनेऊ की पार्टी में जाने से ज्यादा जरूरी है साहित्य और संगीत के उत्सवों में जाना यह हमारे लिए और हमारे बच्चों के लिए बहुत ज़रूरी है. जब भी बच्चों को अपने माँ पापा की ऊँगली पकड़कर उछल-कूद करते हुए ऐसे उत्सवों में शामिल होने को जाते देखती हूँ मालूम होता है एक सुंदर दुनिया का सपना देख रही हूँ.
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