Saturday, April 30, 2016

तेज धूप में घनी छांव सा स्कूल


रास्तों की धूप तब धूप नहीं रहती, जब रास्तों के उस पार कोई सुंदर संसार आपके इंतजार में हो। तेज धूप में भीगते हुए जब हम लौट रहे थे, तब मन में यही ख्याल था। वापसी के कदमों मंे संतुष्टि थी, आंखों में आश्वस्ति और ढेर सारा उत्साह। हम वापस लौट रहे थे देहरादून के रायपुर ब्लाॅक के केशरवाला संकुल के राजकीय प्राथमिक विद्यालय शिरेकी से।

शिरेकी तक पहुंचने का रास्ता किसी ख्वाब सा खुलता है। दोनों तरफ ऊंची पहाडि़यां पेड़ बीच में एक मुस्कुराता सा रास्ता। शिरेकी एक छोटा सा स्कूल है। एक कमरे वाला। हालांकि जिस बिल्डिंग में स्कूल है वहां दो कमरे हैं जिनमें से एक में आंगनबाड़ी चलती है। एक कमरे वाले उस स्कूल में हम पहुंचते हैं जहां कक्षा एक से पांच तक के 13 बच्चे बैठते हैं। इस स्कूल में 13 बच्चे हैं और एक शिक्षिका उर्मिला जी। उनके साथ ही एक शिक्षा मित्र हैं शीला कैन्तुरा।
एक सामान्य से सरकारी स्कूल की एक सामान्य सी कक्षा दिखती है। बच्चे अपनी पढ़ाई में मगन और शिक्षिकाएं उनके साथ घुली-मिली। शिक्षिकाओं की खाली कुर्सी मुझे अच्छी लगती है कि हम उन्हें ढूंढे कि वो कहां हैं और वो बच्चों के किसी झुंड में से निकलकर कहें, हम यहां हैं।
बच्चे कहानियां सुनाने मंे मगन थे, कक्षा 4 का हरमन तो खुद की लिखी कहानी सुना रहा था। हमने उससे पूछा कि तुमने कहानी कैसे लिखी, कैसे मन किया तो उसने बताया कि मैंने तो बहुत सारी कहानियां लिखी हैं, बस मेरे मन में आती हैं कहानियां मैं उनको लिख लेता हूं। इतने छोटे से बच्चे की यह बात दिल को छू गई। शिक्षिकाएं रचनात्मकताओं के पीछे खड़ी हैं लेकिन नज़र आने में संकोच होता है उन्हें। कक्षा 4 की किरन अंग्रेजी में सुंदर सी हैण्ड राइटिंग में खूब सारे वाक्य लिखकर लाती है। उन वाक्यों से खेलते-खेलते वो किरन लव्स टू ईट कढ़ी चावल से लेकर आॅरेन्ज, राजमा चावल, मैंगो, वाटर मिलन, चाॅकलेट, चकोतरा तक की यात्रा तय कर लेती है। हर वाक्य के साथ उसका अंग्रेजी के शब्दों का संसार खुलता जाता है, उसकी पसंद की खाने की चीजों का भी। उसका अंग्रेजी का उच्चारण दिल लुभाता है। कोई शिक्षिका उसके इस जानने का श्रेय नहीं लेना चाहतीं। “ये बच्चे खुद बहुत अच्छे हैं...“ उर्मिला मैम धीरे से कहती हैं और अंजली की काॅपी में कुछ लिखने लगती हैं।
हमारे साथ गई सीआरसीसी मंजू नेगी बच्चों को ढेर सारी कहानियां सुनाते हुए मानो खुद ही बचपन के किसी हिस्से में चली गई थीं। कहानियों को पढ़ लेना काफी नहीं, उनका आनंद लेना बच्चों के लिए पहली जरूरत है यह बात वो जानती हैं। हाव-भाव के साथ कहानियां सुनाते हुए बिल्ली का जिक्र आने पर बिल्ली बन जाने का अभिनय और चूहे का जिक्र आने पर चूहे का अभिनय करते हुए पूरी कहानी का संसार वहां खुलता है। बस कि कहानी के अंत में पूछे जाने वाले सवाल थोड़ा बेमजा से लगते हैं।
शिरेकी एक छोटा सा गांव है। शीला मैडम बताती हैं कि आसपास कोई भी बच्चा आउट आॅफ स्कूल नहीं है। यहां बच्चे ही इतने हैं। जितने हैं सब स्कूल आते हैं और रोज आते हैं। रोज स्कूल आना स्कूल में मन लगने के कारण ही संभव होता होगा शायद। मंजू नेगी बताती हैं कि हमारी कोशिश होती है कि बच्चों को स्कूल आना इतना अच्छा लगे कि वो रोज स्कूल आयें।
इस स्कूल की शिक्षिकाओं के पास संसाधनों की कमी को लेकर कोई शिकायत नहीं मिलती बस कुछ जिज्ञासाएं हैं कि कैसे वो अपने बच्चों को और बेहतर ढंग से पढ़ा सकें। बच्चों का आत्मविश्वास शिक्षक की ही तो पूंजी है, उन्हें लाड़-दुलार से रखना, उनमें आत्मविश्वास से भर देना पढ़ाने से पहले की प्रक्रिया है जिसे ये शिक्षिकाएं अपनी तरह से करने का प्रयास कर रही हैं, चुपचाप। उन्हें नहीं पता कि उनकी कोशिशों के रंग कितने चटख हैं कि बच्चे भरपूर आत्मविश्वास के साथ कहते हैं मैं बड़े होकर इंजीनियर बनूंगा, कोई कहती है मैं तो डाॅक्टर बनूंगी और किसी के इरादे पुलिस इंस्पेक्टर बनने के हैं।
एक तरफ हजारों लाखों लोग शिक्षा जगत की चुनौतियों में उलझे हुए हैं दूसरी ओर कोई सीआरसीसी कुछ शिक्षक खामोशी से किसी संगतराश की तरह बच्चों का व्यक्तित्व गढ़ने में लगे हैं. ऐसे स्कूलों को देखकर सरकारी स्कूलों से उठ रहे लोगांे के भरोसे को सहेज लेने को जी चाहता है।

Wednesday, April 20, 2016

हिंदीवालों को इंस्टेंट राइटिंग की कला सीखनी पड़ेगी- स्वयं प्रकाश




क्या लेखक राजनीति से बचा हुआ व्यक्ति है? उसकी राजनैतिक प्रतिबद्धतायें पार्टीगत उसके लेखन में रिफलेक्ट करती है क्या?
नहीं। राजनीति से बचा हुआ कोई नहीं है. दलगत राजनीति यदि रचना में प्रतिबिंबित होगी तो वह साहित्यिक रचना नहीं . प्रचार एपोस्टर या पेम्फलेट होगा. अपने स्थान पर उसका भी महत्त्व है लेकिन हम यहाँ साहित्य की बात कर रहे हैं. साहित्य में दो प्रकार की राजनीति प्रतिबिंबित हो सकती है. एक  जनपक्षीय और दो  जनविरोधी. ज़ाहिर है यह वर्ग राजनीति की समझ है और इसे रचना में प्रकट नहीं तो प्रच्छन्न रूप में तो प्रतिबिंबित होना ही चाहिए।

कई बार लेखक की व्यक्तिगत जीवन की राजनैतिक प्रतिबद्धता दूसरी होती है और लेखकीय जीवन की दूसरी। मैं निजी तौर पर ऐसे लेखकों को जानती हूं जो निजी जीवन में दूसरे खांचे में खड़े होते हैं और लेखन में दूसरे। आप इस दोहराव को किस तरह देखते हैं?
हाँ , ऐसा होता है. कबीर राम के भक्त थे, एक स्थान पर तो उन्होंने खुद को राम का कुत्ता भी कहा लेकिन समग्रतः उनके विचार और रचना अग्रगामी और क्रांतिकारी है. हजारीबाबू शास्त्र.ज्योतिष.कर्मकांड इत्यादि में विश्वास करते थे लेकिन उनका साहित्य परम्परा का युगानुकूल भाष्य करता है जो कोई पोंगापंथी ब्राम्हण नहीं कर सकता था. टॉलस्टॉय ईसाई धर्म में अटूट निष्ठां रखते थे फिर भी लेनिन ने उन्हें रूसी क्रांति का दर्पण कहा . गोर्की को नहीं। बाल्ज़ाक सामंतवाद के समर्थक थेए फिर भी मार्क्स ने उनकी प्रशंसा कीण् रचना लेखक के हाथ से निकलने के बाद स्वायत्त हो जाती है और उसका अपना चरित्र होता है . जो मूल्यांकन का आधार बनता है.

प्रगतिशील लेखक संघ या ऐसे दूसरे संगठनों को किस तरह देखते हैं आप?
प्रगतिशील आंदोलन, अंजुमने तरक्कीपसंद मुसफ़्फ़ीन और इप्टा .तीनों एक ही संगठन के अनुषंग रहे जो आधुनिक भारत का सबसे बड़ा सांस्कृतिक आंदोलन रहा है दरअसल भक्तिकाल के बाद इतना बड़ा सांस्कृतिक आंदोलन हमारे देश में नहीं हुआ. आप किसी भी महान लेखक या कलाकार का नाम लीजिये  और आप पाएंगी कि वह प्रगतिशील आंदोलन का एक हिस्सेदार रहा है. यह आंदोलन भारत के सांस्कृतिक जगत की मुख्य धारा रहा है और इसका अवदान इतना बड़ा है कि उसे ठीक से मापना भी संभव नहीं है. आज भी कोई पूंजीवादी, यथास्थितिवादी या दक्षिणपंथी सांस्कृतिक आंदोलन ऐसा नहीं जो बगैर प्रगतिशीलता का नकाब ओढ़े इसके सामने खड़ा हो जाये। उतार.चढाव तो हर आंदोलन के जीवन में आते ही रहते हैं लेकिन इससे एक बेहतर दुनिया का सपना खरिज नहीं हो सकता।

आपने एक्टिविस्ट लेखन का विरोध किया था एक बार?
यह बड़ी मजेदार बात है कि हमारे देश में एक्टिविस्ट तो सैंकड़ों की संख्या में होंगे लेकिन एक्टिविस्ट के लिए आज तक हिंदी में कोई शब्द नहीं बन सका है. कार्यकर्त्ता कहने से एक्टिविस्ट का नहीं, वर्कर का बोध होता है. एक्टिविस्ट यानी वह जिसने अपना सारा जीवन एक्टिविटी के लिए समर्पित कर दिया होएयानी पूरी तरह समर्पित कार्यकर्ता, यानी पूरावक्ती,  सवैतनिक या अवैतनिक , कार्यकर्ता ।

मुझे हैरानी होती है कि क्रिया को विचार से पूरी तरह कैसे विछिन्न किया जा सकता है. कर दिया गया है. इस विचारहीन क्रिया से अक्सर सवैतनिक, से एक्टिविस्ट शब्द निकला है जो सुनने में तो बड़ा भला लगता है लेकिन जिसकी हैसियत मालिक के कारकून या चाकर से ज़्यादा कुछ नहीं होती। आप किसी भी एक्टिविस्ट से बात करके देखिये किसी भी विषय पर आधे घंटे में उसका वैचारिक झोल आपको दिखने लगेगा। आपको पता चलेगा कि उसे समग्र और सघन विचार के लिए न सिर्फ प्रोत्साहित नहीं किया गया है अपितु निरुत्साहित किया गया है  इसलिए उसकी मानसिकता एकांगी विचार को ही पर्याप्त मानने के लिए अनुकूलित की जा चुकी है.

यही एक्टिविस्ट दो.चार साल फील्ड में काम करने के बाद खुद अपना एनजीओ खोल लेता है .पैसा देनेवालों की कमी नहीं है. और फिर यह भी अपने स्तर पर विचारहीन एक्टिविस्टों की फ़ौज पैदा करता है.

यह सब इसलिए संभव हो पा रहा है क्योंकि राजनैतिक कार्यकर्ताओं ने गाँव जाना बंद कर दिया है. हम सोच भी नहीं सकते कि यह कितना बड़ा संजाल है जिसने सरकार को अपने शिकंजे में कस रखा है. सरकार का अपनी नौकरशाही पर से विश्वास पूरी तरह उठ चुका है और वह अपनी हर योजना के कार्यान्वयन के लिए इन्ही एक्टिविस्टों पर निर्भर हो गयी है इस तरह देश में एक बुद्धिहीन माहौल पसर रहा है जिसे साम्राज्यवाद किसी भी तरह बहका सकता है.

क्या आपको लगता है कि इंस्टेंट राइटिंग का चलन बढ़ा हैघ्अगर हां तो इसे किस रूप में लेते हैं आप?
हम एक परम गतिशील समय में रह रहे हैं. इसलिए यदि तात्कालिक घटनाओं की प्रतिक्रिया हमें तुरंत मिल जाती है तो हमें इसका अभ्यस्त होना पड़ेगा। उलटे मुझे तो झूंझल इस बात पर आती है कि हम लोग अब भी १८५७ पर लिख रहे हैं और १९५७ की तरह सोच रहे हैं! हिंदी का नब्बे प्रतिशत शोध उन मूर्धन्यों के बारे में है जो मर चुके हैं और इतिहास में जिनकी भूमिका हमेशा के लिए समाप्त हो चुकी है । यदि तात्कालिक मसलों पर हिन्दीवाले चुप रहे तो अंग्रेजी वाले बोलेंगे और हिन्दीवाले उन्हें ही सुनेंगे। पिछले वर्षों में स्कूल.कॉलेज.विश्वविद्यालय.प्रकाशक.साक्षर.शिक्षित.पाठक.श्रोता सबकी संख्या बढ़ी है। ज्ञान की प्यास इतनी बढ़ी है कि हिंदीवालों को इंस्टेंट राइटिंग की कला सीखनी पड़ेगी . तभी वे ओपीनियन मेकर बन पाएंगे।

वरिष्ठ हिंदी लेखक जिनसे हमने पढना सीखा, जिनके लिखे से रौशनी मिली, समझ मिली उन्हें जब उदास, तनहा देखती हूँ तो अच्छा नहीं लगता. क्यों हर लेखक को हमेशा यही लगता रहता है की उसके साथ न्याय नहीं हुआ. आर्थिक पछ की बात अगर छोड़ भी दें तो भी यह पीड़ा हर लेखक की नज़र आती है. ये न्याय होना क्या है? पुरुस्कार, पाठक या आर्थिक मजबूती ये सवाल उस सन्दर्भ में भी है जहा आप लेखन को करियर के रूप में खड़ा होते हुए देखने की और उसे संवेदना से जुड़ने की बात भी कहते हैं. तो इस कंट्रास्ट को जरा खोलियेगा तो पाठकों को बेहतर समझ मिलेगी.
हमारे समाज में लेखक की छवि आज भी बेचारे वाली है. फिल्मों में भी लेखक की छवि ऐसी ही थी जिसे सलीम.जावेद ने पूरी तरह बदल दिया। अब हिंदी साहित्य में भी कोई सलीम.जावेद आएं तो शायद यह पेशा कुछ इज्जतदार बने और चिकित्सा.अभियांत्रिकी.फ़ौज.किसानी.कारीगरी आदि समाज के विभिन्न वर्गों से लेखक आएं ! फिलहाल तो हिंदी साहित्य मास्टर साहब लोगों से ही भरा पड़ा है !

लेखक अपने पाठक के लिए लिखता है या संपादक के लिए या अपने लिए? और उसे अपने लेखन से क्या चाहिए होता है? क्या चाहना चाहिए?
लेखक क्या चाहता है ? वह क्यों लिखता है ? लेखन की पहली मांग है सम्प्रेषण। मैं जो कह रहा हूँ वह आप सुन रहे हैं या नहीं यदि आप सुन ही नहीं रहे हैं तो मेरा बोलना निरर्थक है. लेखन की पहली माग है सम्प्रेषण और दूसरी मांग है सहचिन्तन और तीसरी मांग है मूल्यांकन चौथी मांग है प्रतिसाद या पुरस्कार. चाहे वह जिस रूप में हो. साहित्यकारों के साथ दिक्कत यह हो रही है कि पाठकों के साथ अंतर्क्रिया के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं. पहले आपकी एक कहानी कहीं छपती तो उस पर आपको पाठकों के ढेरों पत्र मिलते थे एक हानी अच्छी हुई तो उस पर महीनों चर्चा होती थी ए चर्चा गोष्ठियां भी हो जाती थी दिनमान, सारिका और हंस में पाठकीय प्रतिक्रिया के स्तम्भ अत्यंत जीवंत और लोकप्रिय होते थे, राहुल बारपुते के संपादन में निकलने वाले अख़बार 'नयी दुनिया' में आधा पृष्ठ पाठकीय प्रतिक्रियाओं का होता था जिसे पाठक सबसे पहले पढ़ते थे. टीवी के आने के बाद अंतर्क्रिया के रास्ते बंद होने लगे और आस्वाद एकतरफा होने लगा. मैं जब टीवी पर हालातों एजज़्बातों जैसे गलत भाषिक प्रयोग देखता हूँ या किसी शेर को .जिसे आजकल शायरी कहा जाता है  गलत और भ्रष्ट तरीके से उद्धृत होते देखता हूँ तो मैं इसकी किसी से शिकायत करना चाहता हूँ लेकिन किससे करूँ . अच्छा साहित्य पाना है तो पाठक को भी अपनी प्रतिक्रिया देनी पड़ेगी .फोन से या एसएमएस से ही सही.

बाकी पुरस्कार वगैरह तो कम महत्वपूर्ण बात है. पुरस्कार से तो इतना भर होता है कि लेखक कुछ देर के लिए चर्चा में आ जाता है और कुछ देर के लिए उसे कुछ नए पाठक मिल जाते हैं.

हिंदी का लेखक अपनी भाषा को लेकर उतना आत्मविश्वासी क्यों नहीं होता जितना अंग्रेजी का लेखक? लेखक का अपने लेखन के प्रति आत्ममुग्ध होना या मह्त्वाकांची होना किस रूप में देखते हैं आप?
भाषिक विविधता, सौष्ठव और विश्वास जितना हिंदी के लेखकों में है उतना अंग्रेजी के लेखकों में नहीं। अंग्रेजी में लिखनेवाले कई भारतीय लेखकों की अंग्रेजी पर तो अँगरेज़ हँसते होंगे ! मेरी समझ से हिंदी के लेखकों का अनुभव संसार बहुत सीमित है इसलिए एक हद के बाद भाषा दम तोड़ देती है. हिंदी वैसे भी एक बनती हुई भाषा है. बाकी हमारी क्षेत्रीय भाषाएँ जिनके पास समुद्र है , युद्ध है,  जोखिम है , काफी समृद्ध हैं।

महत्वाकांक्षी होने में कोई हर्ज नहीं है,  आत्ममुग्ध किसी को नहीं होना चाहिए। आप ठोस उदहारण देतीं तो मैं और बेहतर समझ पाता।

क्या आपको लगता है कि नए लेखक काफी जल्दी में हैं? अगर ऐसा है तो यह जल्दबाजी उन्हें कहाँ ले जायेगी?
लेखक ही क्यों, चित्रकार, नर्तक, गायक, खिलाडी, अभिनेता, पत्रकार सभी जल्दी में हैं. चार.छह कहानियां लिखते न लिखते कहानीकार की किताब छप जाती है। किताब के फ्लेप पर उसे सदी का महानतम लेखक घोषित कर दिया जाता है. साल दो साल में उसे दो-चार बड़े पुरस्कार मिल जाते हैं जो लोगों ने अपने दिवंगत रिश्तेदारों की याद में चलाये होते हैं. सोशल मीडिया के माध्यम से ये अपने कुछ अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध भी बना लेते हैं और इनका ये महान उपक्रम दस-बारह साल में ख़त्म हो जाता है. दुसरे, तीसरे साल तो ये गुरु बन जाते हैं और दूसरों को सिखाने लगते हैं कि कैसे लिखा जाये ! संस्थाएं इनको बुलाकर सम्मानित करने लगती हैं.

यहाँ मैं देखता हूँ कि कोई आईआईएम में चयनित हो गया या आईएएस परीक्षा में पास हो गया या कोई छोटी-मोटी विदेशी स्कॉलरशिप पा गया तो स्कूलों में उसे भाषण देने के लिए बुलाया जाने लगता है और वह बच्चों को सफलता के गुर बताने लगता है . इसमें न उसे संकोच होता है न बुलाने वालों को कोई शर्म आती है !जैसे टीवी के अत्यंत छोटे.मोटे रियलिटी शो में आते ही बच्चा बोलने लगता है कि आज मैं जिस मुकाम पर पहुंचा हूँ उसके लिए माँ, बाप,  भाई,  भाभी , साली, जीजा को इसका श्रेय देना चाहता हूँ ! अबे साले !ऐसा क्या हासिल कर लिया है तूने !

मैं सोचता हूँ बड़ा लक्ष्य हासिल करने की कोशिश में असफल हो जाना गुनाह नहीं है, लक्ष्य छोटा रखना गुनाह है क्योंकि इस तरह हम अपनी अदेखी संभावनाओं की भ्रूणहत्या कर रहे होते हैं. आदमी को क्षुद्रताओं से बचना चाहिए। लेकिन क्या कीजिये एक शेर याद करने के अलावा कि

किसलिए फिर कीजिये गुमगश्ता जन्नत की तलाश !
जबकि मिटटी के खिलौनों से बहल जाते हैं लोग !!

 हिंदी में ओ हेनरी, चेखव, प्रेमचंद वगैरह की तरह की सादा सी कहानियां जो दिल को छू लेती थीं नज़र क्यों नहीं आतीं, जो रोजमर्रा के जीवन के छोटे-छोटे लम्हों से मिलकर बनती थीं वो अब कम नजर क्यों आती हैं? उस तरह की कहानियों के लिए क्यों बार-बार प्रेमचंद ही याद आते हैं? आजकल कहानियों में मुद्दे जबरन ठुंसा दिए गए से मालूम होते हैं? क्या हम गद्य लेखन में जटिलता को जन्म तो नहीं दे रहे?
वैसी कहानियां .वो प्यारी कहानियां मैं भी मिस करता हूँ आपकी ही तरह लेकिन मैं ये भी जानता हूँ कि अब वैसी कहानियां कभी नहीं लिखी जाएँगी। हमारा जीवन बहुत जटिल हो गया है छोटी.सी चीज़ पर विचार करो . मसलन मौसम या गरीबी या प्यार  तो वह सारी दुनिया के मुद्दों से जुड़ जाती है. मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ, वैश्याओं के जीवन पर लिखी गयी मंटो की किसी भी कहानी के समक्ष अनिल यादव की कहानी 'नगरवधूएं अखबार नहीं पढ़तीं' को रखकर देखिये। अनिल यादव की कहानी के केंद्र में वैश्याओं की समस्या है लेकिन इसके तार पुलिस.राजनीति .पत्रकारिता .भू माफिया और बहुराष्ट्रीय कंपनियों तक से जुड़े हुए दिखाई देते हैं ! अब जो दिखाई दे रहा है उसे अनदेखा भी कैसे किया जाये ! इसलिए आज की कहानी क्लासिक कहानी की तरह भावोत्तेजन नहीं, विचारोत्तेजन करती है, वह आपको रुलाती या हंसाती नहीं, सोचने पर मजबूर करती है.

हाँ, इधर ऐसा भी देखने में आ रहा है कि कई रचनाकार अपनी रचना को जबरदस्ती जटिल और गाँठ.गुठ्ठल बनाने की कोशिश कर रहे हैं और उसमें बेज़रूरत सूचनाएँ ठूंस रहे हैं या उसका एपीसोडीकरण कर रहे हैं और उसमें विदेशी लेखकों के उद्धरण घुसा रहे हैं, अपने ज्ञान से पाठक को आतंकित करने की कोशिश या सीधी .सादी सी बात को जटिल रूप देकर वाहवाही लूटने की चेष्टा निंदनीय है.

 साहित्यिक पत्रिकाओंए उनकी भूमिकाए अख़बार व पत्रिकाओं के साहित्य पन्नों के बारे मेंए साहित्य विशेषांकों के बारे में कुछ कहिये.
साहित्यिक पत्रिकाएं लेखकों के हाउस जर्नल की तरह हैं. उनमें अधिकतर सामग्री लेखकों के पढ़ने के लिए ही छापी जाती है. यदि आपने इंजीनियर्स या डॉक्टर्स या बेंकर्स की हाउस जर्नल देखी हैं तो आप इनका महत्त्व तुरंत समझ जाएँगी।
अख़बारों के पृष्ठों का बहुत महत्त्व है. लाखों की संख्या में ये पृष्ठ उन लोगों के हाथों में जाते हैं और पढ़े जाते हैं जो साहित्य के प्रशिक्षित पाठक नहीं हैं, जनपक्षीय लेखकों को इन्हें ज्यादा गंभीरता से लेना चाहिए और जनशिक्षणएजनजागृति और सूचना संचार के लिए इनका नियमित उपयोग करना चाहिए। मैं पिछले चालीस साल से बराबर इनका उपयोग कर रहा हूँ, हमें याद रखना चाहिए कि सूचित समाज ही प्रश्न पूछने वाला समाज होता है और प्रश्न पूछने वाला समाज ही परिवर्तनकारी समाज बनता है.

और साहित्यिक पत्रिकाओं के विशेषांक न होते तो कई महान लेखकों की सौवीं जयंतियाँ अनदेखी ही चली जातीं।

आपको लिखने के लिए सबसे ज्यादा क्या प्रेरित करता है, इसे मैं कौन जानबूझकर नहीं कह रही. आप जवाब से सवाल को बदल लेने के लिए स्वतंत्र हैं.
अक्सर तो ऐसा होता है कि जब भी मुझे कहीं साधारणता में असाधारणता दिखाई देती है. मैं उसे दर्ज करने और दोस्तों के साथ बाँटने को उतावला हो जाता हूँ. मैं  ऐसा मानता हूँ कि मनुष्य ईश्वर का सबसे सुन्दर स्वप्न है और ईश्वर मनुष्य बनने को बार.बार तरसता है, मैं यह भी मानता हूँ कि यदि स्वर्ग कहीं होगा भी तो वह हमारी धरती से ज़्यादा सुन्दर तो नहीं होगा। इसलिए जो भी चीज़ धरती की सुंदरता में इज़ाफ़ा करती है एमैं ख़ुशी.ख़ुशी और जिंदगी भर उसका गुणगान करूंगा।

 क्या लेखकीय अवरोधए रायटर्स ब्लॉक कुछ होता है?
शायद होता हो ! पता नहीं। मेरे साथ तो कभी नहीं हुआ.

आप काफी पढ़े जाने वाले लेखक हैं तो आपको कैसा लगता है अपने पाठकों का साथ, दूसरी चीज़ों के मुकाबले, मसलन पुरस्कार, प्रशंसा?
मुझे सौभाग्य से पाठकों का बहुत प्यार मिला है. प्रशंसा शुरू-शुरू में बहुत उत्तेजित करती थी . फिर उसका स्थान वैचारिक भागीदारी की चाह ने ले लिया। बहस करते हुए लोग मुझे बहुत अच्छे लगते हैं . बशर्ते वे कुतर्क न कर रहे हों. पुरस्कारों को मैंने कभी ज़्यादा महत्त्व नहीं दिया . हालाँकि पुरस्कार लेना मुझे हमेशा बहुत अच्छा लगा. खासकर पुरस्कार की राशि के कारण.

जितनी तेजी से हिंदी में कहानी या कविता में पहलकदमी बढ़ी है लेखकों की उतनी तेजी से आलोचना में नहीं, युवा आलोचकों में इक्का दुक्का नाम ही नज़र आते हैं. इसकी क्या वजह लगती है आपको. दुसरे जो समीछायें  प्रकाशित होती हैं वो लगभग प्रशस्ति गान सी हो रही हैं,

क्या लेखक में आलोचना को सुनने का धीरज कम हो रहा है?
यह सच है कि हमारे समाज में सहिष्णुता निरंतर कम हुई है. गनीमत है अभी लिखने.बोलने की आज़ादी है. पर इस पर लाठी चलते देर नहीं लगेगी। लोगों के पास टेलीफोन आने लगे हैं कि आपने ऐसा कैसे लिख दिया और वैसा कैसे लिख दिया। ओम थानवी ने अपनी फेसबुक पर कहा था कि टीवी चर्चाओं में किसको बुलाया जाये किसको नहीं इसकी सूचियाँ बन गयी हैं.

समीक्षा का मेरा बहुत थोड़ा.सा अनुभव यह है कि आप सदाशयता से कोई बात कहो तो भी यदि वह अनुकूल नहीं है तो लेखक को अच्छी नहीं लगती। वे सिर्फ अपनी प्रशंसा सुनना चाहते हैं और इसलिए समीक्षा की हैसियत विज्ञापन बराबर ही रह गयी है. व्यक्तिगत रूप से मुझे वह समीक्षा अच्छी लगती है जिसमें समीक्षक ने अपनी मौलिक सूझबूझ से रचना में से कोई ऐसी चीज निकालकर दिखाई हो जो पहले मुझे नज़र नहीं आ रही थी और ऐसा करनेवालों में नौजवान समीक्षकों की संख्या कम नहीं है. दुर्भाग्य से हिंदी साहित्य में समीक्षक को तब तक ध्यान देने योग्य नहीं माना जाता जब तक वह किसी या कुछ दिवंगत मूर्धन्यों पर कोई मोटा पुथन्ना न लिख दे!

आप फिल्मों से भी जुड़े रहे हैं. कुछ अनुभव साझा करिए?
मैंने कुल तीन फिल्मों में सहायक निर्देशक के रूप में काम किया जिनमें से एक ही पूरी हो पायी. लेकिन वह भी रिलीज़ नहीं हुई. चौथी दस्तक जो प्रसिद्ध लेखक और मेरे गुरु राजेन्द्रसिंह बेदी की फिल्म थी, पूरी भी हुई , चली भी और उसे राष्ष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला। उसमें भी कुछ दिन मैंने सहायक निर्देशक के रूप में काम किया था.

फिल्म इंडस्ट्री के अपने अनुभवों को मैं अलग से लिख रहा हूँ

बच्चो के लिए लिखना क्योंकर चुना आपने? हालाँकि मैं खुद 'चकमक' नियम से पढ़ती हूँ अपनी बेटी के साथ और बहुत मजा आता है. भारत में बाल साहित्य को काफी उपेछा मिली है. बाल मनोविज्ञान से लोग कोसों दूर हैं. एक समूची पीढ़ी अपने होश सँभालते ही उपेछित होती है. दादा दादी की कहानियों का वक़्त विदा हो रहा है. गांव  में भी अलाव के किनारे सुलगते कीस्से गुम हो रहे हैं, सब रिमोट की हद में जा रहा है, ऐसे में लेखक या साहित्य की भूमिकाओं को किस तरह देखते हैं आप?
आपके प्रश्न में ही उसका उत्तर छिपा है. इतना ही कह सकता हूँ कि बच्चों के लिए लिखने में मुझे बहुत सर खुजाना पड़ा है और अपनी क्षमताओं को एक नयी चुनौती के सामने रखना पड़ा है. मेरी समझ से हर लेखक को चाहिए कि वह बच्चों के लिए लिखने की परीक्षा में स्वयं को डाले। इससे उसे बहुत फायदा मिलेगा। जब मैं 'चकमक' का संपादक था, मैंने हिंदी के बड़े से बड़े लेखक को 'चकमक' से जोड़ने की कोशिश की. उन्होंने मेरे अनुरोध पर लिखा भी लेकिन अनेक बार ऐसा भी हुआ कि वह हमें बच्चों के लिए उपयुक्त नहीं लगाण् वहां मेरी यह गलतफहमी भी दूर हुई कि क्षेत्रीय भाषाओँ यथा बांग्ला एमराठी आदि में बच्चों के लिए बहुत अच्छा काम हो रहा है।

हाँ, पाकिस्तान में लिखे जा रहे बाल साहित्य में ज़रूर एक नयी पहलकदमी और कल्पनाशीलता दिखाई दी.


Saturday, April 16, 2016

मेरी शिकायत दर्ज की जाए मी लॉर्ड / देवयानी

- देवयानी भरद्वाज 

कितने साल लगते हैं
एक बलात्कार, एक हत्या, एक ज़ुर्म की सजा सुनाने में अदालत को
कितने साल के बाद तक है इजाज़त
कि एक पीड़ि‍त दर्ज़ कराने जाये
उसके विरुद्ध इतिहास में हुए किसी अन्याय की शिकायत

मी लॉर्ड
मेरे जन्म के बाद मेरी माँ को नहीं दिया गया पूरा आराम और भरपूर आहार
इसलिये नहीं मिला मुझे पूरा पोषण
मेरी शिकायत दर्ज की जाये मी लॉर्ड

भाई को जब दी जाती थी मलाई और मिश्री की डली
उस वक़्त मुझे चबानी होती थी
बाजरे की सूखी रोटी
और सुननी होती थी माँ को दादी की जली कटी
एक तो जनी लड़की
वह भी काली कलूटी
कौन इसे ब्याहेगा
कहाँ से दहेज जुटायेंगे
मैं गैर बराबरी और अपमान की शिकायत दर्ज कराना चाहती हूँ मी लॉर्ड
थाने मे जाती हूँ तो सब मेरी बात पर हंसते हैं
घर वाले भी मुझे ही बावली बताते हैं
अब आप ही बतायें मी लॉर्ड
क्या आज़ाद हिन्दुस्तान के संविधान में
मेरे लिये बराबरी की यही परिभाषा थी

मेरी शिकायत दर्ज की जाये मी लॉर्ड
जयपुर के रेलवे स्टेशन पर
पच्चीस साल पहले
जब मेरी उम्र मात्र चौदह साल थी
एक शोहदे ने टॉयलेट के गलियारे में
मेरे नन्हे उभारों पर चिकोटी भर ली थी
और इस कदर सहम गयी थी मैं
कि माँ तक को बता न सकी थी
वह अश्लील स्पर्श मुझे अब भी नींदों में जगा देता है
और मैं बेटी को ट्रेन में अकेले टॉयलेट जाने नहीं देती
पहुँच ही जाती हूँ किसी भी बहाने उसके पीछे
मैं उस अश्लील स्पर्श से छुटकारा चाहती हूँ मी लॉर्ड
मैं इस असुरक्षा से बाहर आना चाहती हूँ
मुझे न अब ट्रेन का नाम याद है,
न घटना की तारीख याद है
मैंने तो उस लिजलिजे स्पर्श का चेहरा भी नहीं देखा
यदि देखा भी होता तो अब याद न रहता
लेकिन मेरे सपनो को उस अहसास से आज़ाद कीजिये मी लॉर्ड
मेरी शिकायत दर्ज की जाये मी लॉर्ड
मेरी न्याय की पुकार खाली न जाये हुज़ूर

मेरे बचपन के अल्हड दिनों को
अश्लील कल्पनाए सौंपने वाले मौसा के विरुद्ध मेरा वाद दर्ज किया जाये मी लॉर्ड
क्या फर्क़ पडता है कि अब उसे लक़वा मार गया है
कि वह अब बिस्तर में पड़ा अपनी आखिरी साँसे गिन रहा है
छह वर्ष से चौदह वर्ष की उम्र तक साल में कम से कम दो बार आते जाते
मासूम देह के साथ किये उसके खिलवाड़ों ने
छीन ली जो बचपन की मासूम कल्पनाएँ वे मुझे लौटाई जायें मी लॉर्ड
मुझे ही क्यों सोचना पड़े कि क्या सोचेंगे उसके नाती और पोतियाँ उसके बारे में
कि बुढापे में ऐसी थू थू लेकर कहाँ मुँह छिपायेगा

क्यों सोचूँ मैं उन चाचाओं, भाइयों और मकान मालिक के बेटों के बारे में
उन सबको जेल में भर दिया जाये मी लॉर्ड
कि अपनी मासूम यादों में आखिर कितने जख्‍मों को लिये जीती रहूँ मैं
मैं उस सहकर्मी के खिलाफ शिकायत दर्ज कराना चाहती हूँ
जो रोज़ाना सामने की सीट पर बैठ कर घूरा करता था
और रातों को किया करता था गुमनाम फोन कॉल
उसे गिफ्तार किया जाये और
मेरे साथ इंसाफ किया जाये मी लॉर्ड

उस लड़के के विरुद्ध भी मेरी शिकायत दर्ज की जाये
जिसने प्यार को औजार की तरह इस्तेमाल किया
और जिसने मेरी देह से सोख लिया सारा नमक

मेरे बच्चों को मेरे ही नाम से जाना जाये मी लॉर्ड
कि बच्चे मेरे रक्तबीज से बने हैं
मैं ही अपने बच्चो की माँ हूँ और पिता भी
बच्चों के नाम के साथ पिता के नाम की अनिवार्यता को समाप्त किया जाये मी लॉर्ड
कि सिर्फ वीर्य की कुछ बूँदें उसे पिता बना देती है और
मेरी मांस मज्जा, मेरे नौ महीने
मेरा दूध
मेरी रातो की नींद,

सिर्फ एक कर्म जिसके पीछे भी छुपा था प्यार
या निरी वासना और गुलाम बनाने की मानसिकता
कैसे उसे दे सकता है मेरे बराबरी का अधिकार
इस व्यवस्था को बदलिये मी लॉर्ड
कुछ कीजिये हुज़ूर कि इसमें छुपा अन्याय का दंश अब और सहा नहीं जाता है

अगर आपका कानून लगा सकता है
तमाम उम्र सुनाने में अपने फैसले
तो मेरी तमाम उम्र की शिकायत क्यूँ आज दर्ज नहीं की जा सकती मी लॉर्ड.

Thursday, April 14, 2016

नजर और नजरिये के दरम्यिान स्त्री



- प्रतिभा कटियार
हम नहीं जानते कि हम नहीं जानते और इस न जानने को उम्र भर जीते जाते हैं। महसूस करते हैं वो जो महसूस करने के इंजेक्शन समाजीकरण की प्रक्रिया में हमें लगाये गये हैं। रास्तों का सही या गलत होना, लोगों का एक-दूसरे के साथ पेश आना, चीजों को देखने और समझने का हमारा नजरिया सब पहले से तय किया जा चुका है। चित्रलेखा में जिस तरह पाप और पुण्य की खोज शुरू होती है और एक समूची यात्रा तय करके जिस तरह प्रस्थान बिंदु की ओर बढ़ती है वैसी ही यात्रा हम सबके जीवन में भी चलती है बस कि उस यात्रा में हमारी खोज क्या है, यह हम जान नहीं पाते। ऐसी ही एक यात्रा स्त्री जीवन की भी है। समाजीकरण के घने बुने ताने-बाने ने किस तरह एक खंडित समाज को रचते हुए इंसान की इंसान के बीच दूरियां खींच दी हैं जिनमें से कुछ पर तो हमारी नज़र गई है लेकिन कहीं तो नज़र गई तक नहीं। नज़र की हद में आने से छूट गये ऐसे ही छोटे-बड़े टुकड़ों को समेटते हुए अपने समाज के बरअक्स स्त्री मन, उसके जीवन की चुनौतियों को समझने की कोशिश-

”आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा।” उस अजनबी लड़के ने कहा। ”मुझे भी।” अजनबी लड़की ने जवाब दिया। वो अजनबी थे लेकिन दो दिनों से दोस्तों के एक समूह में थे। एक-दूसरे के नाम के सिवा वे एक-दूसरे के बारे में कुछ नहीं जानते थे, जानने की जरूरत भी महसूस नहीं हुई। विदा के वक्त जब वो दोनों ही बचे थे और बचा था थोड़ा सा रास्ता भी तो बीच में कोई खामोशी आकर बैठ गई। उस खामोशी को तोड़ते हुए लड़की ने यूं ही पूछ लिया, ”आप क्या करते हैं, परिवार में कौन-कौन है।” लड़के ने बताया, कारोबार, पत्नी, दो बच्चे। फिर यही घिसा हुआ सवाल लड़के ने भी गाड़ी का गियर बदलते हुए दोहरा दिया। लड़की ने भी बता दिया, ऑफिस के बारे में, बच्चे के बारे में। ”और पति?” उसने पूछा। न दिये गये जवाब अक्सर उलझाते हैं...लड़की ने बेपरवाही से जवाब दिया, ”हमारा तलाक हो चुका है।” लड़का बोला, ”अरे...लेकिन आप तलाक लेने वाली औरतों जैसी लगती तो नहीं....” लड़की के भीतर कुछ दरक गया। उसने कुछ नहीं कहा, थोड़ी देर बाद वो उतर गई लेकिन वो लड़के का वो जवाब अब तक जेहन से उतरा नहीं। यूं तलाक, सेपरेशन, ब्रेकअप के भीतर की टूटन और समाज के व्यवहार इंसान को काफी हद तक सख्त बना ही देते हैं। लेकिन जब तथाकथित पढ़ी लिखी, सभ्य, सुसंस्कृत, नई पीढ़ी भी इस तरह पेश आती है तो थोड़ा बुरा तो लगता है...क्या ऐसा ही सवाल पुरुष से भी पूछा गया होगा या वो इसलिए बेचारा बना होगा समाज में कि कैसी तेज बीवी से पाला पड़ गया था बेचारे का। समाज की हर टूटन की जिम्मेदारी स़्त्री के मत्थे ही तो मढ़ी है। तभी तो पुराने लोग कहते हैं कि लड़कियां पढ़-लिखकर घर तोड़ रही हैं। सचमुच चेतना, टूटने की शुरुआत ही तो है...आखिर हर टूटन के लिए स्त्री को जिम्मेदार पाने वाली नज़र और नज़रिया कहां से आता होगा। कहां से आती होगी वो निजी सोच जिसमें खुलकर सांस लेने को गुनाह करार दिया जाता होगा। किस तरह एक स्त्री को दूसरी स्त्री के सम्मुख खड़ा कर दिया जाता होगा बतौर दुश्मन...वो नज़रिया न स्त्री गर्भ से लेकर आती है, न पुरुष। पीके की भाषा में कहें तो सब इसी गोले में रचा गया है, हमारा होना और न होना सब.
हम जिस तरह बर्ताव करते हैं, नजर आते हैं, अपनी बात को कहते हैं, जैसा जीवन जीते हैं यह सब कहां से आता है। कौन है जो हमें व्यक्ति बनाता है, हमारे सोचने-समझने के ढंग का निर्माण करता है, कब अनजाने हमारे सही, गलत, अच्छे बुरे तय होने लगते हैं...फेविकोल की जोड़ की तरह हमारे जेहन से चिपक जाते हैं। कमाल यह कि हम यह सोचते हैं कि यह तो हमारी ही इच्छा है, ऐसा हम ही चाहते हैं, यह हमारा अच्छा लगना है, हमारा बुरा लगना। यह समाज इसका ताना-बाना, इसकी जटिलताएं, रूढि़यां बच्चे के जन्म से पहले ही उसे जकड़ने को आतुर। सामाजिक सत्ताएं व्यक्ति निर्धारण करती हैं। हमारे जन्म से सैकड़ों बरस पहले ही हमारा होना तय किया जा चुका है। किस बात पर हंसना है हमें, किस बात पर रोना, किस बात पर गुस्सा बस आ ही जाना चाहिए। एक समाज के लोग एक ही जैसे चुटकुलों पर हंसते हैं, एक जैसे मनोरंजन के साधन तलाशते हैं, एक जैसी जीवनशैली अपनाते हैं, एक जैसे उनके अहंकार होते हैं और एक जैसी अनुभूतियां भी। हमें एक जैसी चीजों पर एक जैसा बुरा भला लगता है तभी तो नई सदी की नई पीढ़ी का वो अजनबी लड़का बिना कुछ भी जानने-समझने की इच्छा के सपाट ढंग से कह बैठता है कि ”आप तो नहीं लगतीं तलाक लेने वाली औरतों जैसी....” वो जो बोल गया वो कौन था, कोई चेहरा या नाम नहीं एक समूूची सोच। समूचा समाज। समाज जो कभी पड़ोस वाली आंटी, कभी बुआ, कभी चाची, कभी कामवाली बाई, कभी दफ्तर के सहकर्मियों और कभी तो दोस्तों के रूप में मिलता रहता है...हमें लगता है कि हम व्यक्तियों से व्यथित हैं, या हम व्यक्तियों का विरोध करते हैं, उनसे नाराज होते हैं....जबकि असल में हम व्यक्तियों से नहीं समूचे समाज से भिड़ रहे होते हैं, लहूलुहान हो रहे होते हैं।
स्त्री होती नहीं बनाई जाती है-
सिमोन को पढ़ते हुए, समाज के ताने-बाने को देखते हुए समझा था कि स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है। साथ ही यह भी समझा था कि बनाये तो पुरुष भी जाते हैं, पैदा तो वो भी नहीं होते होंगे। स्त्री को शोषित होने के लिए तैयार करने वाला यह समाज पुरुषों को शोषण करने के लिए भी तो तैयार करता है। एक स्त्री को उसकी रची-बसी भूमिकाओं की ओर धकेलने वाला समाज उन भूमिकाओं की ओर पैर बढ़ाने वाले पुरुषों का मजाक भी तो बनाता है। बचपन में मालती जोशी की कहानी पढ़ी थी समर्पण का सुख। उसका एक किरदार राजू अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता है, उसे सारा दिन घर के कामों में कोल्हू के बैल की तरह खटते देखकर उदास होता है लेकिन चाहकर भी उसकी मदद नहीं कर पाता क्योंकि वो तो मर्द है और मर्दों को घरेलू काम करना बुरा माना जाता है, उन्हें ”मेहरा ” कहकर उनका मजाक उड़ाया जाता है। इसलिए वो रात में अपने कमरे में सबके सो जाने के बाद अपनी पत्नी की सेवा करता है उसके दर्द को कम करने की कोशिश करता है...। यह है बनाया जाना। राजू तो फिर भी महसूस करता था अपनी पत्नी की तकलीफ लेकिन कितने लोग तो महसूस करने से भी वंचित कर दिए गये हैं। उन्हें महसूस भी वही होता है, जो समाज चाहता है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ गांवों के उदाहरण आंखों के आगे घूमते हैं जहां अपनी पत्नी की तबियत खराब होने और उसकी दवा के बारे में, दर्द के बारे में पूछने, इलाज की चिंता को जाहिर करने वाले पुरुष को ”जोरू का गुलाम” कह दिया जाता है। अगर पत्नी काम में व्यस्त है और बच्चा रो रहा है तो वो अपने बच्चे को गोद में उठाकर दुलरा नहीं सकता...क्योंकि यह तो स्त्रियों का काम है। पुरुषों के हाथ में सजा-संवरा, खिलखिलाता बच्चा आना चाहिए वो भी कुछ देर को। सिर्फ उनके बाप होने के रौब को बढ़ाने को (बच्चा अगर लड़की है तो वो भी कम हो जाता है) अगर बच्चा रोने लगता है तो पुरुष पिता चिड़चिड़ा जाते हैं. झुंझला जाते हैं...”ले जाओ यार इसे, पें पें करता रहता है...”कहकर स्त्री की गोद में पटककर निकल जाते हैं। उनका कलेजा बच्चे के रूदन से फटता नहीं। यह व्यक्ति का नहीं, समाज का व्यवहार है। इसी नई पीढ़ी के कई पुरुष जो कुछ हद तक अपने भीतर संवेदनाओं को बचा पाये हैं वो मेहमानों के आने से पहले, मां के जागने से पहले, पड़ोसियों से नजर बचाकर चुपके-चुपके अपनी पत्नी की मदद करते हैं...हालांकि इसका इलहाम भी उन्हें होता ही है कि वो कुछ खास पति हैं जिसका अहसानमंद उनकी पत्नी को होना चाहिए।
हमने तो कोई रोक-टोक नहीं रखी-
अक्सर नये जमाने के आधुनिक सोच वाले लोगों से मुलाकात होती है। वो जो कहते हैं समाज बदलना चाहिए, ये सूरत बदलनी चाहिए। वो जो अपने प्रेम के लिए जमाने से लड़ने को बुरा नहीं मानते। वो जो मानने लगे हैं कि मनुष्य का मनुष्य से बराबरी का रिश्ता होना चाहिए वो अक्सर कहते हैं, ”हमने तो अपने घर में, रिश्तों में कोई पाबन्दी नहीं लगाई। खुली छूट दे रखी है पत्नी को, मां को, बहन को।” और यह कहते हुए वो यह भूल जाते हैं कि वो खुली छूट ”दे रहे हैं...” यह छूट देने की सत्ता उनकी ही तो है। कहां से आई? किसने तय की? वो कौन होते हैं छूट देने वाले आखिर? पता ही नहीं चलता कि लोकतान्त्रिक होने का दावा करते-करते हम अनजाने ही कितने अलोकतान्त्रिक होते जाते हैं। ये समाज ही तो है जो हमारे समूचे व्यवहार पर अपना कब्जा करके बैठा है...हम जो हम हैं, लेकिन हम नहीं हैं। 

प्रेम भी बचा नहीं, न फिल्में -
हाल ही की एक फिल्म का उदाहरण आंखों के आगे घूम रहा है...बाजीराव मस्तानी। मस्तानी इतिहास की प्रेमिका है, बाजीराव भी। मस्तानी योद्धा है, वीर है। तमाम बैरिकेडिंग तोड़कर बाजीराव के प्रेम में पड़ जाती है। क्यों वो प्रेम में पड़ते ही नर्तकी बन जाती है. क्यों वो खुद को बुंदेलखंड की नाजायज बेटी कहती है और सिंदूर को महान...क्यों? क्यों इसी समाज की तमाम ढांचागत स़्ित्रयां काशी के प्रति दया से भर जाती हैं और तमाम प्रेमिकाएं मस्तानी में अपना अक्स देखने लगती हैं... कितने ही ऐसे संबंध आसपास सांस ले रहे हैं लेकिन चोरी से...समाज की मुहरों वाले रिश्ते क्यों दिल के रिश्तों को मुह चिढ़ा रहे हैं। प्रेम के लिए जमाने भर से लड़ जाने वाले प्रेमी भी क्यों आखिर समाज की मुहर लगवाने को मजबूर ही हैं अब तक...क्योंकि फिल्ममेकर भी तो इसी समाज में एक यात्रा जीकर आया है....। तनु वेड्स मनु की अति आधुनिक दत्तो सब कुछ कर सकने में सक्षम है, मेडल भी ला सकती है, चूल्हा भी फंूक सकती है, रिश्ते भी संभाल सकती है, बच्चे भी पाल सकती है...जमाने भर से लड़ भी सकती है लेकिन तनु के उस प्यार को नहीं समझ सकती जो इस तरह के समर्पण की सीमाओं में बंधा नहीं। वो कभी तनु को अपनी आदर्शवादिता का ताना मारती है तो कभी शादी के बीच में शादी से इनकार करके महानता का चोला ओढ़ लेती है....लोग दत्तो की महानता के कायल हो जाते हैं। क्यांे? क्यों एक स्त्री को महानता के तमाम लबादों मेें लदे हुए ही देखने की आदत है इस समाज को। ऑफिस भी संभालो, घर भी, बच्चे भी, पति भी, क्लब भी, मंदिर भी...सब। सादा सहज तनु ये सब करने से इनकार कर देती है तो उसे गलत साबित करने के लिए उसे फूहड़ बनाना जरूरी लगा फिल्मकार को कि कभी नशे में धुत, कभी तौलिए में घर के आंगन में बिठाने जैसी घटनाएं बुन दीं। दत्तो महान नहीं थी, दत्तो अब तक की ”कहानी घर घर की” भाभी जी का ही एडवांस वर्जन भर थी। तनु ने समाज की बनी बनाई मान्यताओं और स्त्री के तयशुदा खांचों में फिट होने से इनकार किया....तो उसे क्यों फिल्मकार को डार्क शेड में छुपाना पड़ा। क्योंकि फिल्मकार को समाज की सोच का ख्याल रखना था। जबकि तमाशा की दीपिका अपने उस प्रेमी की अंगूठी पहनने से इनकार कर देती है जिसके बिना वो एक पल नहीं जी पाती...क्यों? क्योंकि वो व्यक्ति रणवीर नहीं उसकी खुली हुई आत्मा से प्यार करती है। बिना आत्मा के देह का क्या अस्तित्व...यह बात समाज पर चोट करती है...हैप्पी एंडिग सिर्फ हीरो हीरोईन का मिल जाना नहीं...अपने आपको समझ लेना है...ऐसा ही नजर आया क्वीन में...कि जिसे वो प्रेम समझ के बिसूरती फिर रही थी वो तो प्रेम था ही नहीं...लेकिन इस बात को समझने में 3 घंटे लग गए...क्योंकि प्रेम को भी हम उसी तरह समझने के आदी हैं जिस तरह समाज तय करता है। चंद गुलाब के फूल, टेडी बियर, डेट, शादी, सेक्स, बच्चे और बस...”हां यही प्रेम है” से ”जाने कहां गये वो दिन” तक का सिलसिला...
कोई आरोपपत्र नहीं, युद्ध नहीं-
बहुत से लोग हैं आसपास जो किसी भी बात में स्त्री विमर्श तलाश लेते हैं, रच भी देते हैं स्त्री विमर्श की तमाम कहानियां कविताएं, आलेख, भाषण। जो संवदेना वो समझ सके हैं, जो उनकी रचनाओं से ध्वनित होता है वो जीवन जीते वक्त कहां गायब हो जाता है आखिर। इस बिना जिये सिर्फ उगल दिए गये विमर्शों के शोर ने अजीब सी उकताहट भर दी है लोगों में। स्त्रियों में भी, पुरुषों में। कोई नस चटखती मालूम होती है जब किसी अति संवेदनशील बात को लोग उकताकर खारिज कर देते हैं या उसका मजाक उड़ाते हैं यह कहकर कि ये लोग तो हमेशा स्त्री विमर्श का राग अलापते रहते हैं...
तो क्या जो लोग समझ रहे हैं कि वो समझ रहे हैं वो अपनी बात ठीक से समझा नहीं पा रहे हैं। या यह समझ पाना भी एक वहम है, या यह कोई चालाकी है...मालूम नहीं क्या है लेकिन जो भी है दुःखद है। दुःखद है सिनेमा के बलात्कार के दृश्यों में रस और आनंद ढूंढते लोग। बचपन के सेक्सुअल एब्यूज के बारे में बताती हुई आलिया को देखते हुए सीटियां बजाते हुए पीवीआर में बैठे दर्शक, बैंडिट क्वीन में आनंद तलाशती आंखें और 16 दिसंबर की खबरों को पढ़ते हुए कोई रस अनुभूत करते हुए बार-बार उन घटनाओं का विवरण करते लोग। वो क्या चीज होती है जो दर्द से फफककर रो पड़ने की बजाय या उफनकर छलक पड़ने की बजाय स्त्रियां भी कहने लगती हैं कि उसे रात में अकेले जाना ही नहीं चाहिए था....और घर के पुरुष अपने घर की औरतों के इस वक्तव्य पर गौरव महसूस करते है। हर बात पर स्त्री या पुरुष का राग छेड़े जाने का मसला नहीं, मसला यह है कि किस कदर हमारी रगों में दौड़ते खून के साथ एक पूरी साजिश, पूरी सत्ता, पूरी सोच भी दौड़ रही है। जिस तरह हमें अपनी सांस के आने-जाने का, रगों में दौड़ते खून का इल्म नहीं होता उसी तरह अपने व्यवहार अपनी सोच का भी इल्म नहीं होता...और एक रोज उकताकर कहने लगते हैं बस करो यह स्त्री पुरुष का राग। दरअसल यह राग...एक सुंदर जीवन की कल्पना है...कोई युद्ध नहीं। कि अपने भीतर सदियों से पड़ी जड़ताओं को टटोलने उन्हें तोड़ने उनसे आजाद होने की बात है...किसी का किसी के खिलाफ कोई आरोपपत्र नहीं...
अपनी मर्जी से कहां अपने सफर के हम हैं-
यह हमारी मर्जी है कि हम अपने पति पर न्योछावर होते हैं, यह हमारी मर्जी है कि हम उनकी सत्ता मंे सुखी रहते हैं, यह हमारा सुख है कि हम उनके लिए भूखे प्यासे उपवास करते हैं, सब हमारी मर्जी है...ये चूड़ी, ये बिंदी, ये गहने, ये साज श्रृंगार...सब हमारी मर्जी है....भला इससे किसी के पेट में क्यों दर्द होता है. मेरा पति मुझे पीटता भी है तो क्या हुआ...प्यार भी तो करता है। मेरा उससे प्रेम और झगड़ा मेरा निजी मामला है. जब हम ”अपनी” ”इन मर्जियों” से जीते हैं तब तो किसी समाज का कोई नियम भी नहीं टूटता...फिर परेशानी किसे है...आईएएस, पीसीएस, सीईओ, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफसेर, आईपीएस, लेखिकाएं, फिल्मकार, अभिनेत्रियां, किसान, मजदूर, सारी औरतें इन अपनी मर्जियों के सफर पर मजे से चल रही हैं। समाज की सारी व्यवस्थाएं चाक-चौबंद हैं, बाजार की भी। सत्ताएं अपने-अपने ठिकानांे पर काबिज हैं बिना किसी खतरे के। कि एक रोज कोई स्त्री घूंघट में दम घुटने की शिकायत करती है, कोई स्त्री जेवरों से आजिज आकर उतार देती है, कोई स्त्री गर्भ धारण के फैसले अपने हाथ में ले लेती है, कोई स्त्री प्रेम की परीक्षा देने के लिए तमाम परंपरागत रिवाजों का पालन करने से इनकार कर देती है...और तब समाज में हलचल होने लगती है...खलबली मचने लगती है...क्यों भई, ये तो उनकी अपनी मर्जी का मामला था...आज मर्जी नहीं है...तो यह खलबली क्यों है आखिर...सोचा है कभी?
महानता का ताज और दुनियादारी-
सोचा है कभी क्या उन स्त्रियों ने कि जिस गर्व के साथ वो अपने सतीत्व और पारंपरिक होने के ताज को धारण किये बैठी हैं, उसका प्रचार कर रही हैं, उसका वैभव जी रही हैं वो एक बड़े तबके की त्रासदी है, जकड़न है, मजबूरी है। वो जिस तरह सोच रही हैं उन्हें इसी तरह सोचने के ईनाम में उनका महानता का ताज समाज से मिला है...वो अपनी मर्जियों से अनजान हैं और इस बात का उन्हें पता भी नहीं. महानता का तमगा, दैवीयता, प्रशंसाएं ये सब दुनियादारी के प्रपंच हैं क्या हम समझ पाते हैं। बहुत अच्छी स्त्री के मानक तय करके उसे लगातार तयशुदा दायरों में धकेलता जाना, तुम बहुत अच्छा पोछा लगाती हो, तुम गली में बहुत अच्छी झाड़ू लगाती हो, तुम बहुत सुंदर हो, तुम बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती हो, तुम एक अच्छे पति हो वक्त पर घर आते हो, वीकेंड को फैमिली को आउटिंग कराते हो, अच्छे बेटे हो तुम कि मां-बाप का ख्याल रखते हो, तीर्थ कराते हो....और इस तरह ये बहुत अच्छे होने के मानकों में समूचा व्यक्तित्व धंसता चला जाता है, बहुत अच्छे होने की कोशिश में अपने आप तक कभी पहुंच ही नहीं पाता। अंत में यह बहुत अच्छा होना भी छूट ही जाता है...एक रोज ऑफिस से देर हो जाने पर, एक रोज साफ पोछा न लगाने पर, एक रोज ठीक से सज संवर कर न रहने पर, एक रोज दाल में नमक तेज हो जाने पर, एक रोज मां-बाप को किसी काम के लिए इनकार करने पर अच्छे के सिंहासन से धकेल दिया जाता है। असंतोष ही है चारों ओर और एक रेस भी उस बहुत अच्छे होने के सिंहासन की ओर दौड़ने की। स्त्रियां इस दौड़ में ब्यूटीपार्लर की ओर भागती हैं, ज्वेलरी शॉप की ओर, नये फैशन के कपड़ों की ओर, पुरुष नये मॉडल की गाडि़यों की ओर, और ज्यादा कमाने की ओर....इस दौड़ से बाहर कोई अस्तित्व ही न हो जैसे। जो लोग खुद को इस दौड़ से बाहर निकाल लेते हैं वो समाज की आंख की किरकिरी बन जाते हैं।
टुकड़ों में दिखता है टुकड़ा-टुकड़ा विमर्श-
मैं तो भई इन स्त्री विमर्श वालों से दूर ही रहती हूं। इन्हें हर बात में पुरुषों के खिलाफ मोर्चा निकालने की हड़बड़ी रहती है...ऐसा कहने वाली स्त्रियों से कम मिलना नहीं होता। ऐसा कहते ही ये पावन स्त्रियां पुरुषों की प्रियता तलाशती हैं कि उन्हें विरोधी खेमे का समझ अपने से अलग न कर दिया जाए कहीं। दलितों को अपना दलित होना छुपाते भी देखा ही होगा हमने कि वो आरक्षण लेकर आये हैं इस बात का दंश समाज उन्हें रह-रहकर मारता ही रहता है। उनसे हुई एक गलती उनकी पूरे जाति पर, उनके चयन की प्रक्रिया पर सवालिया निशान भी होती है और मजाक का हिस्सा भी। एक दलित दूसरे दलित का अपमान होते देखकर भी चुप रहता है कि कहीं उसकी पहचान न सामने आ जाए, वो समाज की विद्रूपताओं का सामना करने की हिम्मत कहां से लाए। शक्तियों से वंचित इस समाज के सारे लोग चाहे स्त्री हो, दलित हो, आदिवासी हो हाशिए पर हैं। उन्हें हाशिए पर ही पड़े रखने की कवायद जारी है जिसमें उन्हें ही मोहरा भी बनाया जा रहा है।
”भई, औरतों का मामला है हम बीच में नहीं बोलते...” कहकर मूंछों के नीचे मुस्कुराकर निकल जाने वाले घर की सत्ता के मालिक जानते हैं कि इन स्त्रियों के आपस में जूझते रहने पर ही उनका होना कायम है। क्योंकि ये वही लोग हैं जो एक स्त्री के प्रधान बनते ही उसकी साारी शक्तियां अपने हाथ में लेना नहीं भूलते। टुकड़ों में स्त्री या दलित या सामाजिक विमर्शों को देखने की दिक्कत यही है कि इसके तहत एक को दूसरे के सामने विरोधी खेमा बनाकर परोस दिया जाता है जो कि है नहीं, विरोध तो चेतना का जड़ता से है...लेकिन वो दिखता नहीं है। यही खेल सबसे बड़ा है। एक स्त्री दूसरी स्त्री के विरोध में नहीं होती एक ज्यादा शक्तिसंपन्न व्यक्ति अपने से कम शक्तिसंपन्न व्यक्ति पर रौब गांठ रहा होता है।
16 बरस बाद घर-
सोनू लोगों के घरों में झाडू पोछा का काम करती है। एक रोज सुबह खुश-खुश आई और बोली, दीदी आज मम्मी का फोन आया है। घर पे बुलाया है खाने के लिए। 16 बरस से सोनू एक ही शहर में रहकर अपनी मां-बाप, भाई से नहीं मिली थी। उसकी आंखें छलक रही थीं। नहीं मिली थी क्योंकि 16 बरस पहले उसने अपनी पसंद के लड़के से शादी कर ली थी। पिता और भाई ने उसे मरा हुआ घोषित कर दिया और मां के पास उनके साथ होने के सिवाय कोई चारा नहीं था। उस घटना के कई साल बाद उस घर में एक बहू आई यानी सोनू की भाभी। उसने धीरे-धीरे बात करते हुए अपने पति को अपनी ननद के प्रति घृणा से बाहर निकाला। आाखिर घर की बहू ने घर की बेटी को घर से जोड़ने की कोशिश में सफलता पाई। कहां है वो इतिहास जो जुमलों में स्त्रियों को दुश्मन करार देता है स्त्रियों का। ऐसे उदाहरणों की संख्या बढ़ रही है और जाहिर है समाज की चूलें हिल रही हैं....।
मां को बेटा चाहिए-
कन्या भ्रूण हत्याओं का ठीकरा भी स्त्रियों के ही सर है। क्योंकि स्त्रियों को ही बेटा चाहिए होता है। क्यों चाहिए होता है स़्त्री को बेटा, क्यों वो अपनी ही कोख में अपनी बेटी के मार दिए जाने की पीड़ा बयान तक नहीं कर सकती। क्यों उसने समझ लिया है कि बेटियों को जन्म देकर वो अपना बचा-खुचा अस्तित्व भी खो देंगी। उसका सम्मान, उसका गौरव, उसके अधिकार सब एक पुत्र जन्म पर आश्रित हैं इसलिए वो बेटे की कामना करती है। असल में यह कामना तो पुरुष सत्ता की ही है जिसे आरोपित भी स्त्री पर किया गया है और जिसका दंश भी स्त्री को ही सहना पड़ता है। यहां से अहंकार का राज शुरू होता है। एक ही घर की तमाम बहुओं में से पुत्र को जन्म देने वाली बहू का मान बढ़ता जाता है और बेटियों की मांओं के हिस्से में उपेक्षा बढ़ती जाती है। जीवन भर स्त्री होने की उपेक्षा का दंश सहने के लिए पुत्री को जन्म देने की बजाय वे पुत्र जन्म देना चाहती हैं इसमें स्त्री को स्त्री का दुश्मन समझने वाली बात कहां से आ गई कोई समझाए तो।
आसान नहीं बेटियों की मां होना-
यह काला समाज है। स्त्री के लिए न कोई अधिकार हैं यहां, न सुरक्षा, न जीने लायक जीवन। जिस समाज में एक बरस की बेटी घर के सदस्यों की हवस की शिकार होती हो वहां मां का कलेजा उन्हें जन्म देते हुए क्यों नहीं कचोट उठेगा। एक ही वक्त पर दो दोस्तों ने अपने-अपने बच्चों को जन्म दिया। आज दोनों बच्चे 12 बरस के हैं। जहां बेटी की मां की नींद हराम रहती है सुरक्षा को लेकर वहीं बेटे की मां चैन से रहती है यह कहते हुए कि ”अच्छा हुआ लड़का है मेरा वरना मेरी भी नींद उड़ जाती।” यहां से आती हैं बेटों की ख्वाहिशें और बेटियों की उपेक्षा। और देखिए न यह इल्जाम भी उसी मां के सर पर है जो इस दंश को सह रही हैं वो तो जानती ही नहीं कि कब उन्हें उनके ही खिलाफ खड़ा कर दिया गया है। कितने चुपचाप सदियों से हमसे हमारा होना छीना जाता रहा है और हम बेखबर हैं।
उड़ो न अपनी भरपूर उड़ान-
समय के साथ बदले स्त्री के साथ संवाद करने के ढंग भी। बच्चियों की परवरिश में उनकी थाली की रोटी और कपड़ों का भेदभाव स्कूल तक पहुंचा। जहां पहले समस्या इस रूप में थी कि लड़कियों को पढ़ने की क्या जरूरत है अब इसका रूप उन्हें सरकारी स्कूलों में पढ़ लेने की आजादी मिलने तक बदल गया है, (संभ्रांत परिवारों की कान्वेंटी लड़कियों के अलावा जो संसार है उसके बरक्स देखा जाए इस बात को)। लड़कियों का आर्थिकी में सहयोग बाजारवाद से लड़ने में सहयोग करने लगा था सो, गृहकार्य में दक्ष, सुशील, गोरी कन्या के साथ नौकरीपेशा भी जुड़ गया। लेकिन रोजगार करने की आजादी उन्हें यह कहकर थमाई गई कि देखो, टीचिंग या नर्सिंग कर लो आराम रहेगा। नर्सिंग तो खैर उनके सेवाभाव के चलते चिपका दिया गया होगा उनके पीछे।
मीडिया में, सेना में, मेडिकल में, बैंक में, बिजनेस में जाने वाली लड़कियों की बाहर की दुनिया तो बदली लेकिन घरेलू संघर्ष नहीं बदले। लेखन में उतरी महिलाओं की प्रशंसा के साथ ही ऐसा लिखो, ऐसा न लिखो की ताकीदें भी उभरने लगती हैं। उन पर आरोपों के शिकंजे भी कसे जाने लगते हैं, खेमेबंदियों का शिकार भी बनाया जाने लगा। इतने सुभीते से कि शिकार को खुद भी पता न चले और वो अपना शिकार हो जाने का आनंद अनुभूत करने लगे। शर्त यह है कि नौकरी और घर संभालते हुए आह नहीं निकलनी चाहिए। आह निकली या कोई और दुर्घटना घटी तो ये समाज तंज की तलवारें लेकर खड़ा मिलेगा, और निकलो घर से बाहर...और करो नौकरी...
और अंत में बाजार-
इस सारे पेचोखम में बाजार भी, मीडिया भी सब जाकर खड़े हो गये पितृसत्ता के साथ। श्रंृगार, अच्छी होने की छवि, ममता, वात्सल्य, विनम्रता, त्योहार, परंपराओं को स्त्री के साथ मिक्स एंड मैच करके चमचमाते बाजार में तब्दील कर दिया। दृश्यम फिल्म का यह डॉयलाग काबिले गौर है कि चीजें जो दिखती हैं उनका असर बहुत गहरा होता है...बाजार ने दिखाया स्त्री का सौन्दर्य, ग्लैमर कितना महत्वपूर्ण है। धारावाहिकों ने, फिल्मों ने एक आदर्श स्त्री की छवि परोसी जो समर्पण की देवी की हैे। एक ऐसी स्त्री जो सुपरवुमन है। जो घर से बाहर तक, क्लब से बिस्तर तक सब हंसते हुए संभाल लेती है...जो सबको समझ लेती है...सबके काम फुर्ती से निपटा लेती है. जो भले ही नाइटक्लब में जाती हो लेकिन मंगलसूत्र और करवाचौथ से विमुख नहीं होती।
इस समाज रूपी रेलगाड़ी के हर डिब्बे में वही बिक रहा है जिसकी इजाजत समाज ने दी है। यात्रियों को आजादी तो पूरी है लेकिन अपने-अपने डिब्बों के भीतर भर। आसमान देखा तो जा सकता है लेकिन पूरा नहीं। और इस बात का इल्म भी नहीं होने देना है कि हमारी जिंदगी से हम ही मिसिंग हैं...इसीलिए कोई भी भंसाली, कोई कपूर, कुछ भी परोस के चला जाता है और हम बजाय सवाल करने के अश अश करके फिदा हो जाते हैं....ये सिलसिला रुके इसके लिए पहले इस सिलसिले को समझना होगा...

Friday, April 8, 2016

जा रे, मैं नहीं देती अटेंशन...



मौसमी बुखार की ज़द में भी कितना कुछ होता है. कितनी स्म्रतियां होती हैं इसकी हथेलियों में, कितने महकते लम्हे और कैसा गुनगुना सा एहसास. पैरों में लगे पहियों को ब्रेक लगाकर एक शाम ढलते हुए सूरज और अपने होने के मगरूर एहसास के साथ. सुख है. हरारत का सुख है. अपनी मगरूरियत का सुख है.

हथेलियों में कोई लकीरें नहीं, उनके बनने और बिगड़ने के खेल से उकताकर एक रोज खेल की बिसात ही पलट दी थी बिलकुल वैसे ही जैसे छुटपन में लूडो खेलते हुए जब हारने लगती थी तो रोते हुए सारी गोटियाँ मिला दिया करती थी. खेल ही तो है जीवन भी, इसके पीछे दौड़ो तो भाव खाता है, मुंह मोड़कर बैठो जरा तो पीछे से धर दबोचता है कम्बखत. सबको अटेंशन चाहिए. जिंदगी को भी, मौत को भी, हाथ की उन लकीरों को भी जिनमे कोई नाम उभरते उभरते छूट गया था, बचपन के उस खेल को भी जिसमें हार न सह पाने वाले उस मासूम को गोटियाँ उलटना सरल लगता था. अटेंशन सबको चाहिए.

'जा रे, मैं नहीं देती अटेंशन...' जिस रोज ये बोला था न उसको ठीक उसी रोज वो  मुस्कुराते हुए दरवाजे पे आ खडा हुआ था. लेकिन अब मैं जरा मसरूफ थी. बड़े काम जमा कर लिए थे मैंने, रोने के सिवा, बिसूरने के सिवा. वो लाख मनाये कि चल पड़ो न दो कदम मेरे साथ, और मैं कहूं ' तू भाव खा ले रे पहले'.

'दरअसल, मुझे भी सांस लेने वालों की नहीं जीने वालों की तलाश होती है. अब तुम सांस नहीं ले रही, मुझसे भाग नहीं रही, मुझसे चिपक भी नहीं रही और अब तुम मेरी पक्की दोस्त हो.' वो मायूस सी आवाज में कहता है. मैं जीवन को माफ़ कर देती हूँ. गलतियाँ किससे नहीं होतीं. कौन है जो गलतियों से खाली है, हम दोनों अब पक्के दोस्त हैं.

वो मेरी हथेलियों को फिर से टटोलता है, उसमे बीते हुए कल की एक भी लकीर नहीं, आगत की कोई बुनावट भी नहीं...बस पड़ोस के घर से आती रातरानी की महक है...पास में रखे कॉफ़ी मग से उठती कॉफ़ी की खुशबू भी. जिन्दगी के पेशानी पे हैरत की लकीरें हैं और मेरे चेहरे पे मुस्कुराहटें, दूर देश में कोई दोस्त रूठा बैठा है...ये खुशबू उस तक भेजना चाहती हूँ, ये हरारत भी, ये महकती हुई रात भी...न कोई विगत, न आगत, बस इस लम्हे का मुकम्मल सुख तेरे लिए दोस्त...

Tuesday, April 5, 2016

लिखने की बजाय झाड़ू लगाना ज्यादा अच्छा लगता है


कोई रात बरसती है तो बस बरसती ही जाती है. न सुबह रुकने को राजी, न दोपहर. मैं दिन के पीछे भागती हूँ वो मेरे पीछे, हम सब एक-दुसरे के पीछे भागते जाते हैं. कभी रंग छूटते हैं इस भागाभागी में तो कभी राग. बस जिंदगी का कोई सिरा पकड़कर किसी लम्हे में रूककर सुस्ता लेने को जी चाहता है. अरसा हुआ जैसे खुद को छुआ नहीं, हालाँकि ऐसा भी नहीं कि जिया न हो. ये बिना खुद को छुए जीना भी कितना अजीब होता है. हम हँसते हैं, मुस्कुराते हैं, लोगों से मिलते हैं और अपनी खैरियत से होने की तस्दीक करते हैं. फिर क्या है जो भीतर रिसता रहता है.

पर्याप्त खुश होना क्या यही होता है. अगर ये है तो महसूस क्यों नहीं होता. जब जी चाहता है मौसमों की डाल झुकाकर खुद को पीले या सफ़ेद फूलों से ढँक लेती हूँ. जब जी चाहता है, आवारगी की पाजेब की छुन छुन से पूरी धरती को गुंजा देती हूँ. बरिशे जब चाहे उतार लाती हूँ, जब चाहे सूरज को हथेलियों से फिसल जाने देती हूँ. वादी में गिरता सूरज कितना मासूम लगता है न? इसके तेवर तो दोपहरों को देखने वाले होते हैं ठीक उसी वक़्त वो जिद्दी रात बरसनी शुरू हो जाती है. भरी दोपहर रात की बारिश....टप्प टप्प टप्प...

अरसा हुआ जी भर के रोये, बेखटक सोये, अरसा हुए किसी से झगडा किये, बेवजह रुठे या किसी को मनाये, कितनी मुद्दत से किसी मोड़ पे ठहर जाने को जी नहीं किया, किसी किताब का पन्ना मोडते हुए अपना सीला सा मन वहीँ रख देती हूँ. कानों में गूंजता है कोई अधूरापन कि और क्या होता है पर्याप्त खुश होना भला?

जाने क्या बात है कि अपनी पर्याप्त ख़ुशी के साथ जब भी कुछ लिखने बैठती हूँ एक हूक सी उठती है...और लिखने की बजाय झाड़ू लगाना ज्यादा अच्छा लगता है. घर बहुत साफ़ रहता है इन दिनों. जीवन पर्याप्त से ज्यादा व्यवस्थित....सब कुछ अच्छा है  बहुत फिर भी...

पर्याप्त जगह है जीवन में मेरी
पर्याप्त जीवन है मुझमे
मुक्कमल रातों की मुठ्ठियों में
दिलकश सवेरे का ठिकाना महफूज है
मुस्कुराहटें भी हैं,
बेसबब खिलखिलाहटें भी
आहिस्ता-आहिस्ता
करवट बदलती धरती सा मन
अपने पर्याप्त पूरेपन में
जाने किस अधूरेपन से जूझता है
घर में जाला कोई नहीं इन दिनों...

Monday, April 4, 2016

ओ री जिन्दगी



ओ री जिन्दगी
कर ले तू कितनी ही चालबाजियां
उलटबासिया
कलाबाजियां
खेल ले चाहे कितने ही खेल
आजमा ले कितना ही हौसला
खड़ी कर ले मुश्किलों की कितनी ही बाड
दिन के शफ्फाक उजालों में घोल के देख ले
निराशाओं के कितने ही अँधेरे
हारेंगे नहीं हम
किसी कीमत पे नहीं
कि तुझसे अपनी मोहब्बत जीकर निभाएंगे
गिले-शिकवे करने को भी
जीना तो जरूरी है न ?


Sunday, April 3, 2016

हंसा - दोस्त चिंता नहीं, सब ठीक होगा...



हमारा समाज, हमारा परिवेश हमें गढ़ते हैं। हम चाहें, न चाहें वो हमारे साथ चलते हैं...चलते रहते हैं। एक खाली कक्षा में सूनी आंखों वाली बच्ची अपनी ड्राइंग की काॅपी में जो लकीरें खींचती है वो महज तस्वीर नहीं है, उस बच्ची का पूरा संसार है...स्कूल, कक्षा, शिक्षक कुछ भी उस समूचे संसार से विरत नहीं है। खेल-कूद से दूर अगर कोई बच्चा चुपचाप बैठा है तो वह बहुत कुछ बयान कर रहा है...बिना बच्चों के मन से रिश्ता बनाये, बिना उनके संसार को समझे उनसे किस शिक्षा का आग्रह हम कर सकते हैं यह सवाल है। सरकारी स्कूलों के शिक्षक अक्सर कहते हैं, हम जो भी पढ़ाते हैं बच्चे घर जाकर किताबें तक नहीं पलटते, या घरवाले बच्चों पर ध्यान ही नहीं देते...लेकिन घरवालों के हालात तो ऐसे हों शायद कि पढ़ाई की बात उनके लिए किसी लक्ज़री सी मालूम होती हो, क्या पता। ऐसे में बच्चों के परिवार, परिवार के सदस्यों, समाज, हालात से इतर बच्चे को आइसोलेशन में देखकर कोर्स पूरा कराने की कवायद कारगर हो सकती है क्या यह सोचने की बात है। बच्चे के मन के संसार और उसके आसपास के बाहर के संसार तक पहुंचने के लिए हमें तमाम माध्यमों की जरूरत पड़ती है...फिल्म हंसा भी ऐसा ही एक माध्यम है...

उत्तराखंड के खूबसूरत दृश्यों और मौसमों वाली काॅपी में एक उदास पन्ना खुलता है। पन्ने पर उभरती हैं कुछ लकीरें....कोई धुंधली सी तस्वीर बनती है...क्लासरूम में आखिरी बची आखिरी बच्ची की आंखों से उतरकर वो तस्वीर जिन्दगी के रास्तों पर दौड़ने लगती है...भागने लगती है...फिल्म की शुरुआत बस यहीं से...इंतजार से भरी दो आंखें पूरे स्क्रीन पर फैलती हैं...तमाम सुंदर दृश्यों के बीच...पिता के इंतजार में रची-बसी आंखें...वो आंखें जिनमें जाते हुए पिता की पीठ दर्ज है...

खूबसूरत दृश्य, पहाड़ियां, सूर्योदय, फूलों से भरी डालियां और हंसा. हंसा एक बारह-चैदह बरस के बच्चे के इर्द-गिर्द बुनी गई कहानी है। हंसा के पिता लापता हैं। वो गांव छोड़कर चले गये हैं। शायद शहर। शायद बच्चों के लिए खूब सारे खिलौने और मिठाइयां लाने। शायद कर्ज में डूबे घर के लिए ढेर सारा पैसा कमाने। शायद...यह शायद फिल्म में लगातार मौजूद रहता है। हंसा की बड़ी बहन चीकू इस शायद से लगाताार संवाद करती है, उससे टकराती है। नाराज भी होती है।

यह उदासी की कहानी नहीं है। यह कहानी है जीवन में जबरन ठूंस दी गई या आ गिरी निराशा और मुश्किलों से पूरी हिम्मत के साथ टकराने की। मजलूमों  का  मजलूमों  से अनजाने  ही बन जाने वाले रिश्ते की कहानी है. कहानी है मासूम हंसा की शरारतों की। जिस दौर में बच्चे वीडियो गेम, मोबाइल ऐप्प में उलझे हैं अपना हंसा लाल गेंद के पीछे भागता फिरता है। फिल्म में बहुत संवाद नहीं हैं लेकिन कहन बहुत है। दृश्य, घटनाएं, भाव संवादों से ज्यादा मुखर हैं।

यह हालात के आगे घुटने न टेकने वाली चीकू की कहानी है...हंसा की शरारतों की कहानी है, पेड़ पर अटकी लाल गंेद के गिरने के साथ ही उदास आंखों में उभर आने वाली उम्मीद की कहानी है...यह कहानी है हम सबकी जो हर रोज हालात का सामना करते हुए कितनी ही बार निराशा से भर उठते हैं लेकिन भीतर से एक आवाज आती है...दोस्त चिंता नहीं, सब ठीक होगा...